मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: आलेख

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    सुखदायक सत्य कड़वा होता है

    योग्य गुरु द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान सुपात्र का प्रदान किया जाता है, कुपात्र को नहीं। सुपात्र उसका सदुपयोग करता है जबकि कुपात्र दुरुपयोग। वही विद्यार्थी गुरु का मान बढ़ाता है और स्वयं महान बनता है जो गुरु के निर्देशानुसार जन सेवा एवं जग कल्याण के कार्य करता है।
    1 प्रकृति का अनुभव प्राप्त किए बिना व्यक्ति की अपनी आत्मा का भली प्रकार पोषण नहीं होता है।
    2 व्यक्ति द्वारा सत्य जान लेने से असत्य की परिभाषा बदल जाती है।
    3 आपसी झगडों व तनाव से परिवारों को हानि पहुंचती है जबकि दुश्मन को लाभ होता है।
    4 पारिवारिक झगड़ों से समाज कमजोर होता हैं।
    5 पारिवारिक मतभेदों को परिवार में ही समाप्त कर लेना बुद्धिमानी का कार्य है।
    6 किसी परिवार का अपमानित किया हुआ तनाव ग्रस्त, क्षुब्ध व्यक्ति आने वाले समय में अपने या पराए विरुद्ध कुछ भी कर सकता है।
    7 व्यक्ति, समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, उपद्रवी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा बढ़ाकर उग्रवाद को जन्म देते हैं।
    8 क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन होता है।
    9 दुश्मन कभी कमजोर नहीं होता है।
    10 अलगाव एवं अफवाहों का शिकार होने पर व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र संकट ग्रस्त हो जाते हैं।
    11 अगर समाज,क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
    12 इतिहास साक्षी है कि कपर्यु, आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वालों को कभी सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
    13 कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
    14 वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र को सुरक्षित रखते हैं जो अपनी रक्षा-सुरक्षा आप करतेे हैं।
    15 वासना, विकार, नशा, आलस्य, निद्रा और व्यभिचार में आसक्त नौजवानों का विनाश होना सुनिश्चित है।
    16 नीति-धर्म का मर्म समझने वाले नौजवान के लिए अधर्म कभी बाधक नहीं होता है।
    17 आत्म विश्वास से कार्य करने पर नौजवान को उसके कार्य में सफलता अवश्य मिलती है।
    18 आवेश में आकर युवा बंद, चक्काजाम, और हड़ताल का आह्वान करके भूल जाते हैं कि इससे जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र की कितनी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
    19 वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
    20 मैदान में आए बिना रण की बातें करने से कभी कोई दिग्विजयी नहीं बन जाता है।
    21 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य परायणता से जाना जाता है।
    22 वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।
    23 गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
    24 मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
    25 कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
    26 सच्चे रणवीर, कर्मवीर, धर्मवीर और ज्ञानवीर – शब्द, रूप, रस गंध और स्पर्ष रूपी कांटों को पैरों तले रौंद कर मात्र उच्च लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
    27 संकट या अफवाहों के रहते वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
    28 ज्ञान, विवेक और वैराग्य से सुसज्जित वीर राष्ट्र, राज्य, क्षेत्र, समाज और जन साधारण की रक्षा एवं सुरक्षा करने में समर्थ होते हैं।
    29 आत्म-हत्या कायर करते हैं, वीर नहीं।
    30 सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क सदैव सर्वहितकारी और धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
    31 राष्ट्रहित में – सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण-कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
    32 सच्चे वीर स्वतन्त्रता पूर्वक धरती का सुख भोगते हेैे जबकि कायर पराधीन हो कर दुख प्राप्त करते हैं।
    33 दुश्मन को कमजोर समझने वाला वीर अपनी कमजोरी के कारण जल्दी परास्त हो जाता है।
    34 संकट या अफवाहों में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की वास्तविक परख होती है।
    35 लोगों का शांत और मर्यादित जुलूस सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
    36 स्पष्ट रूप से परिभाषित किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देष्य में सफलता अवश्य मिलती है।
    37 राष्ट्र, राज्य, क्षेत्र, समाज, परिवार और जनहित की सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण होती है।
    38 राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
    39 गाय का दूध, ब्राह्मण हितोपदेश, गीता ज्ञान और शुद्ध पर्यावरण का प्रभाव सदैव सर्वहितकारी होता है।
    40 राष्ट्रीय सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।
    14 सितम्बर 2008 कश्मीर टाइम्स

