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    जल धारा कराती है शिवलिंगों को स्नान

    आलेख – धर्म अध्यात्म संस्कृति दैनिक जागरण 17.5.2006
    देव भूमि हिमाचल प्रदेश में – सुल्याली गाँव तहसील नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है l इसी गाँव में एक कंगर नाला के ठीक उस पर, स्वयम प्रकट हुए आप अनादिनाथ शिव शंकर-भोले नाथ शम्भू जी का प्राचीन मंदिर है जो स्वयं निर्मित एक ठोस पहाड़ी गुफा में है, दर्शनीय स्थल है l 
    मान्यता है कि डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर में पीड़ितों की पीड़ा दूर होती है, जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शांत होती है, अर्थार्थियों को उनका मनचाहा भोग-सुख मिलता है और तत्वज्ञान की लालसा रखने वालों को तत्वज्ञान भी प्राप्त होता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा रूप में दृश्यमान होने के कारण उसमें कहीं दूध समान सफेद रंग की जलधाराएँ गिरती दिखाई देती हैं तो कहीं बूंद-बूंद करके टपकता हुआ पानी l इसके नीचे बने असंख्य छोटे-बड़े शिव लिंगों को उनसे हर समय स्नान प्राप्त होता रहता है l
    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा के ऊपर से कल-कल और छल-छल करके बहने वाली जलधारा की ऊंचाई लगभग 20-25 फुट है l जिस स्थान पर छड़-छड़ की ध्वनि के साथ यह जलधारा गिरती है, स्थानीय लोग अपनी भाषा में उसे छडियाल या गौरीकुंड कहते हैं l यह डिह्बकू भी कहलाता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा की वाएं ओर एक और गुफा है जो स्थानीय जनश्रुति अनुसार कोई भूमिगत मार्ग है l मंदिर गुफा के दाएं ओर उससे कुछ ऊंचाई पर स्थित उसी के समान गहराई की एक अन्य गुफा हा l यहाँ पर गंगा की धारा, शिव जटा से प्रत्यक्ष सी प्रकट होती हुई दिखाई देती है l सुल्याली गाँव और उसके आसपास के कई क्षेत्रों को पिने का शुद्ध पानी यहीं से प्राप्त होता है l
    परम्परा के अनुसार डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में जो भी महात्मा आते हैं, उनकी सेवा में राशन का प्रबंध सुल्याली गाँव के परिवार करते हैं l “बिच्छू काटे पर जहर न चढ़े” यह किसी सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद है या डिह्बकेश्वर महादेव की असीम कृपा ही l
    सुल्याली गाँव में बिच्छू के काटने पर किसी व्यक्ति को जहर नहीं चढ़ता है l जनश्रुति और उनके विश्वास के अनुसार शिवरात्रि को शिव भोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजित रहते हैं तथा यहाँ पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद देते हैं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    ज्ञान चालीसा

    आलेख - शिक्षा दर्पण कश्मीर टाइम्स 16.11.2008
    योग्य गुरु एवंम योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का  हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है l अगर विद्या प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील द्वारा बार-बार  प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु पूर्ण लगनता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाये l 
    1. लोक भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है l
    2. साहित्य एवंम सदग्रंथ पड़ने से विषय वस्तु का बोध होता है l
    3. सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है l
    4. अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है l
    5. बड़ों का उचित सम्मान और उनसे शिष्ट व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है l
    6. आत्म चिंतन करने से आत्मबोध होता है l
    7. सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है l
    8. लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है l
    9. अध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है l
    10. प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है l
    11. सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगन्धित बनता है l
    12. शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान विज्ञान का विस्तार होता है l
    13. कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l
    14. कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है l
    15. दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है l
    16. समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमान हो जाता है l
    17. कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l
    18. उच्च विचार अपनाने से जीवन में सुधार होता है l
    19. आत्मविश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है l
    20. मानवी ऊर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है l
    21. मन में शुद्धभाव रखने से आत्म विश्वास बढ़ता है l
    22. कर्मनिष्ठ रहने से अनुभव एवंम कार्य कुशलता बढ़ती है l
    23. दृढ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है l
    24. लोक परम्पराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है l
    25. स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का अवसर मिलता है l
    26. संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता प्रदर्शित होती है l
    27. स्वधर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है l
    28. प्रिय नीतिवान एवंम न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है l
    29. स्वभाव से विनम्र एवंम शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतिओं का सामना किया जाता है l
    30. निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है l
    31. दुःख में प्रसन्न रहना ही शौर्यता है l वीर पुरुष दुःख में भी प्रसन्न रहते है l
    32. निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है l
    33. परंपरागत पैत्रिक व्ययवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है l
    34. तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है l
    35. तन, मन, और धन लगाकर कार्य करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है l
    36. किसी भी प्रकार अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है l
    37. सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है l
    38. अनुशासित जीवन यापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है l
    39. कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है l
    40. निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है l


