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प्राचीन भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है। आर्य वेदों को मानते थे। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे। वेद जो देव वाणी पर आधारित हैं, उन्हें ऋषि मुनियों द्वारा श्रव्य एवं लिपिबद्ध किया हुआ माना जाता है। वेदों में ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद प्रमुख हैं । वे सब सनातन हैं वेद पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं उनमें परिवर्तन नहीं होता है। वे कभी पुराने नहीं होते हैं।
समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर संसार की हर वस्तु बदल जाती है। नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है। सत्य सनातन है। वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं। वेदों के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ , धार्मिक और शूरवीर थे। सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा , धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है। यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा आध्यात्कि धरोहर है जिसे विश्व ने माना है।
सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता। वह सदैव अबेध्य, अकाटय और अखंडित है। ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है। कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है। रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है। यह पहला सत्य है। अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्जवलित कर लिया जाए तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश में बदल जाता है ओर तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है। यह दूसरा सत्य है। इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है। तदोपरांत उसमें सत्यप्रियता, सत्यनिष्ठा जैसे अनेकों गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं ।
ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य की अपनी पहचान होती है। वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य कर सकता है? उनके संसाधन क्या है? उन्हें अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेधन हेतु उनका धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है तब वह अपने गुण व संस्कार ओर स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है। देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है। उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है।
ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य को उचित-अनुचित और निषिद्ध कार्याें का ज्ञान होता है। जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है। वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है। दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है। वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं।
ब्रह्म-ज्ञान से ही मनुष्य जागरूक होता है। उसका हृदय एवं मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है। जब वह इस स्थिति पर पहंच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य और पराक्रम को भी पहचान लेता है। वह समाज को संगठित करके उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-सम्पदा की रक्षा एवं सुरक्षा होती है।
ब्रह्म-ज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट करता है। उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है। शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हुए हैं ।
सुगंध बिना पुष्प का क्या करें?
तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें?
ध्येय बिना कर्म निरर्थक है,
प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है।
प्रष्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या है? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं? इसका उत्तर आर्याें ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं
20 दिसम्बर 2009
दैनिक कष्मीर टाइम्स
श्रेणी: धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख
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श्रेणी:धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख
विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति
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श्रेणी:धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख
भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक
यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि मुनियों का देश रहा है। मनीषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासाश्रमों के अपने विशेष सिद्धांत थे।, उच्च आदर्श थे। उनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी। जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्यावश तिलमिला उठा। उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्धति को हर प्रकार से नष्ट -भ्रष्ट करने तथा उसके स्थान पर निम्नतम स्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया। उसने ब्रिटिश संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महाशड्यंत्र था। वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाए रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्तियों का हृास करने वाला ब्रिटिश शासकों का सहायक नीतिशास्त्र बना।
मैकाले का उद्देश्य भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बना कर उसमें ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था। समय-समय पर भारतीय संत-महात्माओं, समाज सुधारकों, नवयुवाओं, धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डट कर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए। उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे। उसका भली प्रकार विस्तार भी हो सके।
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश भर में सरकारी, गैर सरकारीविद्यालयों महाद्यिालयों और विश्वविद्यलयों से हमें जो दिव्य प्रकाश मिलने की आशा बनी थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई। सरकार द्वारा इस ओर कोई प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्टरियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज बन कर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य की अवश्यकता मानी जाती थी।
इससे स्पष्ट होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगिकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है। स्वदेशी सस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य संस्कार हमारी रग-रग में समा रहे हैं। अगर इस बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र रोका न गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित है। मत भूलो कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक सदभावना, सहकार, प्रेम और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं।
वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों से किए जाते हैं। कार्य में असफल होने बाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला दिखाई नहीं देती है जहां हमारी संस्कृति की त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट भी किया जाता हो। हां पाश्चात्य संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य छा रही है।
राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक रह चुके गुरुकुलों के देश में -- विद्यालयों से लेकर विश्व विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य संस्कृति के भरण पोषण को ही निर्विवाद रूप में बढ़ावा मिल रहा है। रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है। इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेष के लिए अब रंगमंच तैयार किया जा चुका है। क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श बन पाएगी?
उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहां आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णत्या सक्षम और समर्पित हों।
नवम्बर 2009
मातृवन्दना
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श्रेणी:धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख
दिल प्रीतम का घर है
महात्मा गांधी जी का कथन है कि जिस तरह हमें अपना शरीर कायम रखने के लिए भोजन जरूरी है, आत्मा की भलाई के लिए प्रार्थना कहीं उससे भी ज्यादा जरूरी है। प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं वरन हृदय से होता है। इसलिए गूंगे , तुतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। जीभ पर अमृत - राम नाम हो और हृदय में हलाहल - दुर्भावना तो जीभ का अमृत किस काम का?
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है कि प्रार्थना या भजन हृदय से किया जाता है जिससे मनुष्य का हृदय शुद्ध होता है। ऐसा करने के लिए उसे वाह्य संसाधनों अथवा संयत्रों की कभी आवश्यकता नहीं होती है बल्कि उसे आत्मावलोकन एवं स्वाध्य करना होता है आत्म शुद्धि करनी होती है। जिस मनुष्य के हृदय में दुर्भावना एवं अज्ञान होता है वह समाज का न तो हित चाहता है और न कभी भलाई के कार्य ही करता है।
इसी कारण आज देश का प्रत्येक व्यक्ति, परिवार गांव और शहर पलपल ध्वनि प्रदूषण का शिकार हो रहा है। उसकी दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। उससे समस्त जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। ध्वनि प्रदूषण के कारण समाज में बहरापन रोग भी बढ़ रहा है। इसका उत्तरदायी कौन है?
वर्तमान में विवाह, पार्टी, घर व दुकानों में रेडियो दूरदर्शन, टेपरिकार्डर, डैक एवं मंदिर, गुरुद्वारा मस्जिद पर टंगे बड़े-बड़े स्पीकर तथा जगराता पार्टियां बे रोक-टोक ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं।
बच्चों के पढ़ने व रोगी के आराम करने के समय पर संयत्रों के उच्च स्वर सुनाई देते हैं। उनसे मनचाहा उच्च स्वरोच्चारण होता है। शायद ऐसा करने वाले भक्तजन व विद्वान लोगों को भजन कीर्तन सुनना कम और सुनाना ज्यादा अच्छा लगता होगा। क्या उससे बच्चे पढ़ाई कर पाते है? क्या इससे किसी दुःखी, पीड़ित या रोगी को पूरा आराम मिल पाता है?
स्मरण रहे कि प्रार्थना या भजन स्पीकरों या डैक से नहीं मानसिक या धीमी आवाज में ही करना श्रेष्ठ व हितकारी है। उससे किसी को दुःख या कष्ट नहीं होता है। इसी कारण बहुत से लोग आत्मचिंतन करते हैं तथा मानसिक नाम का जाप करते हैं। उन्हें किसी को सुनाने की आवश्यकता नहीं होती है।
रोगी, दुखियों को कष्ट पहुंचाना और विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा डालना इंसान का नहीं शैतान का कार्य है। अगर हम मनुष्य हैं तो हमें मनुष्यता धारण कर मनुष्य के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार आवश्य करना चाहिए, शैतान सा नहीं।
प्रार्थना या भजन करना हो तो हृदय से करो, वह जीवनामृत है। शैतान और अज्ञानी होकर विभिन्न संयत्रों से उच्च स्वर बढ़ाकर उसे समाज के लिए विष मत बनाओ।
समाज में ध्वनि प्रदूषण न फैल सके, इसके लिए प्रशासन के द्वारा ध्वनि विस्तार रोधक कानून से अंकुश लगाया जाना आवश्यक है। हम सबको इस कार्य में योगदान करना चाहिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि दिल एक मंदिर है। प्यार की जिसमें होती है पूजा, वह प्रीतम का घर है।
19 अप्रैल 2009
दैनिक कष्मीर टाइम्स
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श्रेणी:धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख
विलुप्त होंगी राष्ट्रीय श्वेत धाराएं!
