मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: 3 स्व रचित रचनाएँ

  • श्रेणी:

    सनातन जीवन में धन की उपयोगिता

    मानव जीवन दर्शन – 11

    भारत ऋषि-मुनियों का देश है l भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को 100 वर्ष तक मुख्यतः चार आश्रमों में विभक्त किया था l उनमें प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, 25 से 50 वर्ष गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थ और 75 से 100 वर्ष तक सन्यास आश्रम प्रमुख थे l उनके अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च  आदर्श थे जिनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता था l इससे वह दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियों का स्वामी बनता था l भारत की नैतीकता, अध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी l

    प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या ग्रहण, 25 से 50 वर्ष गृहस्थाश्रम में संसारिक कार्य, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थाश्रम में आत्म चिंतन–मनन करते हुए आत्म साक्षात्कार और 75 से 100 वर्ष तक सन्यासाश्रम में जन कल्याण करने का सुनियोजित कार्य किया जाता था l  इनके अंतर्गत सनातन समाज को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, और धार्मिक दृष्टि से विश्व भर में सर्वोन्नत श्रेणी में सम्पन्न ही नहीं गिना जाने लगा था बल्कि विश्व ने उसकी आर्थिक सम्पन्नता देखते हुए उसे सोने की चिड़िया के नाम से भी विभूषित किया था l

    सनातन समाज की इस आर्थिक सम्पन्नता और उन्नति के पीछे जिस महान शक्ति का योगदान रहा हैं, वह शक्ति थी, योगियों की योग साधना और कर्मयोग l  श्रीकृष्ण जी उनके महान आदर्श रहे हैं l उन्होंने संसार में रहते हुए भी कभी संसार से प्रेम नहीं किया l उन्होंने पल भर के लिए भी योग को स्वयं से कभी अलग नहीं किया l वे संसार में कभी लिप्त नहीं हुए l यही कारण है कि हम आज भी उन्हें अपना नायक, और सत्सनातन सत्पुरुष मानते हैं और वे हमारे सबके हृदयों में विराजमान रहते हैं l

    यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में 1/3 % को छोड़कर 3/4% सनातन समाज भौतिक सुख सुविधाओं से आभाव ग्रत था और उस समय प्राकृतिक शोषण न के समान  था l इसका मुख्य कारण यह रहा है कि पहले सनातन समाज सादगी पसंद अध्यात्म प्रिय और प्राकृतिक प्रेमी था जबकि आज वही समाज वैसा होने का मात्र ढोंग कर रहा है l वह प्रकृति के विरुद्ध अनेकों कार्य करते हुए, उससे शत्रुता बढ़ा रहा है l इस तरह वह कल आने वाली महाप्रलय को, आज ही आमंत्रित कर रहा है l

    प्रकृति की परिवर्तनशीलता के प्रभाव से सत्सनातन समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक और धार्मिक क्षेत्रों में परिवर्तन होना निश्चित था, परिवर्तन हुआ l यह समस्त भूखंड जिस पर कभी मात्र आर्य लोगों का “वसुधैव कुटुम्बकम” दृष्टि से अपना अधिपत्य था, वह धीरे-धीरे कई राष्ट्रों के रूपों में परिणत हो गया l उस भूखंड पर अनेकों देश जिनमें वर्तमान भारतवर्ष भी है, वह अपने-अपने अस्तित्व में आने से पूर्व कई छोट-छोटे राज्यों में विभक्त लेकिन उन्नत एवं समृद्ध भी था l वह विदेशी व्यापारी कम्पनियों, आक्रान्ता एवं लुटेरों की कुदृष्टि से बच न सका l जहाँ भारत के सम्राट साहसी और परमवीर थे, वहां वे अहंकार में चूर और विलासी भी कम नहीं थे l  परिणाम स्वरूप वे विदेशी व्यापारी कम्पनियों, आक्रान्ता एवं लुटेरों की छल विद्या एवं बांटो और राज करो, की नीति को समझ न सके l अतः उन्हें उनसे हर स्थान पर मुंह की खानी पड़ी l

    आज भारतीय सेक्युलर समाज में उसका हर मार्गदर्शक, अभिभावक, गुरु, नेता, प्रशासक, सेवक और नौजवान योग-साधना से विमुख हो गया है और होता जा रहा है जो एक बड़ी चिंता का विषय है l उन्हें पाश्चात्य देशों की तरह मात्र अच्छा फ़ास्ट खाना, गाड़ी, बंगला, अपार धन और सर्व सुख सुविधाएँ ही चाहियें, भले ही वह घोटाला, करके, चोरी से, रिश्वत घूस लेकर या फर्जिबाड़े से ही क्यों न जुटाई गई हों या जुटानी पड़े l इसमें उनकी धन लोलुपता अत्यंत घातक सिद्ध हुई है और बढ़ती जा रही है l उन्हें राष्ट्रहित से कुछ भी नहीं है लेना, देना l

