आलेख – ऐतिहासिक मातृवंदना 2023 मार्च अप्रैल
इब्राहीम गजनवी द्वारा ध्वस्त धमीड़ी किले में स्थित प्राचीन मंदिर के अवशेष
सन 1088 ई० की शृंखला में गजनवी ने भारत पर एक के पश्चात् एक अनेकों आक्रमण किये थे l उसने अपने आक्रमण, आतंक और लूटपाट के अंतिम अभियान में काँगड़ा मंदिर की तो अनंत संपदा को लुटा ही था l इसके साथ ही साथ धमीड़ी का प्राचीन मंदिर भी अछूता नहीं रह सका l उसने धमीड़ी के इस मन्दिर को ना केवल लुटा ही बल्कि उसे छैनियों तथा हथोड़ों से क्षतिग्रस्त भी करवाया था l
धमीड़ी किले के प्रवेश द्वार से पूर्व पहला लक्ष्मी-नारायण जी और दूसरा धर्मेश्वर महादेव जी का मंदिर दर्शनीय है l कहा जाता है कि जब धमीड़ी शहर का प्रादुर्भाव हुआ था, यह दोनों मंदिर उसी काल के विस्थापित हैं l धर्मेश्वर महादेव जी के नाम पर ही वर्तमान नूरपुर का प्राचीन नाम धमीड़ी पड़ा था l नूरपुर के लोग अब भी धर्मेश्वर महादेव जी को शहर का स्वामी मानते हैं l
इस मंदिर के बारे में एक किवदन्ती आज भी प्रचलित है – धर्मेश्वर महादेव जी के मंदिर के चारों ओर दीवारों में छोटे-छोटे झरोखे हैं l जब इस क्षेत्र में वर्षा नहीं होती थी, उस समय श्रद्धालु-भक्तों के द्वारा मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित बड़े तलाब से पानी लाकर, मंदिर के किवाड़ बंद करके, उन छोटे-छोटे झरोखों से तब तक पानी डाला जाता था जब तक मंदिर के भीतर शिवलिंग पानी में डूब नहीं जाता था l शिवलिंग का पानी में डूब जाने के पश्चात् एक दो दिनों तक वर्षा अवश्य हो जाती थी l
किले के अंदर बृजराज स्वामी जी का मंदिर, के पास अन्य महाकाली माता जी का एक मंदिर है l स्थानीय लोगों का मानना है कि यह मंदिर उतना ही प्राचीन है जितना कि किला l माता को यहाँ के राजाओं की कुलदेवी कहा जाता है l रात के समय माता अपने क्षेत्र में दौरा करती हैं l जब वे बाहर निकलती हैं, उस समय उनके चलने और आभूषणों की खनखनाहट के स्वर किन्हीं भाग्यशाली श्रद्धालु-भक्तों को ही सुनाई देते हैं l
नूरपुर शहर में गोलू नाम का एक मिस्त्री रहता था l वह धमीड़ी के राजा जगत सिंह जी, का समकालीन था l एक बार बृजराज स्वामी मंदिर की छत जो क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण नीचे झुक गई थी, उसे ठीक करने की जिम्मेवारी गोलू मिस्त्री की थी l उसने काले चने की आठ-दस बोरियां मंगवाई जिन्हें उसने छत के नीचे बोरी पर, बोरी रखवाकर सभी बोरियों को छत तक ऊँचा करके रखवा दिया, तद्पश्चात् उन सब बोरिओं को पानी से भिगोया गया l इससे चने फूल गए और मंदिर की छत ऊपर उठ गई l बाद में गोलू मिस्त्री ने छत ठीक कर दिया l उसी गोलू मिस्त्री के नाम पर आज नूरपुर शहर में एक गोलू मुहल्ला भी स्थित है जो सबको उसकी याद दिलाता रहता है l
भवन राज दरबार बना बृजराज स्वामी का मंदिर -
मैंने अपनी पूजनीय माता जी, से सुनी रोचक दन्त कथा जो उन्होंने मेरे नाना जी, से सुनी थी, इस प्रकार है -