    चेतन कौशल “नूरपुरी”
     

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    आत्म-शान्ति पाने के उपाय

    आलेख - मानव जीवन दर्शन – कश्मीर टाइम्स 3.12.1996
    मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l 
    आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l
    1. जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l
    2. दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिन मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l
    3. समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l
    4. अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l
    5. अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है – आत्मानुशासन कहलाता है l
    6. संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था राखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l
    7. अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l
    8. अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रधालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l
    9. निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l
    भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l
    देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट सहन करने पड़ते हैं l
    पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l
    हम इसके बारे में कुछ अधिक न कहते हुए मात्र इतना ही कहेंगे कि हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य भी पुरे करने का प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"

     
     

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    अपने प्रति अपनी सजगता

    आलेख - मानव जीवन दर्शन - कश्मीर टाइम्स 21.10.1996 
    मानव मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमय ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय, वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है , आत्मा का साक्षात् कर लेता है उसे पहचान लेता है और ये जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है l 
    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकार नहीं है l कोई उसे जब चाहे जैसे वर्तन में डाले, वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये, ये उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, सक्षम है l इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दूसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l
    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवंम अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है l यह तो उसके द्वारा विचार करने योग्य बात है कि उसे किस सीढ़ी पर चढ़ना है और किस सीढ़ी पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख ?
    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना-पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l भोग-चिंतन कुसंगति का बुलावा है l भोग-चितन करने से मनुष्य बुरी संगत में पड़ता है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l
    बुराई से दूर रहो ! इसलिए नहीं कि आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना सहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l इससे निकलने वाले परिणाम से आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर,समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना संभवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने आप को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l
    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना आचरण किया गया हो - आनंद रहित है l
    जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सस्भी सुखों से परिपूर्ण होता जाता है l
    प्राचीन काल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर उच्च सन्यासी हो गए हैं या जिन्होंने तन, मन और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थित प्रज्ञ की प्राप्ति अथवा आत्मशांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके मार्ग भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l
    वह ब्रहमचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफान में कभी अडिग न रह सके, वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रहमचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयंम का पक्का होता है और दूसरा अपने पर्ण का l अपमानित तो वाही होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बना रहे l


    चेतन कौशल “नूरपुरी”
     