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    बलि का बकरा

    आज तक हमने बकरों की बलि दिया जाना सुना था पर यह नहीं सुना था कि कहीं बस की सवारियों को भी बलि का बकरा बनाया जाता है। जी हां, ऐसा अब खुले आम हो रहा है। अगर हम अन्य स्थानों को छोड़ मात्र जम्मू से लखनपुर तक की बात करें तो राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बने ढाबों, भोजनालयों और चाय की दुकानों को कसाई घरों के रूप में देख सकते हैं। वहां प्रति चपाती पांच रुपए के साथ नाम मात्र की फराई दाल दस रुपए में और चाय का प्रति कप पांच रुपए के साथ एक कचौरी तीन रुपए के हिसाब से धड़ल्ले से बेची जाती है। वहां कहीं मुल्य सूचि दिखाई नहीं देती है। शायद उन्हें प्रशासन की ओर से पूछने वाला कोई नहीं है। क्या यह दुकानदार सरकारी मूल्य सूचि के अंतर्गत निर्धारित मूल्यानुसार सामान बेचते हैं? संबंधित विभाग पर्यटक वर्ग अथवा सवारी हित की अनदेखी क्यों कर रहा है?
    राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारों पर ढाबों और चाय की दुकानों पर लम्बे रूट की बसें रुकती हैं। वहां पर चालक और परिचालकों को तो खाने-पीने के लिए मूल्यविहीन बढ़िया और उनका मनचाहा खाना-पीना मिल जाता है, मानों जमाई राजा अपने ससुराल में पधारे हों। पर बस की सवारियों को उनकी सेवा के बदले में दुकानदारों की मर्जी का शिकार होना पड़ता है। अन्तर मात्र इतना होता है कि कोई कटने वाला बकरा तो गर्दन से कटता है पर सवारियों की जेब दुकानदारों द्वारा बढ़ाई गई अपनी मंहगाई की तेज धार छुरी से काटी जाती है। कई बार सवारियों के पास गंतव्य तक पहुंचने के मात्र सीमित पैसे होते हैं। अगर रास्ते में भूख-प्यास लगने पर उन्हें कुछ खाना-पीना पड़ जाए तो वह खाने-पीने की वस्तुएं खरीद कर न तो कुछ खा सकती हैं और न पी सकती हैं। क्या लोकतन्त्र में उन्हें जीने का भी अधिकार शेष नहीं बचा है?
    यह पर्यटक एवं सवारी वर्ग भी तो अपने ही समाज का एक अंग है जो हमारे साथ कहीं रहता है। स्वयं समाज सेवी और इससे संबंधित सरकारी संस्थाओं को प्रशासन के साथ इस ओर विशेष ध्यान देना होगा और सहयोग भी देना पड़ेगा। उसके हित में उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग तथा बस अड्डों पर खाने-पीने और अन्य आवश्यक सामान खरीदने हेतु उचित मूल्य की दुकानों व ठहरने या विश्राम करने के लिए सुख-सुविधा सम्पन्न सस्ती सरायों की व्यवस्था करनी होगी ताकि स्थानीय दुकानदारों द्वारा सवारियों और प्रयटकों से मनमाना मूल्य न वसूला जाए और कोई किसी के निहित स्वार्थ के लिए कभी बलि का बकरा न बन सके।
    13 जुलाई 2008 कश्मीर टाइम्स