“एक बार राजा जगत सिंह जी, (1619 – 46) अपने राजकीय कार्य के अंतर्गत राजस्थान के चितौड़ – उदयपुर गए थे l वहां के राजा ने पुरे राजकीय सम्मान के साथ उन्हें विश्राम करने के लिए अपने राज अतिथि गृह में, विश्राम कक्ष की व्यवस्था करवा दी l जिस कमरे में वे रात विश्राम कर रहे थे, अचानक उसके साथ ही वाले कमरे से उनके कानों में घुंघरुओं के स्वर के साथ-साथ किसी महिला के नाचने और भजन गाने की मधुर आवाज सुनाई दी l राजा को जिज्ञासा हुई, क्यों न एक बार उठकर साथ वाले कमरे में देख लिया जाये ? जब उन्होंने उठकर कमरे में देखा तो बस वे देखते ही रह गये l वे देखते हैं कि वह नाचने और गाने वाली कोई और नहीं, मीराबाई जी, श्रीकृष्ण जी के प्रेम में मग्न थी, गा रही थी l राजा जगत सिंह जी, कभी अपने कमरे में जाकर सोने का असफल प्रयत्न करते तो कभी उसे देखने का l इस तरह सुबह कब हो गई ! उन्हें कुछ पता नहीं चला l राजा जगत सिंह जी, ने सुबह देखा कि साथ वाले कमरे में जहाँ से उन्हें स्वर सुनाई दे रहा था, वहां एक मंदिर है और उस मंदिर में श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की दो मूर्तियाँ विराजित हैं l कहा जाता है यह वही श्रीकृष्ण जी की मूर्ति है जिसकी मीराबाई जी पूजा किया करती थी और उसमें सशरीर समा गई थी l
धमीड़ी की वापसी के समय राजा जगत सिंह जी से रहा नहीं गया l उन्होंने अपने पुरोहित के माध्यम से अपने मन की बात साहस सहित, वहां के राजा के समक्ष रख दी जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया l राजा ने उन्हें भेंट स्वरूप वे दो मूर्तियाँ ही नहीं से दीं बल्कि उनके साथ एक मौलसरी का पौधा भी दिया जिसे लेकर राजा जगत सिंह जी धमीड़ी आ गए l
राजा जगत सिंह जी, का राजस्थान से धमीड़ी में आगमन हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि दिल्ली के मुग़ल सम्राट ने धमीड़ी पर आक्रमण करने हेतु सेना की एक टुकड़ी को किसी विशेष सेना नायक के नेतृत्व में भेज दिया l
माता जी ने आगे कहा – “वह भवन जो अब बृजराज स्वामी मंदिर है, पहले राजा जगत सिंह जी, का राज दरवार था और उन्होंने उसकी पहली मंजिल पर जहाँ अब श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियाँ स्थापित हैं, वहां स्वयं बैठने की लिए राज सिंहासन स्थापित किया हुआ था l”
दूर से आई हुई थकी मुग़ल सेना धमीड़ी राज्य से कुछ कोस दूरी पर रात को विश्राम कर रही थी l रात में राजा जगत सिंह जी, को श्रीकृष्ण जी सपने में आये और उन्होंने उनसे कहा –
“मुग़ल सेना धमीड़ी राज्य पर आक्रमण करने वाली है l वह कृष्ण व मीरा की मूर्तियाँ खंडित कर दे कि उससे पूर्व तू उन दोनों को पास में बहने वाली जब्बर खड्ड में बनी अस्थाई झील में डुबो दे ताकि वह वहां सुरक्षित रह सकें l विजयी होने के पश्चात् तू उन्हें वहां से बाहर निकलवा लेना l”
युद्ध शुरू हुआ l मुग़ल सेना की एक टुकड़ी ने नूरपुर शहर पर भी आक्रमण किया तब प्रत्यक्ष दर्शियों ने देखा किले से दो सफेद घोड़ों पर दो घुड़सवार अपने हाथों में तलवारें लिए हुए निकले देखते ही देखते वे असंख्य घुड़सवारों में परिवर्तित हो गये l मुग़ल सेना को इसकी आशा नहीं थी l अपर सेना देख मुग़ल सेना की टुकड़ी के पांव उखड़ गए और वह वापिस भाग गई l युद्ध के मैदान में भी राजा की जीत हुई l राजा ने सुबह राज दरवार लगाना था कि उस रात को फिर एक बार श्रीकृष्ण जी, उन्हें सपने में आये और उन्होंने उनसे कहा –
“तू आज अपनी जीत पर इतना प्रसन्न है कि मुझे भी भूल गया l मीरा और कृष्ण की प्रतिमाओं को कौन लायेगा, जिन्हें तूने पानी में डुबो रखा है ?”