    वह भारतीय दिव्य ब्रह्मज्ञान जो विदेशों तक कभी अज्ञान का अँधेरा दूर किया करता था, वह उत्पादन और हस्तकला कौशल का जीवट जादू जो उनके सिर पर चढ़कर बोला करता था, को ग्रहण लग गया है l भारत आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर, भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है l देश के सामने आर्थिक चुनौतियां उभर आई हैं l उसमें आये दिन नये-नये घोटाले हो रहे हैं l लोगों का सफेद धन बे – रोक टोक, तेजी से कालाधन बनकर, विदेशी बैंकों की तिजोरियों में समाय जा रहा है फिर भी सरकारों के द्वारा राष्ट्रीय विकास का ढोल पीटा जा रहा है और वह उस विकास की पोल भी खोल रहा है l चोरी करना, घूस और रिश्वत लेने-देने का प्रचलन जोरों पर है l भ्रष्टाचार की सदाबहार बेल निर्भय होकर हर तरफ विष उगल रही है l  

    ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञानार्जित करना, गृहस्थ जीवन में संसारिक कार्य करना सुख सुविधाएँ जुटाना और उनका भोग करना, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन, आत्म साक्षात्कार करना तथा सन्यास जीवन में समाज का मार्गदर्शन करना मानव जीवन का परम उद्देश्य रहा है l उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना अनिवार्य था l इसलिए भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के चार आश्रमों की कल्पना को साकार करने हेतु कार्यान्वित किया था l

    “वीर भोग्य वसुन्धरा” अर्थात वीर पुरुष ही धरती का सुख भोगते हैं l वीर वे हैं जो अपने अदम्य साहस के साथ जीवन की हर चुनौति का सामना करते हुए अपने परम जीवनोद्देश्य को सफलता पूर्वक पूरा करते हैं l इसी आधार पर गृहस्थाश्रम में संसारिक सुख का भोग किया जाता था और शेष तीनों आश्रमवासी गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहकर अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपना-अपना कार्य किया करते थे l  

    विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर विद्या अर्जित करते थे l पराक्रमी राजा वन गमन – एकांत वास करने, वानप्रस्थी बनने से पूर्व, स्वेच्छा से भोग्य वस्तुओं को अपने योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देते थे और सन्यासी – बहते जल की तरह कभी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे l वे भ्रमण करते हुए लोक मार्गदर्शन करते थे l इस प्रकार भोग सुख की सभी सुख सुविधाएँ मात्र गृहस्थाश्रम वासियों की सम्पदा होती थी l यही भारतीय संस्कृति है l इसी कारण भारत में संग्रहित अपार सम्पदा, विदेशियों के लिए आकर्षण, सोने की चिड़िया, उनकी आँख की किरकिरी बनी और उन्होंने उसे पाने व लुटने/हथियाने के लिए साम, दाम, दंड, और भेद नीतियों का भरपूर प्रयोग किया l

    हमारी इसी अपार धन – संपदा को पहले विदेशियों ने लुटा था और अब उसे अपने ही लोग अपने दोनों हाथों से दिन-रात लुट रहे हैं l इस तरह न जाने कब थमेगा, लुटने का यह सिलसिला ! हम चाहें तो इस लुट को नियंत्रित कर सकते हैं l यह कार्य भारतीय सनातन जीवन पद्दति पर आधारित मानव जीवन शैली आश्रम व्यवस्था अपनाने से संभव हो सकता है l इस भयावह आर्थिक चुनौति के विरुद्ध, समाज हित में, हम सबकी सकारात्मक एवं रचनात्मक इच्छा-शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए l

    प्रकाशित 2013 मातृवंदना


  • श्रेणी:

    सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व

    मानव जीवन दर्शन – 10

    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l

    बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l

    युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l

    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश – कार्य क्षेत्र, काल – समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l

    प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l  

    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l

    समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि

    लोक शक्ति का मूल आधार,

    जन-जन के उच्च गुण, संस्कार l

    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्रा में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं – ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण-शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?  