”अब आसान न होगा पषु को आवारा छोड़ना। विभाग ने बनाई योजना। पंचायतों के नुमाइंदों को किया जा रहा जागरूक।“ जी हां, यही है दैनिक पँजाब केसरी में दिनांक 14 जून 2008 का प्रकाशित समाचार। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय इतिहास में वर्तमान हिमाचल सरकार ने जन हित में लगाया एक और मील का पत्थर जो पडो़सी राज्य सरकारों को अवश्य ही प्रेरणादायक सिद्ध होगा।
समाचार के अनुसार – ”पशुओं को आवारा छोड़ना अब प्रदेश के किसानों को भारी पड़ सकता है।“ संबंधित विभाग द्वारा शुरू की गई मुहिम में जहां किसानों को अपने पशु आवारा छोड़ने पर जुर्माना भरना पड़ सकता है वहां दुबारा गलती करने पर उनके विरुद्ध विभाग द्वारा कड़ी कार्रवाई भी की जाएगी। विभाग ने विस्तृत योजना बना ली है। पशु का रिजिस्ट्रेशन – उसके बाएं कान पर प्रांत व जिला कोड तथा दाएं कान पर ब्लाक, पंचायत व पशु मालिक कोड सब मशीन द्वारा अंकित किए जाएंगे। इस प्रकार पशु की पूर्ण पहचान होगी और पशु मालिकों के द्वारा अपना पशु कहीं आवारा छोड़ना आसान न होगा।
प्रायः देखने में आया है कि पशु मालिक दुधारु पशुओं का दूध निकाल लेने के पश्चात या जब वे दूध देना बन्द कर देते हैं तो वे उन्हें घर से बाहर निकाल देते हैं। वे आवारा होकर गांव या शहर की सड़़कों व गलियों में भटकना आरम्भ कर देेते हैं जिन्हें वहां कूड़ा-कचरा के अम्बारों पर या कूड़ादानों से गन्दगी में सने हुए लिफाफे व सड़ी-गली साग-सब्जी के छिलके खाते हुए देखा जा सकता है। आहार की तलाश में कभी-कभी उन्हें बस, ट्रक या रेल से टकरा कर अपनी जान भी गंवा देनी पड़ती है।
कुछ सिर फिरे लोगों ने तो पशुओं का जीना हराम कर दिया है। वे उन्हें आए दिन आवारा छोड़ देते हैं या कसाइयों को बेच देते हैं। पशुचोरों को समय मिले तो वे पशु चुराकर उन्हें बूचड़खानों में भी पहुंचा देते हैं। उनके लिए पशुओं का कोई महत्व नही होता है जिस कारण रोजाना बूचड़खानों में हजारों की संख्या में बड़ी क्रूरता पूर्ण पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इससे लोगों को चमड़े की बनी वस्तुएं मिल जाती है।
भारत देश में जहां श्री कृष्णजी के द्वारा गौ-प्रेम से गौ-वंश वर्धन हुआ था, देश में दूध की नदियां बही थीं वहीं आज क्रूर मानव अपनी क्रूरता वश गौ-वध करके गौ-धनाभाव कर रहा है। प्रति दिन सुबह-शाम मन्दिरों में ”गौ माता की जय हो“ कहने वाला समाज आज स्वयं ही कथनी और करनी में समानता रखने में असमर्थ है।
सूरसा मां-मुख की भान्ति बढ़ रही भारतीय जन संख्या और कल-कारखानों के बढ़ रहे साम्राज्य के आगे जहां कृषि प्रधान भारत की कृषि भूमि और जंगल सिकुड़ रहे हैं वहां उसके पशु वंश के भरण-पोषण हेतु चारागाहों का भी क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। इससे भारतीय परंपरागत पशु पालन व्यवस्था चरमरा गई है।
भारत में चिरकाल से ही पशुओं के मल-मूत्र का कृषि उत्पाद पौष्टिक खाद के रूप में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, के स्थान पर अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक खादों का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। पौष्टिकता में भारी गिरावट आ रही है। किसान बैलों से हल जोतना भूल गए हैं। उसका स्थान ट्रैक्टरों और भारी मशीनों ने ले लिया है। इससे पशु वंश नकारा हुआ है। पशु वंश में कमीं आने के कारण पौष्टिक खाद प्रभावित हुई है।