इतना सुनते ही राजा की तत्काल आँख खुल गई और इसके पश्चात् फिर उन्हें पलभर भी नींद नहीं आई l वह बड़ी व्याकुलता से भोर होने की प्रतीक्षा करने लगे l सुबह होते ही उन्होंने राज पुरोहितों को अपने पास बुलावा भेजा और उनके आने पर राजा ने उन्हें श्रीकृष्ण जी की सपने वाली सारी बात कह सुनाई l निर्णय हुआ, दोनों मूर्तियों को वापिस महल में लाया जाये l तब स्नान आदि से निवृत होकर राजा जगत सिंह जी, ने प्रजा जनों के साथ जब्बर खड्ड की ओर चलने और अस्थाई झील में से मीरा और कृष्ण की प्रतिमाओं को राज महल में लाने का आदेश दिया l
प्रतिमाओं को जब्बर खड्ड की झील से निकलवा कर पालकी में रखा गया l कहारों ने पालकी उठाई और वे राज महल की ओर चल दिए l वे अभी बड़ी मुश्किल से दस ही पग चल पाए होंगे कि अचानक उन्होंने पालकी नीचे धरती पर रख दी l तब राजा ने कहारों से पूछा –
“क्या हुआ, पालकी नीचे क्यों रख दी है ? आप आगे क्यों नहीं चल रहे ?
“ पता नहीं, पालकी अचानक भारी कैसे हो गई ? इसे उठाकर हमसे नहीं चला जा रहा l” कहारों ने कहा l
तब राज पुरोहितों सहित सभी उपस्थित जनों ने एक दूसरे का निरीक्षण करने के साथ-साथ आत्म निरीक्षण भी किया और पाया कि सभी लोग नंगे पांव चल रहे हैं, मात्र एक राजा ही ही हैं जो जूते पहने हुए थे l तब राज पुरोहित ने उनसे जूते उतारने का आग्रह किया l उनके द्वारा जूते उतारने के तुरंत पश्चात् पालकी पूर्वत भारहीन हो गई l
बृजराज स्वामी मंदिर में विराजित श्रीकृष्ण जी और मीराबाई जी की मूर्तियाँ l
राज महल में पहुँचने के पश्चात् राजा ने अपने राज सिंहासन को उसके स्थान से हटवा दिया और वहां पर श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियां स्थापित करवा दी l इसके साथ ही राजा ने अपने राज दरवार को ठाकुर द्वारा भी घोषित कर दिया l
बृजराज स्वामी मंदिर के प्रांगन में लहलहाता मौलसरी का पेड़
इतना ही नहीं राजस्थान के चितौड़ – उदयपुर से श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियों संग लाये हुए उस मौलसरी के पौधे को भी राजा ने मंदिर के ठीक सामने प्रांगण में लगवा दिया जो अब भी एक विशाल वृक्ष है l उन्होंने भवन के निम्न भाग की दीवारों पर श्रीकृष्ण जी की लीलाओं से संबंधित अनेकों रंगीन मनमोहक भीती चित्र भी बनवाए थे l यह प्रतिष्ठित भवन अब बृजराज स्वामी मंदिर के नाम से जाना जाता है l