    प्रकाशित 5 मई 1996 कश्मीर टाइम्स


  • श्रेणी:

    मानवी ऊर्जा – ब्रह्मचर्य

    मानव जीवन दर्शन – 9

    गुरुकुल में विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है l इस काल में विद्यार्थी गुरु जी के सान्निध्य में रहकर समस्त विद्याओं का सृजन, सवर्धन और संरक्षण करके स्वयं अपार शक्तियों का स्वामी बनता है l सफल विद्यार्थी बनने के लिए विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य या मानवी ऊर्जा का महत्व समझना अति आवश्यक है l ब्रह्मचर्य के गुण विद्यार्थी को सदैव उधर्वगति प्रदान करते हैं l 

    1. ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों का सयंम l
    2. ब्रह्मचर्य बुद्धि का प्रकाश है l
    3. ब्रह्मचर्य नैतिक जीवन की नींव है l
    4. सफलता की पहली शर्त है – ब्रह्मचर्य l
    5. चारों वेदों में ब्रह्मचर्य जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है l
    6. ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण सौभाग्य का कारण है l
    7. ब्रह्मचर्य व्रत अध्यात्मिक उन्नति का पहला कदम है l
    8. ब्रह्मचर्य मानव कल्याण एवं उन्नति का दिव्य पथ है l
    9. अच्छे चरित्र निर्माण करने में ब्रह्मचर्य का मौलिक स्थान है l  
    10. ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण शक्तियों का भंडार है l
    11. ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ ज्ञान है l
    12. ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ धर्म है l
    13. सभी साधनों का साधन ब्रह्मचर्य है l
    14. ब्रह्मचर्य मन की नियंत्रित अवस्था है l
    15. ब्रह्मचर्य योग के उच्च शिखर पर पहुँचने की सर्व श्रेष्ठ सोपान है l
    16. ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन का ठोस आधार है l
    17. गृहस्थ जीवन में ऋतू अनुकूल सहवास करना भी ब्रह्मचर्य है l
    18. ब्रह्मचर्य से मानव जीवन आनंदमय हो जाता है l
    19. प्राणायाम से मन, इन्द्रियां पवित्र एवं स्थिर रहती हैं l 
    20. ब्रह्मचर्य से अपार शक्ति प्राप्त होती है l
    21. ब्रह्मचर्य से हमारा आज सुधरता है l
    22. ब्रह्मचर्य में शरीर, मन व आत्मा का संरक्षण होता है l
    23. ब्रह्मचर्य से बुद्धि सात्विक बनती है l
    24. ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मस्वरूप में स्थिति हो जाती है l
    25. ब्रह्मचर्य से आयु, तेज, बुद्धि व यश मिलता है l
    26. ब्रह्मचारी का शरीर आत्मिक प्रकाश से स्वतः दीप्तमान रहता है l
    27. ब्रह्मचारी आजीवन निरोग एवं आनंदित रहता है
    28. ब्रह्मचारी स्वभाव से सन्यासी होता है l
    29.  ब्रह्मचारी अपनी संचित मानवी ऊर्जा – ब्रह्मचर्य को जन सेवा एवं जग भलाई के कार्यों में लगाता है l

    दोष सदैव अधोगति प्रदान करते हैं इसलिए ब्रह्मचारी की उनसे सावधान रहने में ही अपनी भलाई है l

    1. दुर्बल चरित्र वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्य पालन में कभी सफल नहीं होता है l
    2. मनोविकार ब्रह्मचर्य को खंडित करता है l
    3. आलसी व्यक्ति कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं क्र सकता l
    4. अति मैथुन शारीरिक शक्ति नष्ट कर देता है l
    5. काम से क्रोध उत्पन्न होता है , क्रोध से बुद्धि भ्रमित होती है l
    6. काम मनुष्य को रोगी, मन को चंचल तथा विवेक को शून्य बनता है l
    7. वीर्यनाश घोर दुर्दशा का कारण बनता है l
    8. देहाभिमानी ही कामी होता है l
    9. काम विकार का मूल है l
    10. ब्रह्मचर्य के बिना आत्मानुभूति कदापि नहीं होती है l
    11. काम विचार से मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है l
    12. काम वासना के मस्त हाथी को मात्र बुद्धि के अंकुश से नियंत्रित किया जा सकता है l
    13. काम, क्रोध, लोभ नरक के द्वार हैं l

    प्रकाशित जनवरी 2010 मातृवंदना


  • श्रेणी:

    मानव जीवन – एक रहस्य

    मानव जीवन दर्शन – 8

    ईश्वर की संरचना प्रकृति जितनी आकर्षक है, वह उतनी विचित्र भी है l जड़-चेतन उसके दो रूप हैं l इनमें पाई जाने वाली विभिन्न वस्तुओं और प्राणियों की अपनी-अपनी जातियां हैं l इन जातियों में मात्र मनुष्य ही प्रगतिशील प्राणी है l वह विवेक का स्वामी है l

    गुरु के सान्निध्य में ऐसे किसी प्रगतिशील विद्यार्थी/साधक के लिए, चाहे वह संसारिक विषय हो या अध्यात्मिक, प्रगति–पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने का उसका अपना प्रयत्न तब तक जारी रहता है जब तक उसे सफलता नहीं मिल जाती l वह कभी नहीं देखता है कि उसने कितनी यात्रा तय कर ली है ? वह देखता है, उसकी मंजिल कितनी दूर शेष रह गई है ? वहां तक कब और कैसे पहुंचा जा सकता है ?

    संसारिक विकास नश्वर, अल्पकालिक और सदैव दुखदायक विषय है जब कि मानसिक विकास अनश्वर, दीर्घकालिक सर्व सुखदायक तथा शांतिदाता है l

    मानसिक विकास करते हुए साधक को सुख तथा शांति प्राप्त होती है l वह अपने योगाभ्यास से कुण्डलिनी जागरण, काया-कल्प, दूर बोध, विचार-सम्प्रेषण, दूरदर्शन आदि जैसे असंख्य गुणों से स्वयं ही संपन्न हो जाता है l इन दैवी गुणों के कारण वह समाज में ईश्वर समान जाना और पहचाना जाता है l वास्तव में किसी साधक के लिए, किसी जनसाधारण द्वारा ऐसा कहना तो दूर, सोचना भी सूर्य को दीप दिखाने के समान है l मनुष्य तो मनुष्य है और मात्र मनुष्य ही रहेगा l वह देव या ईश्वर कभी हो नहीं सकता  l

    कोई दैवी गुणों का स्वामी, घमंडी साधक लोगों को तरह-तरह के चमत्कार तो दिखा सकता है पर उनका मन नहीं जीत सकता, उनका प्रेमी नहीं बन सकता l एक सच्चा प्रेमी तो वही महानुभाव हो सकता है जो महर्षि अरविन्द, स्वामी दयानंद जी की तरह अपनी निरंतर साधना और यत्न द्वारा  प्रगति-पथ पर अग्रसर होता हुआ आवश्यकता अनुसार परिस्थिति, देश काल, और पात्र देखकर लोक कल्याण करे l स्वामी विवेकानंद जी की तरह अपनी दैवी शक्तियों का सदुपयोग, रक्षा, और उनका सतत वर्धन करते हुए, अपने राष्ट्र का माथा ऊँचा करने के साथ-साथ मानवता मात्र की सेवा करे l

      जन साधारण का मन चाहे उसके विकारों या वासनाओं की दलदल में लिप्त रहने के कारण अशांत रहे फिर भी वह एक साधारण भीमराव अम्बेडकर की सच्ची लग्न, विश्वास युक्त अथक प्रयत्न, मेहनत से एक दिन अपना लक्ष्य पाने में सक्षम और समर्थ हो पाता है l डा० भीमराव अम्बेडकर बन जाता है l

    महराणा प्रताप जैसे राष्ट्र प्रेमी को अपने जीवन में कभी भी किसी प्रकार के महत्व पूर्ण उद्देश्य

    की प्राप्ति के लिए छोटी या बड़ी वस्तु का त्याग और अनगिनत बाधाओं, चुनौतियों और अत्याचारों का सामना भी करना पड़ता है l हंसते हुए उनसे लोहा लेना तथा आगे कदम बढ़ाना ही उसका धर्म है l

    दधिची जैसा त्यागी, सत्पुरुष कभी मृत्यु से नहीं डरता है l वह अपने जीवन को दूसरों की वस्तु समझता है l इसी कारण वह संकट काल में किसी जान, परिवार, गाँव, शहर और राष्ट्र की भी रक्षा करता है l आवश्यकता पड़ने पर वह अपने प्राण तक न्योछावर कर देता है l

    लाल, बाल, पाल और गाँधी जी के लोक जागरण जैसे किसी जागरण से प्रेरित होकर कोई भी जन साधारण प्रेम-सुस्नेह के वश होकर किसी एक दिन जवाहर, राजेन्द्र पटेल और सुभाष जैसा लोकप्रिय नेता बन पाता है l  

