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    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

    धर्म अध्यात्म संस्कृति– 3

    ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

    अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।

    यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सद्भावना कूटकूट कर भरी हुई है।

    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावस्या, वैसाखी की अमावस्या, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।

    यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां पर लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।

    भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव-पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव-विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेमपूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

    स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में चरण पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967- 68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।

    यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।

    यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।

    शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

    साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिव-विवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव-विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।

    सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिनके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सूत्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

    प्रकाशित मार्च-अप्रैल 2020मातृवंदना

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    जलधारा करती है शिवलिंगों को स्नान

    धर्म अध्यात्म संस्कृति– 2

    देव भूमि हिमाचल प्रदेश में – सुल्याली गाँव, तहसील नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है l इसी गाँव में एक कंगर नाला के ठीक उस पार, स्वयं प्रगट हुए आप अनादी नाथ, शंकर, भोले नाथ, शिव-शम्भू जी का प्राचीन मंदिर है जो स्वयं निर्मित एक ठोस पहाड़ी गुफा में है, दर्शनीय स्थल है l

    मान्यता है कि डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर में पीड़ितों की पीड़ा दूर होती है, जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शांत होती है, अर्थार्थियों को उनका मनचाहा भोग-सुख मिलता है और तत्वज्ञान की लालसा रखने वालों को तत्वज्ञानभी प्राप्त होता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा रूप में दृश्यमान होने के कारण उसमें कहीं दूध समान सफेद रंग की जलधाराएँ गिरती दिखाई देती हैं तो कहीं बूंद-बूंद करके टपकता हुआ पानी l इसके नीचे बने हुए असंख्य छोटे-बड़े शिवलिंगों को उनसे हर समय स्नान प्राप्त होता रहता है l

    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा के ऊपर से कल-कल छल-छल करके बहने वाली जलधारा की उंचाई लगभग 20-25 फुट है l जिस स्थान पर छड़-छड़ की ध्वनि के साथ यह जलधारा गिरती है, स्थानीय लोग अपनी भाषा में उसे छडियाल या गौरी कुंड कहते हैं l यह डिह्बकू भी कहलाता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा की वायें ओर एक और गुफा है जो स्थानीय जनश्रुति अनुसार कोई भूमिगत मार्ग है l मंदिर गुफा के दायें ओर उससे कुछ उंचाई पर स्थित उसी के समान गहराई की एक अन्य गुफा है l यहाँ पर गंगा की धारा, शिव जटा से प्रत्यक्ष सी प्रकट होती हुई दिखाई देती है l सुल्याली गाँव और उसके आस-पास के कई क्षेत्रों को पीने का शुद्ध पानी यहीं से प्राप्त होता है l

    परम्परा के अनुसार डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में जो भी महात्मा आते हैं, उनकी सेवा में राशन का प्रबंध सुल्याली गाँव के परिवार करते हैं l “बिच्छू काटे पर जहर न चढ़े” यह किसी सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद है या डिह्बकेश्वर महादेव की असीम कृपा ही l 

    सुल्याली गाँव में बिच्छू के काटने पर किसी व्यक्ति को जहर नहीं चढ़ता है l जनश्रुति और उनके विश्वास के अनुसार शिवरात्रि को शिव भोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजित रहते हैं तथा यहाँ पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद देते हैं l

    प्रकाशित 17 मई 2006 दैनिक जागरण

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    कब तक होती रहेगी राजभाषा की अनदेखी

    राष्ट्रीय भावना – 3

    क्या हिंदी “हिन्द की राजभाषा” को व्यवहारिक रूप में जन साधारण तक पहुँचाने में कोई बाधा आ रही है ? अगर हाँ, तो हम उसे दूर करने में क्या प्रयास कर रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना अति आवश्यक है l मुझे भली प्रकार याद है, दिनांक 29 फरवरी 2008 का वह दिन l मैं अपार जन समूह में लघु सचिवालय धर्मशाला की सभागार में बैठा हुआ अति प्रसन्न था l हम सब वहां पर आयोजित केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड व सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य अधिकारी व कर्मचारियों की संयुक्त बैठक में भाग लेने गए हुए थे l वहां पर विद्यमान गणमान्य अधिकारीयों की बैठक की अध्यक्षता सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री ने की थी l