माता जी आगे कहती हैं – सन 1905 ई० की बात है, तब एक बहुत बड़ा भूकंप आया था l उस भूकंप में काँगड़ा शहर में जान-मॉल की बहुत अधिक हानि हुई थी लेकिन नूरपुर शहर में किसी मकान या प्राणी को कोई खरोंच तक नहीं आई थी l हाँ बृजराज स्वामी मंदिर की पिछली दीवार में y आकार की एक मात्र दरार आई थी जिसे बाद में ठीक कर दिया गया था, वह निशान अब भी दिखाई देता है l
माता जी आगे कहती हैं – “गर्मियों का मौसम था l एक रात मंदिर का पुजारी दर्शन और एक गद्दी मंदिर की धरातल पर बातें करते-करते कब सो गए, उन्हें कुछ पता ना चला l इस बार सुबह पुजारी को उठने में कुछ देरी हो गई लेकिन गद्दी जाग चुका था l इतने में गद्दी को ऊपर वाली पहली मंजिल पर किसी व्यक्ति के खडाऊं पहने चलने का स्वर सुनाई दिया जो उनकी ओर ही बढ़ा चले आ रहा था l वह अनजाना आ ही नहीं रहा था बल्कि “हरि ओम तत्सत” मन्त्र का भी निरंतर उच्चारण कर रहा था l अब वह छत की सीढ़ियाँ उतर रहा था और उसकू खडाऊं की आवाज आ रही थी l गद्दी देखता है – स्वयं श्रीकृष्ण जी एक हाथ में लोटा, दुसरे हाथ में दातुन और कंधे पर गमछा डाले हुए नीचे चले आ रहे हैं l इसके साथ ही साथ गद्दी के तन पर एक अनजाना सा भार बढ़ने लगा l वह निरंतर बढ़ता जा रहा था और गद्दी चाहकर भी उठना तो दूर, तनिक हिल भी नहीं पा रहा था l श्रीकृष्ण जी उसके पास आकर मंदिर से दूर सामने बने कमरे की ओर जा रहे थे l जैसे जैसे वे उससे दूर होते गए, उसके साथ ही साथ उस पर वह अनजान भार भी हल्का होता चला गया l श्रीकृष्ण जी ने कमरे की कुण्डी खोली और उसके भीतर चले गये l तब तक गद्दी पूरी तरह से भारहीन हो चूका था और उसके मुंह से निकला –
“दर्शन ! उठ, आज श्रीकृष्ण जी स्वयं स्नान करने निकलें हैं, तू सोया रह l”
पुजारी हड़बड़ाता हुआ उठा –
“हरि ओम, हरि ओम, क्या कह रहे हो ?” उसके मुंह से निकला l
“हाँ-हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ, जो तूने सुना l तेरे ठाकुर जी स्वयं स्नान करने हेतु अभी-अभी सामने वाले कमरे में गए हैं l” गद्दी ने कहा और तब उन दोनों ने सय्या त्याग दी l
चेतन कौशल “नूरपुरी”
श्रेणी: ऐतिहासिक -आलेख
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धमीड़ी किला और बृजराज स्वामी जी
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भारतीय इतिहास
भारतीय इतिहास को आजतलक भारत में जनित, संस्कारित एक भारतीय ने जितना अच्छा जाना हैै, विपरीत सभ्यता, संस्कृति में जनित, संस्कारित किसी विदेशी ने नहीं। उसने तो भारतीय इतिहास को कभी जानने का प्रयास ही नही किया, उसका मात्र एक यही उद्देश्य रहा है कि किस तरह भारत की संगठित शक्ति एवं सुख समृद्धि को नष्ट करके उसे क्षीण, हीन बनाया जा सकता है?