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    भारतीय शिक्षा की परंपरा

    आलेख - शिक्षा दर्पण दैनिक कश्मीर टाइम्स 9.8.1996  
    जिस प्रकार निवार से किसी लकड़ी की चारपाई को कलात्मक ढंग से बुनकर तैयार किया जाता है ठीक उसी प्रकार किसी देश का मानचित्र उसके अनुकूल उपयोगी शिक्षा पर निर्भर करता है l इस काम में अभिभावक, शिक्षक, राजनीतिज्ञ और प्रशासकों के आपसी प्रेम, सहयोग त्याग और बलिदान की भूमिका प्रमुख रहती है l इससे भाषा, विद्या-कला, सभ्यता, संस्कृति और साहित्य का विकास होता है तथा उनकी सदियों-सदियों तक पहचान भी बनी रहती है l  
    पुराने समय से ही भारतवर्ष गुरुकुलों का स्वामी रहा है, वह जगत कहलाया है l गुरुकुलों में गुरुजन शिष्यों को शिक्षा देने से पूर्व स्वयं आचरण करके जीवन चरित्रार्थ करते थे l वे विद्यार्थी को आत्मज्ञान देने के साथ-साथ उसे कार्य एवं व्यवहार करने हेतु रचनात्मक तथा सकारात्मक शिक्षण भी देते थे l वह लोक भ्रमण व अनुसन्धान करके दिव्य अनुभव प्राप्त करते थे l वह गुरुकुलों में समय-समय पर कला- प्रतियोगिताओं का आयोजन करते थे जिनसे विद्यार्थियों की कला-निपुणता का पता चलता था l
    महऋषि व्यास जी द्वारा रचित महाभारत के अनुसार – एक बार गुरु द्रोणाचार्य जी ने अपने शिष्यों की धनुर्विद्या की परीक्षा लेनी थी l उन्होंने काष्ठ की एक चिड़िया पेड़ पर रखवा दी थी l सभी शिष्यों को बारी-बारी से चिड़िया की आँख में निशाना लगा कर अपनी-अपनी धनुर्विद्या का परिचय देना था l इस प्रतियोगिता में वीर अर्जुन को छोड़ कोई भी शिष्य सफल नहीं हो पाया था l इस कारण वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाये थे l
    शिक्षा पूरी होने पर गुरु-इच्छा अनुसार हर विद्यार्थी के द्वारा गुरु जी को गुरु दक्षिणा देना अति आवश्यक होता था l जंगल में भ्रमण करते हुए गुरु द्रोणाचार्य जी ने एक कुत्ते का मुंह घाव रहित तीरों से भरा हुआ देखा l वे सब उस कुत्ते का साथ, उस एकांत स्थान पर जा पहुंचे जहाँ द्रोणमूर्ति के आगे एकलव्य एकाग्रचित होकर अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था l उसी ने विद्या अभ्यास में विघ्न डाल रहे (भौकते हुए) कुत्ते के मुंह में एक साथ अनेकों तीर भर दिए थे l
    अचानक अपने समक्ष साक्षात् गुरूजी को देख एकलव्य ने उनके आगे ससम्मान अपना सर झुका दिया l गुरूजी के पूछने पर उसने अपना परिचय दिया और बताया कि वे स्वयं द्रोण ही उसके गुरु हैं l गुरु दक्षिणा के रूप में गुरूजी ने एकलव्य से उसका दायें हाथ का अंगूठा माँगा जिसे उसने सहर्ष काटकर उन्हें भेंट कर दिया l
    शिक्षा पूरी हो जाने के पश्चात विद्यार्थी गुरु-इच्छा अनुसार मन, कर्म, वचन का जीवन पर्यंत पालन करते थे l
    इस काम में उनके अभिभावकों का भी पूर्ण योगदान रहता था l गुरुकुलों से विद्यार्थियों का प्रस्थान इस बात की पहचान करवाता था कि वह अपने जीवन, परिवार, सार्वजनिक जीवन की हर कठिनाई का सामना और समस्याओं का समाधान करने में पूर्ण समर्थ हैं और सक्षम भी l वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवंम आत्मिक रूप से बलशाली, प्रेमी-भक्त, बुद्धिमान और आत्मीयता के धनी हो गये हैं l
    जब कोई विद्यार्थी अपने जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के भय से भयभीत अथवा हताश भी हो जाता तो उसके लिए उसे गुरु आश्रम के कपाट सदा खुले ही मिलते थे l वह गुरूजी से विचार-विमर्श करने और मार्गदर्शन पाने के लिए वहां किसी भी समय आ-जा सकता था l
    गुरुकुल में हर विद्यार्थी के हृदय और मस्तिष्क एक विशेष ज्ञानामृत भर दिया जाता था l “हे प्रभु ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जा l अँधेरे से उजाले की ओर ले जा l मृत्यु से अमरता की ओर ले जा l” परिणाम स्वरूप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य होता था l
