
श्रेणी: आलेख
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श्रेणी:आलेख
क्रांति लाने हेतु
जो भाई-बहन और नौजवान सकारात्मक सोच रखते हैं, उनसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे रचनात्मक कार्य करने हेतु अपने-अपने गांव या शहर में शाखाओं का गठन करें और क्षेत्र में क्रांति लाने हेतु निम्न प्रयास तेज करके शिव-शक्ति ग्राम सेवा मंच के इस कार्यक्रम में सहयोग दें।
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श्रेणी:राष्ट्रीय भावना – आलेख
सशक्त जनसेवक
ब्रह्मभाव में स्थिर रहकर, ब्रह्मतत्व का विश्वकल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला ब्रह्मज्ञानी, ज्ञानवीर होता है।
क्षत्रियभाव में स्थिर रहकर, जन, समाज और राष्ट्र हित में जान-माल की रक्षा करने वाला, शूरवीर होता है।
वैश्यभाव में स्थिर रहकर, गौसेवा, कृषि और व्यापर से जन, समाज और राष्ट्र हित में कार्य करने वाला, धर्मवीर होता है।
शुद्रभाव में स्थिर रहकर, हस्त-ललित कला, लघु एवं कुटीर उद्दोग धंधों से जन, समाज और राष्ट्र हित में कार्य करने वाला, कर्मवीर होता है।
ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर और कर्मवीर एक दूसरे के पूरक हैं।
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श्रेणी:राष्ट्रीय भावना – आलेख
समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड
व्यक्तिगत और पारिवारिक सुरक्षा से बड़ी सामाजिक सुरक्षा है और सामाजिक सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्र की सुरक्षा है। अतएव देश के भविष्य हेतु हमारे युवाओं को कुछ मानदंड स्थापित करने होंगे जिनके लिए उन्हें निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना होगा
1 मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
2 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य परायणता से जाना जाता है।
3 गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
4 व्यक्ति, समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, अहंकारी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा को जन्म देते हैं।
5 अगर समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
6 स्पष्ट रूप से परिभाषित किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देश्य में सफलता अवश्य मिलती है।
7 लोगों का शांत और मर्यादित सत्यग्रह सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
8 इतिहास साक्षी है कि कर्फ्यू , आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वाले स्वार्थी एवं अहंकारी शासको की सदा हार हुई है।
9 सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगंधित बनता है।
10 लोक परंपराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है।
11 स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का समय मिलता है।
12 तन, मन और धन से समाज की सेवा करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है।
13 कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा
14 क्षेत्र, भाषा , जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति या दल राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन होता है।
15 राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
16 राष्ट्रीय सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।
17 बंद, चक्काजाम, और हड़ताल के आह्वान पर आवेश में आकर यह कभी मत भूलो कि उपद्रव करने से जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र की कितनी हानि होती है।
18 कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
19 कठिन परिस्थितियों में भी वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
20 सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क सदैव सर्वहितकारी एवं धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
21 राष्ट्रहित में – सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण.कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
22 संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवं अखंडता प्रदर्शित होती है।
23 जनहित एवं सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण हो जाती है।
24 वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र को सुरक्षित रखते हैं जो स्वयं अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं।
25 वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
26 वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।जनवरी 2014