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मेरा गांव ‘सुल्याली’
अठाहरवीं सदी के अंत में और उन्नीसवीं सदी के पहले दूसरे दशक में गांव सुल्याली, एक बहुत बड़ा व्यापारिक केन्द्र रहा था। इस गांव के जाने माने धनाड्डयों में स्व0 श्री किरपा राम जी, वोटी, स्व0 भवानी शंकर जी व स्व0 श्री उग्रसेन जी, सौगुनी, स्व0 जयकरण जी पिता स्व0 श्री मुकुन्द लाल जी, चौधरी सुल्याली निवासी व स्व0 श्री दिवान चन्द जी, चौधरी , बकलोह निवासी, स्व0 श्री मल्हू राम जी पिता स्व0 श्री तुलसीराम जी, सुनार तथा स्व0 राधाकृष्ण जी व स्व0 श्री रामचन्द जी, दुनेरा निवासी प्रतिष्ठित परिवार थे। यहां पर पठानकोट से चक्की के रास्ते वाया देवी भराड़ी से होते हुए ऊँट, खच्चर और घोड़ों पर खाने-पीने, पहनने और अन्य हर प्रकार का उपयोगी सामान आया करता था। इससे आगे उसकी यहां से 70-80 मील की परिधि में भरमौर, चम्बा, डलहौजी, चुआड़ी आदि दूरदराज के क्षेत्रों तक आपूर्ति की जाती थी।
वर्तमान में इस गांव के बीचों-बीच एक अच्छा बाजार है जिसमें करयाना, बजाजी, हलवाई, इलैक्टरोनिक्स, मैडिकल स्टोर, स्टेश्नरी , सब्जी, दर्जी, नाई, तरखान आदि की दुकानें स्थित हैं। इनसे रोज-मररा की वस्तुएं आवश्यकता अनुसार गांव वासियों को सहजता से मिल जाती हैं।
यहां की भूमि मैदानी, उपजाऊ होते हुए भी वर्षा जल पर निर्भर करती है। कनक, मक्का और धान यहां की मुख्य पैदावार है। यहां की माश और कुलथ की दालें बहूत मशहूर हैं।
यहां देशी मीठे व आचारी आमों के अनेकों बाग हुआ करते थे। इस कारण यह गांव आम, आमपापड़, आमचूर और कुत्तरा (टुकड़ों में सूखाए हुए खट्टे आम) के लिए भी बहुत प्रसिद्ध था। अब इनका स्थान भले ही कलमी आमों ने ले लिया हो लेकिन अब भी यहां देशी आमों का अभाव नहीं है।
स्व0 नित्यानन्द जी, गौड़ पुरोहित, सुल्याली निवासी की बहु श्रीमती निर्मला देवी जी धर्मपत्नी स्व0 श्री विशनदास जी ने बताया - स्वर्गीय गंगा राम जी, गौड़ पुरोहित, के पूर्वज जम्मू कश्मीर राज्य के बसोहली नगर से यहां आए थे। स्व0 श्री मल्हू राम जी व स्व0 नित्यानन्द जी उनके दो बेटे थे। श्री मल्हू राम जी की कोई संतान नही थी। स्व0 नित्यानन्द जी ने दो शादियां की थीं। पहली पत्नि से एक लड़की हुई थी। कुछ समय पश्चात उनकी इस पत्नि की मृत्यु हो गई। इसके पष्चात् उन्होंने दूसरी शादी कर ली। उससे उनके छह बेटे स्व0 श्री त्रिलोकी नाथ जी, वासदेव जी, गोविंद राम जी, विशनदास जी, प्रेमनाथ जी तथा पुष्पराज जी हुए। इस समय श्री वासदेव जी का परिवार पठानकोट तथा शेष के सुल्याली में रहते हैं। श्री मल्हू राम जी, गौड़ पुरोहित, ज्योतिष विद्या के प्रकांड विद्वान थे। उनके जीवन काल में सुल्याली गांव ज्योतिष विद्या का गढ़ माना जाता था। यहां पर गुरुकुल प्रथा पर आधारित एक वैदिक पाठशाला भी चलाई जाती थी जिसमें ज्योतिष ज्ञान प्राप्ति करने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी विद्या ग्रहण करने हेतु आया करते थे।
गांव में डिब्बकेश्वर महादेव गुफा के अतिरिक्त पूजनीय बाबा सुखयाली जी की बाराहदरी के ठीक वाईं ओर पास ही में एक उतना ही पुराना प्राचीन दुर्गा मंदिर है जितना कि सुल्याली गांव। कालांतर में आक्रांताओं ने उसमें विराजित दुर्गा माता जी की मूर्ति खंडित कर दी थी। अब गांव वासियों ने उस मंदिर का जीर्णोद्वार कर उसमें पुनः माता जी की मूर्ति प्रतिष्ठित कर दी है।
