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श्रेणी: 3 स्व रचित रचनाएँ

  • विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति
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    विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति

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    प्राचीन भारतवर्ष  विश्व  मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है। आर्य वेदों को मानते थे। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे। वेद जो देव वाणी पर आधारित हैं, उन्हें ऋषि  मुनियों द्वारा श्रव्य एवं लिपिबद्ध किया हुआ माना जाता है। वेदों में ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद प्रमुख हैं । वे सब सनातन हैं वेद पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं उनमें परिवर्तन नहीं होता है। वे कभी पुराने नहीं होते हैं।
    समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर  संसार की हर वस्तु बदल जाती है। नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है। सत्य सनातन है। वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं। वेदों  के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ , धार्मिक और शूरवीर थे। सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा , धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है। यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा आध्यात्कि धरोहर है जिसे विश्व  ने माना है।
    सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता। वह सदैव अबेध्य, अकाटय और अखंडित है। ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष  का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है। कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है। रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है। यह पहला सत्य है। अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्जवलित कर लिया जाए तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश  में बदल जाता है ओर तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है। यह दूसरा सत्य है। इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है। तदोपरांत उसमें सत्यप्रियता, सत्यनिष्ठा  जैसे अनेकों गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं ।
    ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य  की अपनी पहचान होती है। वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य  कर सकता है? उनके संसाधन क्या है? उन्हें अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेधन हेतु उनका धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है तब वह अपने गुण व संस्कार ओर स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है। देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है। उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है।
    ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य  को उचित-अनुचित और निषिद्ध  कार्याें का ज्ञान होता है। जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है। वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का  उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है। दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है। वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं।
    ब्रह्म-ज्ञान से ही मनुष्य  जागरूक होता है। उसका हृदय एवं मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश  से प्रकाशित हो जाता है। जब वह इस स्थिति पर पहंच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य  और पराक्रम को भी पहचान लेता है। वह समाज को संगठित करके उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-सम्पदा की रक्षा एवं सुरक्षा होती है।
    ब्रह्म-ज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट  करता है। उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है। शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हुए हैं ।
    सुगंध बिना पुष्प  का क्या करें?
    तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें?
    ध्येय बिना कर्म निरर्थक है,
    प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है।
    प्रष्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या है? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं? इसका उत्तर आर्याें ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं
    20 दिसम्बर 2009
    दैनिक कष्मीर टाइम्स

  • श्रेणी:

    रक्षा-सुरक्षा

    कश्मीर टाइम्स 22 नवम्बर 2009 

    मेहनती पिसे चक्की,
    चापलूस मारे फक्के,
    राज करे महामूर्ख,
    ज्ञानी खाए धक्के
    अत्याचार शोषण के साए में,
    जनहित दीखता है कहां?
    भय अन्याय के साम्राज्य में,
    जानमाल सुरक्षित होता है कहां?


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    मेहनती

    कश्मीर टाइम्स 15 नवंबर 2009 

    पहाड़ों को समतल करने वाले,
    बाधाओं से कब डरते हैं?
    खुद करते है हाथ, कार्य करने वाले,
    निर्धनता, बेरोजगारी दूर करते हैं
    मेहनती हाथों से कार्य करने वाले,
    जिंदगी में मौत से कहां डरते है?
    मन से राम नाम जपते हैं,
    ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    क्या भारत ?

    कश्मीर टाइम्स 1 नवम्बर 2009 

    विदेशों में कालाधन पहुंचाने से,
    चंद सिक्कों में स्वयं बिक जाने से,
    सस्ते में राष्ट्रीय सुख-शांति बिकवाने से,
    क्या भारत बना महान है?
    आज़ादी लेने हेतु रात-दिन तड़पने से,
    भूखे रहकर फांसी पर चढ़ जाने से,
    गोलियां खाकर शहीद हो जाने से,
    क्या भारत बना महान है?
    जगह जगह भाषा-भाषी मधुर संम्पर्क से,
    पग-पग पर धार्मिक सौहार्द से,
    मानव जाति सम्मान करने से,
    क्या भारत बना महान है ?
    कुपोषितों को स्वस्थ बनाने से,
    बेरोजगारों तक रोजगार पहुंचाने से,
    उत्तम शिक्षा, सुरक्षा वातावरण बनाने से,
    क्या भारत बना महान है?


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक
    श्रेणी:

    भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक

    यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि   मुनियों का देश  रहा है। मनीषियों  ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासाश्रमों के अपने विशेष  सिद्धांत थे।, उच्च आदर्श   थे। उनके अनुसार मनुष्य  अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी। जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्यावश  तिलमिला उठा। उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्धति को हर प्रकार से नष्ट -भ्रष्ट  करने तथा उसके स्थान पर निम्नतम स्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया। उसने ब्रिटिश  संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महाशड्यंत्र था। वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश  साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाए रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्तियों का हृास करने वाला ब्रिटिश  शासकों का सहायक नीतिशास्त्र बना।
    मैकाले का उद्देश्य  भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बना कर उसमें ब्रिटिश  साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था। समय-समय पर भारतीय संत-महात्माओं, समाज सुधारकों, नवयुवाओं, धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डट कर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए। उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे। उसका भली प्रकार विस्तार भी हो सके।
    इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश  भर में सरकारी, गैर सरकारीविद्यालयों महाद्यिालयों और विश्वविद्यलयों से हमें जो दिव्य प्रकाश  मिलने की आशा  बनी थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई। सरकार द्वारा इस ओर कोई प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्टरियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज  बन कर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश  साम्राज्य की अवश्यकता मानी जाती थी।
    इससे स्पष्ट  होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगिकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्  और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है। स्वदेशी  सस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य  संस्कार  हमारी रग-रग में समा रहे हैं। अगर इस बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र रोका न गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित  है। मत भूलो कि राष्ट्रीय  सांस्कृतिक सदभावना, सहकार, प्रेम  और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं।
    वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों  से किए जाते हैं। कार्य में असफल होने बाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश  भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला दिखाई नहीं देती है जहां हमारी संस्कृति की त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट  भी किया जाता हो। हां पाश्चात्य  संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य  छा रही है।
    राष्ट्रीय  संस्कृति के पोषक  रह चुके गुरुकुलों के देश  में -- विद्यालयों से लेकर विश्व  विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य  संस्कृति के भरण पोषण को ही निर्विवाद रूप में बढ़ावा मिल रहा है। रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है। इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेष  के लिए अब रंगमंच तैयार किया जा चुका है। क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श  बन पाएगी?
    उपरोक्त बातों से स्पष्ट  होता है कि एक ओर जहां आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता  है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता  है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णत्या सक्षम और समर्पित हों।
    नवम्बर 2009
    मातृवन्दना