मातृवन्दना
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श्रेणी:शिक्षा दर्पण -आलेख
भारतीय गुरुकुल परंपरा
प्रकृति में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान-विज्ञान प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। कोई जिज्ञासु-पुरुषार्थी विद्यार्थी ही नरेंद्र की तरह उसे जानने, समझने और पाने के लिए कृत संकल्प होता है और अपने सद्गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के सान्निध्य और गुरुकुल में रहकर निरंतर प्रयास एवं अभ्यास करके स्वामी विवेकानन्द बनता है। आत्मा ईश्वर का अंश है। जल की बुंद सागर से जलवाष्प बनकर आकाश में अन्य के साथ मिलकर बादल बन जाती है। उस बादल से पहाड़ों पर वर्षा होती है। उसका नीर नदी के जल में लम्बे समय तक बहने के पश्चात फिर से सागर के पानी में एकाकार हो जाता है। उसे अपना खोया हुआ सर्वस्व पुनः मिल जाता है। जल-बूंद की तरह किसी जिज्ञासु-पुरुषार्थी व्यक्ति की आत्मा भी दिव्य पुंज परमात्मा के साथ मिलने के लिए सदा व्यग्र रहती है। यह ज्ञान-विज्ञान परमात्मा से पुरुषार्थी आचार्य, गुरु, शिक्षक और अध्यापकों के द्वारा निज गुण, स्वभाव, आचरण, प्रयास, और अभ्यास से अर्जित किया जाता है। पुरुषार्थी व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है –
‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्व मम देवदेव।।’’
वह प्रभु से यह भी प्रार्थना करता है –
‘‘हे प्रभु! मुझे असत्य से सत्य में ले जा,
अंधेरे से उजाले में ले जा,
मृत्यु से अमरता में ले जा।।’’
आचार्य और ब्रह्म्रगुरु योग, ध्यान एवं प्राणायाम करके ‘‘ब्रह्मज्ञान’’अर्जित करते हैं । उनकी शरण में आने वाले श्रद्धालु, जिज्ञासु, विद्यार्थी और साधकों को उनके द्वारा संचालित ‘‘वेद विद्या मंदिरों’’से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। उनकेे हृदय में आचार्य और गुरुजनों के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास होता है। वे गुरु की स्तुति करते हुए कहते हैं –
‘‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु
गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म,
तस्मै श्रीगुरुवे नमः’’
भौतिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए राजगुरु,शिक्षक एवं अध्यापक अपने पुरुषार्थी शिष्य, शिक्षार्थियों के साथ मिल-बैठ कर ऐच्छिक एवं रूचिकर विषयक ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन का कार्य करतेे हैं। उनमें वे उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं। उस समय वे दोनों अपनी पवित्र भावना के अनुसार परमात्मा से प्रार्थना करते हैं –
‘‘हे परमात्मा! हम दोनों – गुरु, शिष्य की रक्षा करें। हम दोनों का उपयोग करें। हम दोनों एक साथ पुरुषार्थ करें। हमारी विद्या तेजस्वी हो। हम एक दूसरे का द्वेष न करें। ओउम शान्ति शान्ति शान्ति।’’
पुरुषार्थी शिष्य ‘‘गुरुकुल’’ अथवा ‘‘ज्ञान-विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र’’से ब्रह्म्रगुरु और राजगुरु के सान्निध्य में रहकर तथा उनसे सहयोग पाकर विषयक ज्ञान-विज्ञान में शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। इस प्रकार वे उनके समरूप, उनकी इच्छाओं के अनुरूप समग्र जीव-प्राणी एवं जनहित में सृष्टि के कल्याणार्थ कार्य करने के योग्य बनते हैं। वे मानवता की सेवा को ईश्वर की पूजा मानते हैं और मनोयोग से अपना कार्य करने लगते हैं।
गुरुकुल में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात मनोयोग से पुरुषार्थी नवयुवाओं के द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य सफल, श्रेष्ठ और सर्वहितकारी होता है। इसी आधार पर साहसी पुरुषार्थी व्यक्ति, निर्माता, अन्वेषक , विशिष्ट व्यक्ति, कलाकार, वास्तुकार, शिल्पकार, साहित्यकार, रचनाकार, कवि, विशेषज्ञ, दार्शनिक, साधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, योगी और सन्यासी अपने जीवन प्रयंत प्रयास एवं अभ्यास करते हैं। इससे उनके द्वारा मानवता की तो सेवा होती है, सबका कल्याण भी होता है।
चिरकाल से विशाल प्रकृति अभिभावकों की तरह समस्त प्राणी जगत का पालन-पोषण करती आ रही है। गुरुकुल में विद्यार्थी सीखता है, असीमित जल, धरती, वायु भंडार तथा अग्नि और आकाश प्रकृति के महाभूत हैं। इनसे उत्पन्न ठोस, द्रव्य और गैसीय पदार्थ मानव समुदाय को प्राप्त होते हैं जिनका वह अपनी सुख-सुविधाओं के रूप में सदियोें से भरपूर उपयोग करता आ रहा हैै। इनसे जीव-प्राणियों को आहार तो मिलता है, निरोग्यता भी प्राप्त होती है। किसान, गौ-पालक, व्यापारी, दुकानदार, उत्पादक, निर्माता और श्रमिकों के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को परंपरागत संतुलित, प्रदूषण एवं रोग-मुक्त तथा संरक्षित बनाए रखा जाता है। इसका अर्थ है, मानवता की सेवा करना। पुरुषार्थी विद्यार्थी, नागरिक ऐसा करने हेतु हर समय तैयार रहते हैं, अपना कर्तव्य समझते हैं और उसे कार्यरूप भी देते हैं।