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित वर्तमान भारतीय युवा वर्ग पशु प्रेम के अभाव में पशु पालन व्यवसाय छोड़ता जा रहा है। वह लिफाफा बन्द दूध खरीदना सर्व श्रेष्ठ समझता है। यह बात बुरी ही नही है बल्कि वह हनिकारक, रोग और दोष पूर्ण भी है। इससे उसे भविष्य में सदैव जागरूक रहना होगा।
राष्ट्रीय परम्परागत पशु पालन व्यवसाय युवा वर्ग के लिए एक अच्छा रोजगार बन सकता है। इच्छुक, साहसी और पुरुषार्थी युवा वर्ग को संगठित होकर एवं सहकारिता अन्दोलन के साथ जुड़कर पशु पालन के व्यवसाय को स्वरोजगार बनाना होगा। बाजार से लिफाफा बन्द, महंगा उपलब्ध दूध के स्थान पर वह स्थानीय पशुशालाओं के माध्यम से ताजा शुद्ध और सस्ता दूध उत्पादन करके स्थानीय लोगों की आवश्यकता सहज में पूर्ण कर सकता है। इससे वह अच्छा आर्थिक लाभ कमा सकता है।
उपरोक्त वर्तमान हिमाचल सरकार का निर्णय प्रान्त तथा राष्ट्र हित में लिया गया एक सराहनीय और प्रंशसनीय फैसला है जो युवा वर्ग द्वारा राष्ट्र का नव निर्माण करने में एक महत्व पूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके लिए युवा वर्ग को कल कारखानों व मशीनों पर पूर्णरूप से आश्रित न रह कर अधिक से अधिक स्वयं शरीर श्रम प्रारम्भ करना होगा।
भारत में चिरकाल से श्वेत धाराएं पशुवश से प्राप्त हुई है, प्राप्त हो रही है और आगे भी प्राप्त होगी। स्मरण रहे अगर भविष्य में हमने स्वस्थ रहना है तो हमे दूध की आवश्यकता अधिक होगी। तब दूध पाने के लिए हमें मशीनों की नहीं पशुओं की आवश्यकता होगी। धरती पर पशु नही रहेंगे तो हमें दूध कहां से मिलेगा? जीवन की रक्षा पशु धन की सुरक्षा पर निहित है। कल-कारखानें और मशीनें तो हमारे लिए भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले साधन मात्र हैं। इनका हमें सदैव विवेक पूर्ण और सीमित ही उपयोग करना होगा। इसी में हमारी और भारत की भलाई है।30 नवंबर 2008
दैनिक कष्मीर टाइम्स
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श्रेणी:धर्म अध्यात्म संस्कृति -आलेख
आस्था की दहलीज पर
आलेख - धर्म अध्यात्म संस्कृति दैनिक जागरण 1.8.2007
हमारे देश में ऐसे अनेकों धार्मिक व तीर्थ स्थल हैं जिनके साथ हमारी पवित्र आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l हम वहां अपनी किसी न किसी कामना सहित देव दर्शनार्थ जाते हैं और अपनी कामना पूरी होने पर श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं l इससे हमें मानसिक शांति मिलती है l
पर दुर्भाग्य से इन्हीं धार्मिक व तीर्थ स्थलों पर समाज विरोधी तत्वों का साम्राज्य स्थापित हो गया है l मंदिर परिसरों में भारी भीड़, महिलाओं से छेड़-छाड़, दुर्व्यवहार, उनके कीमती जेवरों का छिना जाना और पुरुषों की जेब कट जाना प्रतिदिन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है l ऐसा व्रत-त्योहार व मेलों में होता है l
इस समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि मंदिर प्रशासन और मेला आयोजकों के कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित व अनुशासित बनाने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं को भी आगे आने का सुअवसर दिया जाये l उन्हें प्रशासन की ओर से पूर्ण सहयोग मिले ताकि हमारे मंदिर और तीर्थ स्थान आस्था के केंद्र बने रहें और श्रद्धालु, भक्त जनों को वहां सदा भय एवम् तनाव मुक्त वातावरण मिलता रहे l पंजाब से सीखना चाहिए कि इन स्थलों की शुचिता कैसे बनाये रखी जाती है l
चेतन कौशल “नूरपुरी”