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    विद्यार्थी जीवन निर्माण

    मानों तो मानव जीवन का निर्माण किसी भवन का निर्माण करने से कोई कम नहीं है। भवन का निर्माण कार्य किसी निश्चित अवधि तक तो समाप्त हो जाता है पर जीवन निर्माण का कार्य बिन रोके लम्बे समय तक चलाए रखने की अपेक्षा बनी रहती है। इसका वर्णन किसी सफल साधक की जीवन गाथा से मिल सकता है।
    विद्यार्थी जीवन का आधार बनाने के लिए सर्व प्रथम आवश्यक है उसके धरातल का निरीक्षण करना। घर में माता-पिता तथा विद्यालय में गुरुजनों के द्वारा उसका जीवन निर्माण करने से पूर्व उसकी नींव तैयार करनी होती है। उन्हें देखना होता है कि वह किस योग्य है? उसमें ऐसे क्या गुण विद्यमान हैं जो उसके लिए अति आवश्यक हैं। उसमें ऐसी क्या विशेषताएँ हैं जो उसके जीवन की नींव को सुदृढ़ कर सकती हैं।
    माता-पिता अथवा गुरुजनों द्वारा विद्यार्थी में विद्यमान विशेष गुणों के आधार पर उसके लिए कोई उपयुक्त साध्य निर्धारित करना होता है। उसे जीवन में क्या करना है? वह स्वयं में क्या बनने की क्षमता रखता है? उसमें ऐसा कौन सा गुण है जिसे थोड़ा सा सहारा मिलने पर वह प्रगति पथ पर तांगे के घोड़े की भांति सरपट भागने में सक्षम हो सकता है। यह सब माता-पिता तथा गुरुजनों द्वारा जान लेना अनिवार्य है।
    विद्यार्थी की साध्य क्षमता का अनुमान मात्र अनुमान न बना रहे, इसलिए उसे भली प्रकार से जांच-परख कर ही माता-पिता व गुरुजनों को उसके अनुकूल साधन जुटाने होते हैं ताकि वह उनकी सहायता से अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करने का अभियान तेज कर सके।
    विद्यार्थी के लिए उसकी अपनी योग्यता, लक्ष्य प्राप्त करने की क्षमता और उत्तम संसाधनों का मोल और अधिक बढ़ जाता है जब उसे अपने माता-पिता और गुरुजनों के सुस्नेह और सानिध्य में स्वगुण सम्पन्न अभिरुचि के अनुरूप उपयुक्त शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त होता है। उसे लाख बाधाएं होने पर भी लक्ष्य की प्राप्ति करना अनिवार्य है। उससे स्थानीय परिवार तथा सम्पूर्ण समाज को होनहार युवा और गुण सम्पन्न नागरिक मिलते हैं। विद्यार्थी जीवन निर्माण में माता-पिता और गुरुजनों की प्रमुख भूमिका रहती है। क्या वर्तमान में हम माता-पिता और गुरुजन अपने इस दायित्व का भली प्रकार निर्वहन कर रहे हैं?
    20 नवम्बर 2007 दैनिक जागरण