समर्थ विद्यार्थी एवं नागरिकों के द्वारा पुरुषार्थ करके मात्र धन अर्जित करना, अपने परिवार का पालन-पोषण करना और उसके लिए सुख-सुविधाएं जुटाना ही प्रयाप्त नहीं है बल्कि उनके द्वारा साहसी, वीर/वीरांगनां के रूप में निजी, सरकारी, गैर सरकारी संस्थान और कार्यक्षेत्र में भी जान-माल की रक्षा करना एवं सुरक्षा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। गुरुकुल सिखाता है, व्यक्ति के द्वारा किसी समय की तनिक सी चूक से मानवता के शत्रु को मानवता पीड़ित करने, उसे कष्ट पहुंचने का अवसर मिलता है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और आक्रमण का सहारा लेता है। उसके द्वारा व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैेतिक और राष्ट्रीय हानि पहुंचाई जाती है। आर्यजन भली प्रकार जानते हैं, समाज में बिना भेदभाव के, आपस में सुसंगठित, सुरक्षित, सतर्क रहना और निरंतर सतर्कता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। ऐसा करना साहसी वीर, वीरांगनाओं का कर्तव्य है। वह हर चुनौति का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं और उचित समय आने पर वे उसका मुंह तोड़ उत्तर भी देते हैं। अगर यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की देन है तो आइए! हम राष्ट्र में प्रायः लुप्त हो चुकी इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का पुनः प्रयास करें ताकि आर्य समाज और राष्ट्र में तेजी से बढ़ रहे अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया हो सके। राष्ट्र में फिर से आदर्श समाज की संरचना की जा सके12 अक्टूबर 2013 दिव्य हिमाचल
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श्रेणी:मानव जीवन दर्शन- आलेख
सनातन जीवन में धन की उपयोगिता
भारत ऋषि -मुनियों का देश है। भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को 100 वर्ष तक मुख्यतः चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, 25 से 50 वर्ष गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थ और 75 से 100 वर्ष तक सन्यास आश्रम प्रमुख थे। उनके अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च आदर्श थे जिनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता था। इससे वह दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियों का स्वामी बनता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान् थी।
प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या ग्रहण, 25 से 50 वर्ष गृहस्थाश्रम में सांसारिक कार्य, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थाश्रम में आत्म चिन्तन-मनन करते हुए आत्म साक्षात्कार और 75 से 100 वर्ष तक सन्यासाश्रम में जनकल्याण करने का सुनियोजित कार्य किया जाता था। इनके अंतर्गत सनातन समाज को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक दृष्टि से विश्व भर में सर्वोन्नत श्रेणी में सम्पन्न ही नहीं गिना जाने लगा था बल्कि विश्व ने उसकी आर्थिक सम्पन्नता देखते हुए उसे सोने की चिड़िया के नाम से भी विभूषित किया था।
सनातन समाज की इस आर्थिक सम्पन्नता और उन्नति के पीछे जिस महान् शक्ति का योगदान रहा है, वह शक्ति थी, योगियोें की योगसाधना और कर्मयोग। श्रीकृष्ण जी उनके महान् आदर्श रहे हैं । उन्होंने संसार में रहते हुए भी कभी संसार से प्रेम नहीं किया। उन्होंने पल भर के लिए भी योग को स्वयं से कभी अलग नहीं किया। वे संसार में कभी लिप्त नहीं हुए। यही कारण है कि हम आज भी उन्हें अपना नायक, निराकार, सनातन, सत्पुरुष मानते हैं और वे हमारे सबके हृदयों में विराजमान रहते हैं।
यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में 1/3 % को छोड़कर 3/4 % सनातन समाज भौतिक सुख सुविधाओं से अभाव ग्रस्त था और उस समय प्राकृतिक शोषण न के समान हुआ था। इसका मुख्य कारण यह रहा है कि पहले सनातन समाज सादगी पसंद अध्यात्म प्रिय और प्राकृतिक प्रेमी था जबकि आज वही समाज वैसा होने का मात्र ढोंग कर रहा है। वह प्रकृति के विरुद्ध अनेकों कार्य करते हुए, उससे शत्रुता बढ़ा रहा है। इस तरह वह कल आने वाली महाप्रलय को, आज ही आमन्त्रित कर रहा है।