    भारतीय समाज में आदरणीय माता-पिता व गुरुजी का देव तुल्य पूजनीय स्थान है l उनकी सेवा ईश्वर की पूजा समझी जाती है l माँ-बाप अच्छी सुसंस्कृत सन्तान के जनक हैं तो गुरुजन अच्छे राजनेता प्रशासक और सेवकों के निर्माता, प्रणेता और पोषक भी हैं l
    स्वयं सीखना और योग्य बनना तथा दूसरों को सिखाना और उन्हें योग्य बनाना भारतीय शिक्षा की परंपरा रही है l उस समय देशभर में अभिभावक, गुरु, राजनेता, प्रशासकों के आपसी ताने-बाने में कमी आ गई थी l महामना आचार्य चाणक्य जी ने पुरानी चारपाई समान चरमराता हुआ राष्ट्र स्वरूप देखा l उन्होंने नन्हें परन्तु योग्य शिष्य चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके न्यायप्रिय, दूरदर्शी, कुशल राजनीतिज्ञ बनाया और उसके मन में राष्ट्रीय एकता, अखंडता, देशप्रेम, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना का बीज रोपित किया l उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद पर आधारित राजनीति की भारत में लोकतान्त्रिक नींव रख दी जिस पर चन्द्रगुप्त ने विशाल भवन निर्माण करके उसे उच्च शिखर तक पहुँचाने में अथक प्रयास किये ताकि अखंड भारत का सपना साकार हो सके l काश मार्गदर्शन करने हेतु आज हमारे बीच में कोई आचार्य चाणक्य जैसा किसी माँ का लाल और शिष्यों का गुरु होता ! सावधान ! स्थान-स्थान पर पैदा हो रहे हैं – लार्ड मैकाले l उस जैसा सोचने वाले, देखने वाले, बोलने वाले और सुनने वाले l वही लूट रहे हैं अपने ही राष्ट्र को, समाज को और गांवों को l दे रहे हैं धोखा भी अपने ही आपको दिन-रात एक करके l वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की अव्यवस्था आज किसी राष्ट्रभक्त को दिखाई नहीं दे रही है क्या ?
    ज्ञान-विज्ञान, धन संपदा, सुख-समृद्धि और शांति का सृजन, पोषण, रक्षा और विकास करने के लिए आज देश भक्तों से राष्ट्र को चाहिए – प्रेम, सहयोग, त्याग, और बलिदान l ये कार्य मात्र देशभक्त अभिभावक, गुरु, राजनीतिज्ञ और प्रशासक ही कर सकते हैं l जो सोये हुए हैं, उन्हें जगाना होगा और जो जागे हुए हैं, उनको अपने जीवन में उच्च आदर्श अपनाकर स्वयं बनने का प्रयास करना चाहिए l पति श्री राम – चिंतन करे जो मात्र अपनी पत्नी का l पत्नी सीता – दिन-रात मग्न रहे पति-प्रेम में l पुत्र श्रवण कुमार – नित सेवा करे माता-पिता की l सेवक हनुमान - व्यस्त रहे सेवा में, स्वामी की l भक्त प्रहलाद – भक्ति ही शक्ति माने l शिष्य एकलव्य – गुरु में अटूट श्रद्धा रखे l भ्राता लक्ष्मण – भाई संग बराबर दुःख-सुख बाँट सके l त्यागी भरत – राजपाट रज सम समझे l गुरु चाणक्य – सबको सही राह दिखा सके l विदेही जनक – मोह देह का छोड़ सके l लोक नायक सुभाष, भगत, शेखर - देश हित अपना सर्वस्व बलिदान कर सके l दूर नहीं हैं सब, अब भी तुमसे, हैं बीच में वे छुपे हुए l प्रयत्न करो तुम सब मिलकर, बेड़ा पार हो जाये भारत का l
    मत भूलो ! भारतीय शिक्षा सर्व गुण संपन्न, सर्व शक्तिमान, सर्व सुख दायक है l उसकी दृष्टि में विश्व का गूढ़ से गूढ़ रहस्य मात्र रहस्य बनकर न तो कभी रहा है और न रह ही सकता है l आओ ! हम सब मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि इस लोक कल्याणकारी संकल्प को साकार करने हेतु वो हमें दृढ़ता, साहस, निर्भयता और शक्ति दें और हमें सफल भी बनाएं l चैन की बंशी बजेगी, जब भ्रष्टाचार का दूर होगा अँधेरा, सदाचार का पालन करेगा बच्चा बच्चा, तब होगा फिर नया सवेरा l शिक्षा ही एक ऐसा दिव्य अस्त्र-शस्त्र है जिससे अशिक्षा, अज्ञानता, और विश्व की किसी भी बुराई का सहजता से सामना किया जा सकता है l इस कार्य में मात्र भारतीय शिक्षा अपने आप में ग्यानी-विज्ञानी, आचार्यों के कुशल नेतृत्व में पूरी सक्षम और समर्थ है l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"