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    गुरु का महत्व

    भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। घर पर माता-पिता और विद्यालय में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त है। शास्त्रों में इन तीनों को गुरु कहा गया है। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, गुरु देवो भव। गुरु माता को सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है क्योंकि वह बच्चे को नव मास तक अपनी कोख में रखे उसका पालन-पोषण करती है। जन्म के पश्चात ज्यों-ज्यों शिशु बड़ा होता जाता है त्यों-त्यों वह उसे आहार तथा बात करना सिखाने के साथ-साथ उठने, बैठने और चलने के योग्य बनाती है। गुरु पिता परिवार के पालन-पोषण हेतु घरेलु सुख-सुविधाएं जुटाने का कार्य करता है और परिवार को अच्छे संस्कार देने का भी ध्यान रखता है।
    विद्यालय में गुरुजन विद्यार्थी में पनप रहे अच्छे संस्कारों की रक्षा करने के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे बल भी प्रदान करते हैं ताकि वह भविष्य में आने वाली जीवन की हर चुनौति का डटकर सामना कर सके।
    गुरु भले ही घर का हो या विद्यालय का, वह राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव वाला होता है। उसके द्वारा किए जाने वाले किसी भी कार्य में राष्ट्रीय भावना का दर्शन होता है। जिससे देश-प्रेम छलकता है। गुरु के मन, वचन और कर्म में सदैव निर्भीकता हिलोरे लेती रहती है। वह जनहित में निष्कपट भाव से सोचने, बोलने और कार्य करने वाला होता है। गुरु को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होता है। एक तत्व ज्ञानी या गुरु ही किसी विद्यार्थी को उसकी आवश्यकता अनुसार उचित शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसे सफल स्नातक और अच्छा नागरिक बनाता है।
    गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेष्वरः गुरु साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुवैे नमः। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों के तुल्य माना गया है जिनमें सामाजिक संरचना, पालना और बुराइयों का नाश करने की अपार क्षमता होती है। गुरु आत्मोत्थान करता हुआ अपने विभिन्न अनुभवों के आधार पर विद्यार्थी को उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण देकर समर्थ बनाता है। क्या हम घर पर गुरु माता-पिता और विद्यालय में गुरुजन अपने इन दायित्वों का भली प्रकार निर्वहन करते हैं?
    15 नवम्बर 2007 दैनिक जागरण

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    विद्यार्थी जीवन आधार

    जिस प्रकार मकान बनाने के लिए किसी निर्माता विशेषज्ञ के द्वारा मकान की नींव का निर्माण करने से पूर्व उसकी निर्माण- स्थली का सूक्षमता से निरीक्षण करना अनिवार्य होता है ठीक उसी प्रकार गुरुजनों द्वारा किसी विद्यार्थी जीवन को मूर्ति रूप देने से पूर्व विद्यार्थी जीवन का भी भली प्रकार जांच-परख करना होता है। उसकी नींव में प्रयुक्त होने वाली सामग्री जितनी बढ़िया होती है निर्माणाधीन विद्यार्थी जीवन रूपी भवन स्वयं में उतना ही सुरक्षित एवं संकट से मुक्त होता है।
    गुरुजन विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता अथवा योग्यता के आधार पर उसकी कार्य क्षमता का अनुमान लगाते हैं। वे उस पर कार्यभार का दबाव नहीं बल्कि उसके कार्य में सहयोग देते हैं। इससे उसमें विद्यमान प्रतिभा उजागर होती है और उसका प्रगति मार्ग सुगम होता है।
    गुरुजन विद्यार्थी में विद्यमान इच्छा शक्ति या उसकी लग्न का विशेष ध्यान रखते हैं। वह उसकी इच्छा शक्ति को ओर अधिक तीव्र करने में योगदान करते हैं तथा उसके मार्ग में आने वाली विभिन्न बाधाओं से समय-समय पर सावधान करके उसे आत्मरक्षा के उपायों द्वारा अवगत करवाते रहते हैं।
    विद्यार्थी की श्रमशीलता और लग्नशीलता उसकी कार्यक्षमता दर्शाती है। गुरुजनों की दृष्टि सदैव उसके कार्य में आने वाली विसंगतियों पर स्थिर रहती है जो आवश्यकता पड़ने पर उन्हें दूर करने में उसकी सहायता करती है। विद्यार्थी की सफलता गुरुजनों की कृपादृष्टि पर निर्भर करती है।
    विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता, इच्छाशक्ति, श्रमशीलता के साथ-साथ उसकी कार्यक्षमता भी उसके अदम्य साहस के आगे नतमस्तक होती है। लग्नशील विद्यार्थी ही साहसी और निर्भीक होकर जनहित कार्य करता है। इससे गुरुजनों की मेहनत सफल होती है। क्या वर्तमान विद्यार्थी बौद्विक क्षमता, इच्छाशक्ति, श्रमशीलता और साहस से परिवार एवं समाज के प्रति अपने दायित्वों का पूर्ण रूप से निर्वहन करता है?
    अक्तूवर 2007 दैनिक जागरण