प्रकृति की परिवर्तनशीलता के प्रभाव से सनातन समाज के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक क्षेत्रों में परिवर्तन होना निश्चित था, परिवर्तन हुआ। यह समस्त भूखण्ड जिस पर कभी मात्र आर्य लोगों का “सुधैव-कुटुम्बकम” दृष्टि से अपना अधिपत्य था, वह धीरे-धीरे कई राष्ट्रों के रूप में परिणत हो गया। उस भूखण्ड पर अनेकों देश जिनमें वर्तमान भारतवर्ष भी है, वह अपने अस्तित्व में आने से पूर्व कई छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त लेकिन उन्नत एवं समृद्ध भी था। वह विदेशी व्यापारी कम्पनियों, अक्रांता एवं लुटेरों की कुदृष्टि से बच न सका। जहां भारत के सम्राट साहसी और परम वीर थे, वहां वे अहंकार में चूर और विलासी भी, कम नहीं थे। परिणाम स्वरूप वे विदेशी व्यापारी कम्पनियों, अक्रांता एवं लुटेरों की छल विद्या एवं बांटो और राज करो, नीति को समझ न सके। अतः उन्हें उनसे हर स्थान पर मुंह की खानी पड़ी।
आज भारतीय समाज में, उसका हर मार्गदर्षक, अभिभावक, गुरु, नेता प्रशासक, सेवक और नौजवान योगसाधना से विमुख हो गया है और होता जा रहा है, जो एक बड़ी चिन्ता का विषय है। उन्हें पाश्चात्य देशों की तरह मात्र अच्छा खाना, गाड़ी, बंगला, अपार धन और सर्व सुख-सुविधाएं ही चाहिएं, भले ही वह घोटाला करके, चोरी से, रिश्वत -घूस लेकर या फर्जीबाड़े से ही क्यों न जुटाई गई हों, जुटानी पड़े। इसमें उनकी धन लोलुपता अत्यंत घातक सिद्ध हुई है और बढ़ती जा रही है। उन्हें राष्ट्रहित से कुछ भी नहीं है, लेना देना।
वह भारतीय दिव्य ब्रह्मज्ञान जो विदेशों तक कभी अज्ञान का अंधेरा दूर किया करता था, वह उत्पादन और हस्तकला कौशल का जीवट जादू जो उनके सिर पर चढ़ कर बोला करता था, को ग्रहण लग गया है। भारत आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर, भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है। देश के सामने आर्थिक चुनौती उभर आई है। उसमें आए दिन नए-नए घोटाले हो रहे हैं। लोगों का सफेद धन बे-रोक टोक, तेजी से कालाधन बन कर, विदेशी बैंकों की तिजोरियों में समाए जा रहा है फिर भी सरकारों के द्वारा राष्ट्रीय विकास का ढोल पीटा जा रहा है और वह उस विकास की पोल भी खोल रहा है। चोरी करना घूस और रिष्वत लेने-देने का प्रचलन जोरों पर है। भ्रष्टाचार की सदाबहार बेल निर्भय होकर हर तरफ विष उगल रही है।
ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञानार्जित करना, गृहस्थ जीवन में सांसारिक कार्य करना सुख सुविधाएं जुटाना और उनका भोग करना, वानप्रस्थ जीवन में आत्म चिंतन, आत्म साक्षात्कार करना तथा सन्यास जीवन में समाज का मार्गदर्शन करना मानव जीवन का परम उद्देष्य रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना अनिवार्य था। इसलिए भारतीय मनीषियों ने जीवन के चार आश्रमों की कल्पना को कार्यान्वित किया था।
“वीर भोग्य वसुंधरा” अर्थात वीर पुरुष ही धरती का सुख भोगते हैं। वीर वे हैं जो अपने अदम्य साहस के साथ जीवन की हर चुनौती का सामना करते हुए अपने परम जीवनोद्देश्य को सफलता पूर्वक पूरा करते हैं। इसी आधार पर गृहस्थाश्रम में सांसारिक सुख भोग किया जाता था। शेष तीनों आश्रमवासी गृहस्थाश्रम पर निर्भर रह कर अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपना-अपना कार्य किया करते थे।
विद्यार्थी गुरुकुल में रह कर विद्या अर्जित करते थे। पराक्रमी राजा वन गमन – एकांत वास करनेे, वानप्रस्थी बनने से पूर्व, स्वेच्छा से भोग्य वस्तुओं को अपने योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देते थे और सन्यासी बहते जल की तरह कभी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे। वे भ्रमण करते हुए लोक मार्गदर्शन करते थे। इस प्रकार भोग-सुख की सभी सुख सुविधाएं मात्र गृहस्थाश्रम वासियों की सम्पदा होती थी। यही भारतीय संस्कृति है। इसी कारण भारत में संग्रहित अपार सम्पदा, विदेशियों के लिए आकर्षण, सोेने की चिड़िया, उनकी आंख की किरकिरी बनी और उन्होंने उसे पाने और हथियाने के लिए साम, दाम, दंड और भेद नीतियों का भरपूर प्रयोग किया।
हमारी इसी अपार धन सम्पदा को पहले विदेशियों ने लूटा था और अब उसे अपने ही लोग अपने दोनों हाथों से दिन-रात लूट रहे हैं। इस तरह न जाने कब थमेेगा, लूटने का यह सिलसिला! हम चाहें तोे इस लूट को नियंत्रित कर सकते हैं। यह कार्य भारतीय सनातन जीवन पद्धति पर आधारित मानव जीवन आश्रम व्यवस्था अपनाने से सम्भव हो सकता है। इस भयाबह आर्थिक चुनौती के विरुद्ध, समाज हित मेें, हम सबकी सकारात्मक एवं रचनात्मक इच्छा शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए।मई 2012
मातृवन्दना