पूजनीय बाबा सुखयाली जी की चरण पादुका के पास श्री राधाकृष्ण जी, शनिदेव जी, मां दुर्गा जी, महादेव जी, यमराज जी, गोवर्धन धारी श्रीकृष्ण जी के मंदिर स्थित हैं। जन स्वास्थ्य केन्द्र, सुल्याली के पास पीपल पेड़ के नीचे शिवजी का मंदिर, बस ठहराव स्थल के पास पीपल पेड़ के नीचे एक और शिवजी का मंदिर, मकोड़ जामुन में मल्हमाता जी, सत्योति माता जी और शिवजी के मंदिर हैं। इसी तरह देवी भराड़ी में मां दुर्गा जी का एक भव्य मंदिर है।
पूजनीय बाबा जी की चरण पादुका के पास एक अति प्राचीन श्रीराधा - कृष्ण जी का एक छोटा सा मंदिर हुआ करता था जिसके पुजारी स्व0 पंडित श्री वीरभद्र जी थे। वे प्रायः ठाकुरों को गर्मियों में मकोड़ जामुन में स्थित एक अन्य मन्दिर में ले जाया करते थे, वहां से वे उन्हें सर्दियों में वापिस पहले वाले स्थान पर ले आया करते थे।
मकोड़ जामुन स्थान का नामकरण मकोड़ जामुन इसलिए हुआ कि वहां कभी तीन-चार विशाल जामुन के पेड़ हुआ करते थे, में से अब मात्र एक पेड़ शेष रह गया है, के तनों से असंख्य मोटे ओर बड़े आकार के 'काढ़े' मकोड़े-चींटियां निकला करते थे। मकोड़ जामुन में परंपरागत हर वर्ष छिंज होती है और मेला भी लगता है। इसी तरह देवी भराड़ी में स्थित दुर्गा मां मंदिर के पास भी बैसाखी का मेला सजता है। इन मेलों में पहलवानों के तो दंगल होते ही हैं गांव वासियों द्वारा गांव के अन्य निश्चित स्थानों पर भी दंगल करवाए जाते हैं और जीतने वालों को उचित पारितोषिक दे कर नवाजा जाता है। यहां की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। स्थानीय लोग इसका भरपूर लाभ उठाते हैं।
सदियों पूर्व से यहां होली और दशहरे के दिनों में देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करने के उपरांत असंख्य मनमोहक झांकियां निकाली जाती हैं जिनका प्रचलन आज भी देखा जा सकता है। यहां की रामलीला, जन्माष्टमी , गणेशोत्सव, गणेश -पूजन व गणेश -मूर्ति विसर्जन जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने योग्य हैं।
यहां के आसपास के ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों पर भेड़-बकरियों पर आश्रित लोगों का अपना एक अच्छा व्यवसाय है। सर्दी के मौसम में जब ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पड़ जाती है तो गद्दी, गुज्जर तथा बकरवाल अपने मवेशियों के साथ नीचे मैदानी क्षेत्रों में आ जाते हैं । जिन से यहां के लोगों को बढ़िया किसम की ऊन व पश्मीना मिल जाता है। यहां के हर घर में महिलाओं के पास अपना-अपना चरखा हुआ करता था जो अब नही है, फिर भी यहां ऊन, पश्मीना लोगों की जीविका का एक अनूठा संसाधन है। ऊन व पश्मीना से खड्डी पर बुन कर महिला व पुरुष वर्ग के लिए सर्दियों में ओढ़ी जाने वाली गर्म शालें व चादरें बनाई जाती हैं जिन्हें कांगड़ी शाल का नाम दिया गया है। इनकी बाजार में अच्छी विक्री हो जाया करती है। यहां का पुरुष वर्ग खेती-बाड़ी करता है। इसके अतिरिक्त सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में ऊँचे-ऊँचे पदों पर अपनी सेवाएं दे रहा है तथा सेवाएं देकर सेवा निवृत्त भी हो गये हैं ।
कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नातेे इस गांव के हर घर में दो-तीन गायें अवश्य हुआ करती थीं। इस कारण यहां दूध व घी की भी कोई कमी नहीं रहती थी। इसलिए यहां के नौजवानों का स्वास्थ्य भी सराहने योग्य था। आधुनिकता की दौड़, प्रयाप्त भूजल भंडार एवं सिंचाई के अभाव के कारण आज भले ही पशुपालन के स्तर में गिरावट आ गई हो पर गौ प्रेमियों ने अब भी अपने घरों में गौ-सेवा करना जारी रखा हुआ है। सदियों से यहां सभी वर्गों के लोग बड़े सौहार्द और प्रेम पूर्वक रहते आए हैं जो एक बड़ी अनूठी मिसाल है।
सन् 1962 ई0 से लेकर 1968 तक बनकर तैयार होेेेने वाले देहाती पेयजल आपूर्ति योजना के अंतर्गत भवन जो लबीणेंयां दी बां (बावड़ी) से आगे चिंतपूर्णी मां के मंदिर के पास बनाया गया था, हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व राजस्व मंत्री श्री लालचंद प्रार्थी जी ने अपने कार्यकाल में सरकार की ओर से पेयजल वितरण प्रणाली का शुभारम्भ किया था। सुनने में आता है कि यहां सन् 1962 ई0 से पूर्व बहुत संख्या में वानर हुआ करते थे। पेयजल सेवा भवन निर्माण के पश्चात यहां उनकी संख्या नाम मात्र की रह गई है। सिंचाई व जन स्वास्थ्य विभाग कार्यालय के अभाव में पानी का बिल उगाही के लिए उससे संबंधित कर्मचारियों को यहां नूरपुर से आना पड़ता है।
स्व0 त्रिलोक सिंह पठानियां जी, सुल्याली निवासी तथा उनके भागीदारों ने गांव वासियों के स्वास्थ्य लाभ हेतु भूदान करके वहां एक स्लेटपोश प्राथमिक आयुर्वेदिक चिकित्सालय का निर्माण करवाया था जो अब दस विस्तरों वाला आयुर्वेदिक चिकित्सालय के नाम से जाना जाता है।
ग्राम सरपंच स्व0 श्री ध्यान सिंह पठानियां जी, सुल्याली निवासी तथा उनके भागीदारों ने बच्चों के शिक्षण हेेतु सुल्याली विद्यालय के लिए भूदान किया था। वहां अब राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला विद्यमान है।
कैप्टन स्व0 श्री विशन सिंह पठानियां जी, सुल्याली निवासी तथा उनके भागीदारों ने विद्यालय के बच्चों कोे खेल का मैदान के लिए सुल्याली विद्यालय के लिए भूदान किया था। इसके चारों ओर अब राजकीय वरिश्ठ माध्यमिक पाठशाला के अंतर्गत एक ऊँची चार दीवारी का नवनिर्माण कर दिया गया है। इस समय हटली, सिंबली, वारड़ी, नेरा, सुल्याली, लुहारपुरा और देवी भराड़ी में राजकीय प्राथमिक पाठशालाएं स्थित हैं।
सड़क के अभाव में यहां गांव के लोग पैदल आया जाया करते थे। गांव में डाकघर का काम किसी दुकान या घर में किया जाता था। नूरपुर से डाक घोडे़ से लाई जाती थी। यह काम स्व0 श्री रामप्रसाद जी, भटारा किया करते थे। सड़क बन जाने के पश्चात गांव के बाजार में वृद्धि हुई है और गांव का डाकघर अब ठीक बाजार के मध्य स्थित है। इसका भवन स्व0 श्रीमती कलावती, सेवा निवृत्त सरकारी शिक्षा विभाग, (हिमाचल प्रदेश) ने डाक विभाग को दान किया था।
गांव वासियों के हित में यहां पहले मात्र एक ही उचित मूल्य की सरकारी दुकान हुआ करती थी। पर अब उसके स्थान पर दो हो गई हैं।
यहां पर लोक निर्माण विभाग का भी कार्यालय स्थित है जिसमें गांव वासियों की सेवा में उससे संबंधित कार्य किया जाता है तथा विभाग का यहां अपना एक भ्ंडार भी है।