    निडरता, साहस, विश्वास, लग्न, और कड़ी मेहनत ही एक ऐसी अजेयी जीवन शक्ति है जिससे साधक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियां प्राप्त करता है l जिस साधक में यह चारों शक्तियां भली प्रकार विकसित हो जाती हैं, वास्तव में विशाल समाज और राष्ट्र अपना उसी का होता है l

    अजयी चतुर्वहिनी शक्ति को साधक जीवन में निरंतर क्रियाशील बनाये रखने के लिए उच्च विचार, सादा जीवन तथा कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता बनी रहती है l

    अजयी शक्ति साधक के हृदय को शुद्ध रखने से प्राप्त होती है l उसे अपना हृदय शुद्ध रखने के लिए सात्विक गुणों की आवश्यकता पड़ती है l सात्विक गुण उसके विशुद्ध विवेक से प्राप्त होते हैं l विशुद्ध विवेक साधक द्वारा प्रकृति के प्रत्येक कार्य-व्यवहार, वस्तु में ज्ञान खोजने से बनता है – वह ज्ञान पोषक होता है l

    वास्तविक ज्ञान संसार की अल्पकालिक सुख देने वाली वस्तुओं का भोग करने के साथ-साथ उनका तात्विक अर्थ मात्र जानकार साधक को उसके अपने मन से त्याग करने के पश्चात् ही प्राप्त होता है l किसी विषय या विकार में बनी साधक के मन की आसक्ति अज्ञान की जननी होती है – वह उसका ज्ञान ढक देती है l

    तात्विक ज्ञान धारण करने वाला साधक सत्पुरुष ही पुरुषार्थी ज्ञानवीर धीर श्रीकृष्ण होता है l ज्ञान सत्य है और सत्य ही ज्ञान है l

    ज्ञानवीर सत्पुरुष जल में कमल के पत्ते के समान प्रकृति में कार्य करता हुआ भी निर्लिप्त रहता है l इसी कारण जन साधारण मनुष्य अपनी विभिन्न दृष्टियों से दैवी गुण सम्पन्न साधक, सत्पुरुष को अपना नायक, रक्षक मार्ग-दर्शक, युग निर्माता, गुरु, दार्शनिक, योगी, सिद्ध, महात्मा और अवतारी पुरुष भी मानते है l शायद वह उनके लिए एक रहस्यमय जीवन होता है l

    प्रकाशित 2017 जून मातृवंदना


  • श्रेणी:

    मानव इन्द्रियां – स्वाभाविक गुण

    मानव जीवन दर्शन – 7

    मानव शरीर उस सुंदर मकान के समान है जिसमें आवश्यकता अनुसार दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारियां, रोशनदान, और नालियां सब कुछ उपलब्ध है l उसमें घर की भांति प्रत्येक वस्तु उचित स्थान पर उचित और सुसज्जित ढंग से रखी मिलती है l मानव शरीर में मुख्यतः कान, नाक, आँख, जिह्वा, त्वचा, हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैरों के ही कारण परिपूर्ण और मनमोहक है l वह अपना प्रत्येक कार्य करने में हर प्रकार से सक्षम है l

    भारतीय विद्वानों ने मनुष्य के इन महत्वपूर्ण अंगों को इन्द्रियां नाम प्रदान किया है l इन इन्द्रियों की कर्मशीलता के कारण मनुष्य शरीर गतिशील है l यह इन्द्रियां दो प्रकार की हैं – ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ l ज्ञानेन्द्रियों में कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा आती हैं और कर्मेन्द्रियों में हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर l इन सबके अपने-अपने कार्य हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं l

    पांच ज्ञानेन्द्रियों में जो मनुष्य के शरीर में सुशोभित हैं, वह समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मनुष्य को विभिन्न प्रकार के ज्ञान से स्वर्ग तुल्य आनंद व सुख की अनुभूति करवाती हैं l इन ज्ञानेन्द्रियों कान से शब्द ज्ञान, आँख से दृश्य ज्ञान, नाक से गंध ज्ञान, जिह्वा से स्वाद ज्ञान और त्वचा से स्पर्श ज्ञान सुख प्राप्त होते हैं l सृष्टि में पांच महाभूत आकाश, आग, मिटटी, पानी और वायु पाए जाते हैं जो क्रमशः कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के रूप में अनुभव किये जाते हैं l