    सभागार में हर कोई खामोश, कार्रवाई प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था l एकाएक वह शुरू हुई और हमारे कान खड़े हो गये l आरम्भ में, राज्य के सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मंत्री माननीय रविन्द्र रवि और चिन्मय स्वामी आश्रम, संस्था की निदेशिका डाक्टर क्षमा मैत्रेय के संभाषण से भारतीयता की झलक अवश्य दिखाई दी l दोनों के भाषण हिंदी भाषा में हुए जिनमें देश के गौरव की महक थी l मुझे पूर्ण आशा थी कि भावी कार्रवाई भी इसी प्रकार चलेगी परन्तु विलायती हवा के तीव्र झोंके से रुख बदल गया और देखते ही देखते सभागार से हिंदी भाषा सूखे पत्ते की तरह उड़कर अमुक दिशा में न जाने कहाँ खो गई l जिसका वहां किसी ने पुनः स्मरण तक नहीं किया – जो भी बोला, जिस किसी ने किसी से पूछा या जिसने कहा, सुना – वह मात्र अंग्रेजी भाषा में ही था l

    उस समय मुझे ऐसा लगा मानों हम सब लघु सचिवालय – धर्मशाला की सभागार में नहीं, बल्कि ब्रिटिश संसद में बैठे हुए हैं और कार्रवाई देख रहे हैं, अंतर मात्र इतना था कि हमारे सामने गोरे अंग्रेज नहीं, बल्कि काले अंग्रेज – वो भी स्वदेशी अपने ही भाई थे l वो समाज को बताना चाहते थे कि वे गोरे अंग्रेजों से कहीं ज्यादा बढ़िया अंग्रेजी भाषा बोल और समझ सकते हैं l उनकी अंग्रेजी भाषा, हिंदी भाषा से ज्यादा प्रभावशाली है l अंग्रेजी भाषा में उनका ज्ञान देश की आम जनता आसानी से समझ सकती है l मुझे तो वहां अंग्रेजी साम्राज्य की बू आ रही थी – भले ही वह भारत में कब का समाप्त हो चूका था l

    अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरी बात नहीं है l उसे बोलने से पूर्व देश, स्थान और श्रोता का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी है l वह लघु सचिवालय अपना था l वहां बैठे सब लोग अपने थे फिर भी वहां सबके सामने राजभाषा हिंदी की अवहेलना और अनदेखी हुई l बोलने वाले लोग हिंदी बोलना भूल गए और जग जान गया कि सचिवालय में राजभाषा हिंदी का कितना प्रयोग होता है और उसे कितना सम्मान दिया जाता है ?

    ऐसा लगा मानों मिन्नी सचिवालय में मात्र दो महानुभावों को छोड़कर अन्य किसी को हिंदी या स्थानीय भाषा आती ही नहीं है l हाँ, वे सब पाश्चात्य शिक्षा की भट्टी में तपे हुए अंग्रेजी भाषा के मंजे हुए अच्छे प्रवक्ता अवश्य थे l वे अंग्रेजी भाषा भूलने वाले नहीं थे क्योंकि उन्होंने गोरे अंग्रेजों द्वारा विरासत में प्रदत अंग्रेजी भाषा का परित्याग करके उसका अपमान नहीं करना था l वे हिंदी भाषा बोल सकते थे पर उन्होंने सचिवालय में राजभाषा हिंदी का प्रयोग करके सम्मानित नहीं किया, कहीं गोरे अंग्रेज उनसे नाराज हो जाते तो ——!

    भारत या उसके किसी राज्य का, चाहे कोई लघु सचिवालय हो या बड़ा, राज्यसभा हो या लोक सभा अथवा न्याय पालिका वहां पर प्रयोग होने वाली सम्मानित राजभाषा हिंदी में किसी भी जनहित की कार्रवाई, बातचीत अथवा संभाषण के अपरिवर्तित मुख्य अंश मात्र उससे संबंधित विभागीय कार्यालय या अधिकारी तक सीमित न होकर ससम्मान राष्ट्र की विभिन्न स्थानीय भाषाओँ में, उचित माध्यमों द्वारा जन साधारण वर्ग तक पहुँचाना अति आवश्यक है l उनमें पारदर्शिता हो ताकि जन साधारण वर्ग भी उनमें सहभागीदार बन सके और सम्मान सहित जी सके l उसके द्वारा प्रदत योगदान से क्या राष्ट्र का नव निर्माण नहीं हो सकता ? उसका लोकतंत्र में सक्रीय योगदान सुनिश्चित होना चाहिए जो उसका अपना अधिकार है l इससे वह दुनियां को बता सकता है कि भारत उसका भी अपना देश है l वह उसकी रक्षा करने में कभी किसी से पीछे रहने वाला नहीं है l 