बस ठहराव स्थल के पास यहां गांव वासियों की सेवा के लिए, विद्युत विभाग का कार्यालय खुल जाने से अब उन्हें बिल जमा करवाने हेतु नूरपुर नहीं जाना पड़ता है अथवा नूरपुर से किसी सरकारी कर्मचारी को बिल उगाही हेतु यहां नहीं आना पड़ता है।
गांव वासियों के पालतु पशुओं के स्वास्थ्य लाभ हेतु पहले नूरपुर जाना पड़ता था पर अब यहां के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठषाला के पास सरकारी विभाग ने अपना पशु चिकित्सालय भवन निर्माण कर लिया है। इसके लिए श्री संदीप सिंह जी, सपुत्र स्व0 श्री बलवीर सिंह जी, पठानियां ने भवन निर्माण हेतु भूदान किया है।
गांव की सम्पूर्ण धरती का उचित व्योरा रखने हेतु यहां के बस ठहराव स्थल के पास गांव का अपना पटवार खाना स्थित है।
बस ठहराव स्थल के पास गांव वासियों की सुविधा के लिए यहां ग्रामीण बैंक खुल गया है। इससे गांव के वृद्धजनों को धनराशि जमा करवाने अथवा निकलवाने हेतु नूरपुर के चक्कर नहीं काटने पड़ते हैं। इस तरह उनका अपना काफी धन और समय बच जाता है।
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श्रेणी:ऐतिहासिक -आलेख
जन मानस विरोधी कदम
मातृवन्दना जून 2007 अंक में पृष्ठ संख्या 8 आवरण आलेखानुसार ”कुछ वर्ष पूर्व ”नासा“ द्वारा उपग्रह के माध्यम से प्राप्त चित्रों और सामग्रियों से यह ज्ञात हुआ है कि श्रीलंका और श्रीरामेश्वरम के बीच 48 कि0 मी0 लम्बा तथा लगभग 2 कि0 मी0 चौड़ा सेतु पानी में डूबा हुआ है और यह रेत तथा पत्थर का मानवनिर्मित सेतु है। भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु का जलयान मार्ग हेतु भारत और श्रीलंका के बीच अवरोध मान कर ”सेतु समुद्रम-शिपिंग- केनाल प्रोजैक्ट“ को भारत सरकार ने 2500 करोड़ रुपए के अनुबंध पर तोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी है।“ यह भारतीय संस्कृति की धरोहर पर होने वाला सीधा कुठाराघात ही तो है जिसे जनान्दोलन द्वारा तत्काल नियन्त्रित किया जाना अनिवार्य है।
जुलाई 2007 मातृवन्दना अंक के पृष्ठ संख्या 11 धरोहर आलेख ”वैज्ञानिक तर्क“ के अनुसार ”धनषकोटी के समीप जलयान मार्ग के लिए वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध हो सकता है।“ इस सुझाव पर विचार किया जा सकता है परन्तु इसकी अनदेखी की जा रही है। एक तरफ भारत की विदेश नीति पड़ोसी पाकिस्तान, चीन, बंग्लादेश, भुटान आदि देशों के साथ आपसी संबंध सुधारने की रही है। उन्हें सड़कों के माध्यम द्वारा आपस में जोड़ कर उनमें आपसी दूरियां मिटाई जा रही हैं तो दूसरी ओर श्रीराम द्वारा निर्मित सेतु को ही तोड़ा जा रहा है। इसे वर्तमान सरकार का जन भावना विरोधी उठाया गया कदम कहा जाए तो अतिश्योक्ति नही होेगी क्योंकि इसके साथ देश-विदेश के असंख्य श्रध्दालुओं की अपार धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हुई हैं। इससे उन्हें आघात पहुंच रहा है।
कितना अच्छा होता! अगर श्रीराम युग की इस बहुमूल्य धरोहर रामसेतु का एक वार जीर्णोध्दार अवश्य हो जाता। उसे नया स्वरूप प्रदान किया जाता। इसके लिए श्रीलंका और भारत सरकार मिलकर प्रयास कर सकती हैं। दोनों देशों के संबंध और अधिक मधुर तथा प्रगाढ़ हो सकते हैं । इस भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की किसी भी मूल्य पर रक्षा अवश्य ही की जानी चाहिए।नवम्बर 2007 मातृवन्दना