    आकाश के माध्यम से कान के द्वारा शब्द सुनने से शब्द ज्ञान होता है l यह शब्द कई प्रकार के होते हैं जैसे – गाने का शब्द, बजाने का शब्द, नाचने का शब्द, हंसने का शब्द, रोने का शब्द, बड़बड़ाने का शब्द, पढ़ने-पढ़ाने का शब्द, शंख फूंकने का शब्द, गुनगुनाने का शब्द, बतियाने का शब्द, चलने का शब्द, तैरने का शब्द, लकड़ी काटने का शब्द इतियादि l  

    आग या प्रकाश  के माध्यम से आँख के द्वारा देखने से दृश्य-ज्ञान होता है l उन्हें मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है – रंगों के आधार पर, बनावट के आधार पर, रूप के आधार पर और क्रिया गति के आधार पर l

    रंगों में – नीला, पीला, काला, हरा, सफेद और लाल रंग प्रमुख हैं तथा अन्य प्रकार के रंग उपरोक्त रंगों के मिश्रण से जो विभिन्न अनुपात में मिलाये जाते हैं, से मन चाहे रंग तैयार किये जा सकते हैं l

    बनावट आकर में – गोलाकर, अर्ध गोलाकार, त्रिभुजाकार, आयताकार, वर्गाकार, सर्पाकार, आयताकार, लम्बा, छोटा, मोटा, नुकीला और धारदार आदि l  

    रूप प्रकार में – प्रकाश, ज्योति, आग, शरीर, पवन का स्पर्श, जल, वायु की सर-सराहट, मिटटी आदि l   

    क्रिया गति में – दो प्रकार हैं, सजीव तथा निर्जीव l सजीव स्वयं ही क्रियाशील हैं जबकि निर्जीव को क्रियाशील किया जाता है और उसे गति प्रदान की जाती है l

    मिटटी और उससे उत्पन्न जड़ी बूटियों, पेड़ पोधों, फूल-वनस्पतियों और फलों से विभिन्न प्रकार की उड़ने वाली गंधों – का नाक के द्वारा सूंघने से गंध–ज्ञान होता है l गंध कई प्रकार की हैं जिनमें कुछ इस प्रकार हैं – जलने की गंध, सड़ने की गंध, पकवान पकने की गंध, फूल-वनस्पति की गंध, पेड़ छाल की गंध, मल-मूत्र की गंध तथा मांस मदिरा की गंध आदि l  

    जल या रस के रूप में – पेय वस्तुओं का जिह्वा द्वारा स्वाद चखने से स्वाद-ज्ञान होता है l यह भी कई प्रकार के हैं – खट्टा, मीठा, फीका, नमकीन, तीक्षण, कसैला और कड़वा आदि l  

    वायु के स्पर्श से त्वचा पर पड़ने वाले प्रभावों से त्वचा के जिन-जिन रूपों में अनुभव होता है उनमें ठंडा, गर्म, नर्म, ठोस मुलायम और खुरदरा प्रमुख अनुभव हैं l

    पांच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य को कर्म करने में सहायता करती हैं l यह इन्द्रियां इस प्रकार हैं – मुंह, हाथ, उपस्थ, गुदा और पैर l मुंह से होने वाले कार्य इस प्रकार है – फल खाना, बातें करना, गाना, हँसना, रोना, बड़बड़ाना, बांसुरी बजाना, शंख फूंकना, गुनगुनाना और पानी पीना आदि

    हाथों से किये जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं – पैन पकड़ना, पत्र लिखना, सिर खुजलाना, कपड़ा निचोड़ना, खाना पकाना, ढोल बजाना, मशीन चलाना, भाला फैंकना, तैरना, धान कूटना, स्वेटर बुनना, दही बिलोना, कपड़ा सिलना, फूल तोड़ना, कढ़ाई करना, मूर्ति तराशना, चित्र बनाना, हल चलाना, अनाज तोलना, नोट गिनना, आँगन बुहारना, बर्तन साफ करना, पोंछा लगाना, गोबर लीपना, चिनाई करना, कटाई करना, पिंजाई करना आदि l

    मूत्र विच्छेदन करना  उपस्थ का कार्य है l

    गुदा मल विच्छेदन का कार्य करता है l

    पैरों से चलना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना, कूदना आदि कार्य किये जाते हैं l

    इस प्रकार हम देख चुके हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को ज्ञान की ओर और कर्मेन्द्रियाँ कर्म की ओर आकर्षित करती हैं l यही उनका अपना स्वभाव है l

    प्रकाशित 24 अगस्त 1996 काश्मीर टाइम्स