    प्रकाशित 9 नवंबर 2008 दैनिक कश्मीर टाइम्स


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    हम वही हैं जो

    सामाजिक बुराइयाँ व जन जागरण – 17 

    हिमाचल की दैनिक पंजाब केसरी 2 फरवरी 2008 में प्रकाशित समाचार लार्ड मैकाले ने कहा था – “भाजपा नेता केदारनाथ सहनी को अमरिका में बसे अडप्पा प्रसाद से मिला पत्र – उन्होंने लार्ड मैकाले द्वारा 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गये वक्तव्य की नकल भेजी है जिसके अनुसार लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था – “उन्होंने भारत में लंबी यात्रा की तथा उनको इसके दौरान देश में न तो कोई भिखारी मिला और न ही कोई चोर l उन्होंने देश में अपार धन-संपदा देखी है l लोगों के उच्च नैतिक चरित्र हैं तथा वे बड़े कार्य कुशल हैं l इसलिए सोचते हैं कि क्या वे ऐसे देश को कभी जीत पाएंगे ? लार्ड मैकाले ने यह भी व्यान  दिया था – जब तक हम इस राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी जो कि उसकी अध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत है, को तोड़ नहीं देते तब तक हम कामयाब नहीं होंगे l” उन्होंने ब्रिटिश संसद को सुझाव दिया था कि – “हमें भारत की पुरानी व परंपरागत शिक्षा-प्रणाली को बदलना होगा, उसकी संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिशें करनी होंगी l इस तरह भारतवासी अपनी संस्कृति भूल जायेंगे तथा वे वैसा बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं l”

    विचारों से स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार के अधिकारी लार्ड मैकाले के मन में भारत के प्रति दुर्भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी l उन्हें हमारे देश की सुख-शांति, समृद्धि और दिव्य ज्ञान फूटी कौड़ी नहीं सुहाया था l उनका भारत–भ्रमण संबंधी उद्देश्य मात्र ब्रिटिश सरकार के हित में भारतीय कमजोरियां ही ढूँढना और जुटाना था जो उनके हाथ नहीं लगीं l इसके विपरीत न चाहते हुए भी उन्हें भारत की प्रसंशा करनी पड़ी थी l यही नहीं, वह जो उस समय भारत में घुसपैठ, आतंक के जनक और आयोजक थे, अपनी वास्तविकता को भी अधिक देर तक नहीं छुपा सके l उन्होंने सुखी-समृद्ध भारतीय उप-महाद्वीप को हर प्रकार से लुटने, क्षीण-हीन और धनाभाव ग्रस्त करने का संकल्प ले लिया और उसे साकार करने हेतु साम, दाम, दंड, भेद नीतियों का भरपूर उपयोग भी किया l इससे भारतीय श्रमिकों के हाथ का कार्य छीन लिया गया l देश का विदेशी व्यापर-ढांचा तहस-नहस हो गया l इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य की खुशहाली के लिए जो एक वार लहर चली तो वह फिर नहीं रुकी l 

    भारतीय जनता जो अपने निजी जीवन, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व हित की कामना करती थी, को असुरक्षित, असहाय तथा ज्ञानहीन करने के पश्चात् उसे पहले तरह-तरह से आतंकित किया गया फिर उससे ब्रिटिश साम्राज्य हित की सेवाएं ली जाने लगी l जो ऐसा नहीं करते थे या उसका विरोध करते थे, उन्हें देश का गद्दार घोषित करके फांसी पर लटका दिया जाता था या गोलियों से भून दिया जाता था l यही नहीं उन्होंने देश की परंपरागत भारतीय शिक्षा-प्रणाली ही बदल दी जिससे कि भारत का कर्मठ, सदाचारी, संस्कारवान, बलवान और साहसी युवावर्ग तैयार होता था, बदले में पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित नाम मात्र के काले अंग्रेज तैयार होने लगे l सस्ते बाबू प्राप्त करना उनकी आवश्यकता थी, पूरी होने लगी l इन अंग्रेजों का अब भारत में एक बहुत बड़ा समुदाय बन चुका है जो न तो पूर्ण रूप से भारतीय रह गया है और न अंग्रेज ही बन सका है l हाँ, वे दिन प्रतिदिन अपने आचार-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, भाषा, पहनावा और यहाँ तक कि निजी संस्कारों को भूलता जा रहा है l वह अभागा सेक्युलर बन रहा है – अव्यवसायी, निर्धन, चरित्रहीन और असंस्कारी l

    भारत को स्वाधीन हुए साठ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परन्तु देश में लोह पुरुष के आभाव में आज तक भारत, भारतीय समाज, उसके परिवार और जन साधारण लार्ड मैकाले के ठोस संकल्प की पाश से मुक्त नहीं हो सका है l उससे मुक्ति दिलाने वाला हमारे बीच में आज कोई लोह पुरुष नहीं है l भारत को आज फिर से श्रमशील, सदाचारी, संस्कारवान और समर्थ युवा वर्ग की महती आवश्यकता है l यह कार्य परंपरागत भारतीय शिक्षा-प्रणाली ही कर सकती है, लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली तो कभी नहीं l 

    भारत की प्रांतीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार से मिलकर एक सशक्त राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली की संरचना करनी चाहिए जो पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चित कर सके l क्या हमारा अपना, अपने परिवार , समाज और राष्ट्र के प्रति यह भी कर्तव्य नहीं है ? है तो सावधान, देशवासियो ! संगठित हो जाओ और काट डालो पाश्चात्य शिक्षा की उन समस्त बेड़ियों को जिन्होंने हमें सदियों से बंधक बना रखा है l लार्ड मैकाले द्वारा प्रदत शिक्षा–प्रणाली हम सबको परोस रही है अव्यवसाय, निर्धनता, चरित्रहीनता और असंस्कार l

    मत भूलो ! लार्ड मैकाले ने सत्य ही कहा था –“भारत में उन्हें कोई भिखारी या चोर नहीं मिला है l” आओ हम आगे बढ़ें और अपनी खोई हुई परंपरागत भारतीय शिक्षा–प्रणाली का अनुसरण करके भारत को सुखी और समृद्ध बनाएं l इस पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली में ऐसा कोई दम नहीं है कि वह हमारी हस्ती मिटा दे या वह हमें अपने सत्य-मार्ग से विचलित कर सके l स्मरण रहे कि –
    जो हमें मिटाने आये थे कभी,
    मिटाते मिट गए हैं निशान उनके ही
    पर नहीं मिटी है हमारी हस्ती,
    हम हैं वही, जो थे कभी
    और रहेंगे कल भी l

    प्रकाशित 14 दिसंबर 2008 कश्मीर टाइम्स


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    ख़ुशी का पर्व – दीपावली

    भारत वर्ष विभिन्न – वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का देश है l वर्षा ऋतु के अंत में जैसे ही शरद ऋतु का आरम्भ होता है उसके साथ ही नवरात्रि – दुर्गा पूजन और राम लीला मंचन भी एक साथ आरम्भ हो जाते हैं l दुर्गा पूजन एवं राम लीला मंचन का नववें दिन समाप्त हो जाने के पश्चात्, दसवें दिन विजय दसवीं को दशहरा मनाया जाता है l भारतीय परंपरा के अनुसार विजय दसवीं का पर्व लंकापति रावण (बुराई) पर भगवान श्रीराम (अच्छाई) के द्वारा विजय का प्रतीक माना जाता है l यह पर्व श्रीराम का रावण पर विजय पाने के पश्चात् अयोध्या आगमन की ख़ुशी में उनका हर घर में दीपमाला जलाकर स्वागत किया जाता है l 

    धर्म परायण, ईश्वर भक्त और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव जागरूक रहने वाला मनुष्य अपने जीवन में दीपावली को सार्थक कर सकता है l

    सार्थक दीपावली

    नगर देखो ! सबने दीप जलाये हैं

    द्वार-द्वार पर, घर आने की तेरी ख़ुशी में मेरे राम !

    अँधेरा मिटाने, मेरे राम !

    आशा और तृष्णा ने घेरा है मुझको]

    स्वार्थ और घृणा ने दबोचा है मुझको,

    सीता को मुक्ति दिलाने वाले राम !

    विकारों की पाश काटने वाले राम !

    दीप बनकर मैं जलना चाहुँ,

    दीप तो तुम प्रकाशित करोगे, मेरे राम !

    अँधेरा खुद व खुद दूर हो जायेगा,

    हृदय दीप जला दो मेरे राम !

    सार्थक दीपावली हो मेरे मन की,

    घर-घर ऐसे दीप जलें, मेरे राम !

    रहे न कोई अँधेरे में संगी – साथी,

    दुनियां में सबके हो तुम उजागर, मेरे राम !

    सामाजिक चेतना – 5

    प्रकाशित अक्तूबर 2019 मातृवन्दना