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    परंपरागत शिक्षा-संस्कृति संरक्षण की आवश्यकता

    आलेख – शिक्षा व्यवस्था मातृवंदना फरवरी 2017 
    यह शाश्वत सत्य है कि हम जैसी संगत करते हैं, हमारी वैसी भावना होती है l हमारी जैसी भावना उत्पन्न होती है, हमारा वैसा विचार होता है l हमारा जैसा विचार पैदा होता है, हमसे हमारा वैसा ही कर्म होने लगता है और जब हम जैसा कर्म करते हैं, तब हमें उसका वैसा फल भी मिलता है l  
    गृहस्थ जीवन में गर्भादान के पश्चात् एक माँ के गर्भ में जब शिशु पूर्णतया विकसित हो जाता है तब उसके साथ ही उसके सभी अंग भी सुचारू ढंग से अपना-अपना कार्य करना आरंभ कर देते हैं l माँ के सो जाने पर शिशु भी सो जाता है और उसके जाग जाने पर वह भी जाग जाता है l इस अवस्था में माँ-बाप के द्वारा उसे जो कुछ सिखाया जाता है शिशु सहजता से सीख जाता है l
    इसका उदाहरण हमें महाभारत के पात्र वीर अभिमन्यु से मिलता है l तब अभिमन्यु अपनी माँ सुभद्रा की कोख में पल रहा था l एक दिन महारथी अर्जुन अपनी भार्या सुभद्रा को चक्रव्यूह बेधने की विधि सुनाने लगे l सुभद्रा ने उसे चक्रव्यूह में प्रवेश करने तक तो सुन लिया, पर इससे आगे सुनते-सुनते वह बीच में सो गई, शिशु भी सो गया l चक्रव्यूह से बाहर कैसे निकलना है ? वह बात माँ और बेटा दोनों नहीं सुन पाए l अतः महाभारत युद्ध की अनिवार्यता देखते हुये और चक्रव्यूह बेधन का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी अभिमन्यु को गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में प्रवेश करना पड़ा l वह उसमें प्रवेश तो कर गया पर बाहर निकलने के मार्ग का उसे ज्ञान न होने के कारण, वह बाहर नहीं निकल सका l अतः वह वीरगति को प्राप्त हो गया l
    जन्म लेने के पश्चात् शिशु सबसे पहले माँ को पहचानता है l ज्यों-ज्यों उसे संसार का बोध होता होने लगता है त्यों-त्यों वह घर के अन्य सदस्यों को भी पहचानने लगता है और उनसे बहुत सा कुछ सीख लेता है l शिशु के साथ सीखने-सिखाने के इस कर्म में सबसे पहले माँ-बाप की सबसे बड़ी भूमिका रहती है l उसके सामने माँ-बाप जैसा कार्य करते हैं, वह उन्हें जैसा कार्य करते हुए देखता है, वह उन्हें जैसा बोलते हुए सुनता है, वह तत्काल उसका अनुसारण भी करने लगता है l हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनकी सन्तान उनसे अच्छी हो l वह भविष्य में उनसे भी अधिक बढ़-चढ़कर उन्नति करे l इसी बात का ध्यान रखते हुए उन्हें अपने बच्चो के लिए एक अच्छा वातावरण बनाना होता है l एक अच्छे वातावरण में ही बच्चों को अच्छे संस्कार मिलते हैं और वे अपने जीवन में दिन दुगनी-रात चौगुनी उन्नति करते हैं l
    घर से बच्चों को अच्छे संस्कार मिलने के पश्चात विद्यालय में गुरुजनों की बड़ी भूमिका होती है l विद्यालय में अच्छे संस्कारों का संरक्षण होता है, होना भी चाहिए l यह कार्य कभी भारत के परंपरागत गुरुकुल किया करते थे l वहां गुरुजनों के द्वारा ऐसी होनहार प्रतिभाओं को भली प्रकार परखा और तराशा जाता था जो युवा होकर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जी-जान लगाकर कार्य करते थे l परिणाम स्वरूप हमारा भारत विश्व मानचित्र पर अखंड भारत बनकर उभरा और वह सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ l उन्नति के पश्चात पतन होना निश्चित है, देश का पतन हुआ l वर्तमान भारत जिसे हम सब देख रहे हैं, वह वास्तविक भारत नहीं है जो विश्व मानचित्र पर अखंड महाभारत दिखता था l विभिन्न षड्यंत्रों के कारण उसके कई महत्वपूर्ण क्षेत्र अब उससे कटकर विभिन्न राष्ट्र बन चुके हैं l देश में अब भी अनेकों षड्यंत्र जारी हैं l ऐसी स्थिति में सरकारों को देशहित में कठोर निर्णय लेने होते हैं, लेने भी चाहिए और जनता द्वारा उन्हें अपना भरपूर सहयोग देना चाहिए l भविष्य में सावधान रहने की आवश्यकता है l
    भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की मान्यता समाप्त कर दी थी l और उसके स्थान पर उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली जारी की थी l पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति पर आधारित वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था से भारतीय सनातन धर्म, शिक्षा-संस्कृति पर बुरा प्रभाव पड़ा है, पड़ रहा है और निरंतर जारी है l
    भारतीय परंपरागत गुरुकुलों की विशेषता यह थी कि ब्रह्मचर्य जीवन में जब बच्चे पूर्णतया विद्या प्राप्त करके स्नातक बनकर युवाओं के रूप में गुरुकुल छोड़ने के पश्चात समाज में आगमन करते थे तब वे समाज की दृष्टि में सच्चे ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर तथा कर्मवीर होते थे l लोग उनका हार्दिक सम्मान करते थे l परन्तु पराधीनता से मुक्ति पाने के पश्चात् भी भारतवर्ष में आज हर युवा अव्यवस्था के दंश से दुखी, अपनी इच्छा का कार्य, कार्य क्षेत्र न मिल पाने के कारण असहाय सा अनुभव कर रहा है l
    यह हम सबका दुर्भाग्य ही है कि भारत में परंपरागत गुरुकुल नहीं हैं l वर्तमान शिक्षा के निम्न स्तर तथा शिक्षा व्यवस्था का तेजी से व्यपारीकरण एवंम राजनीतिकरण होने से बच्चों को माँ-बाप से मिलने वाले संस्कारों को कहीं संरक्षण नहीं मिल रहा है l घर पर बच्चों को अच्छे संस्कार तो मिल जाते हैं पर उनका पालन-पोषण करने वाली परंपरागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा व्यवस्था आज कहीं दिखती नहीं है l पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था और उसके अधीनस्थ कार्य करने वाले समस्त छोटे तथा बड़े असमर्थ विद्यालय, विद्यालय केन्द्रों से युवा वर्ग दशा और दिशा दोनों से भ्रमित हो रहा है l उसका भविष्य अंधकारमय हो गया है l फिर भी वह अपना हित चाहता है पर उसकी श्रेष्ठता किसमें है ? यहाँ हमें इस बात का विश्लेषण करके देखना अति आवश्यक है l
    हम लोगों में कुछ लोग मात्र अपना ही भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं l कुछ लोग अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं l जो लोग मात्र अपना भला चाहते हैं, अपने रिश्तेदारों का भला चाहते हैं, अपना और कुछ लोगों का भला चाहते हैं, उनमें निज स्वार्थ भी दिखाई देता है l वे कभी सबका भला होता हुआ नहीं देख सकते l मगर हममें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सब लोगों का भला चाहते हैं l इसमें उनका अपना कोई भी हित नहीं दिखता l वे दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं, चाहते हैं l इसलिए सबका भला करने वाले लोग सन्यासी, सर्व श्रेष्ठ लोग होते हैं l
    मन के विकार और इच्छाएं बड़ी प्रबल होती हैं l वानप्रस्थ जीवन में उनका अपने विवेक द्वारा सयंमन करने और उनके प्रति हर समय जागरूक रहने की निरंतर आवश्यकता रहती है l वैसे तो हर व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है पर स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि प्रभावशाली होने पर भी मर्यादाओं का उल्लंघन किया जाये या हर किसी को उसकी मनमर्जी करने की छूट हो, बल्कि स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के द्वारा उन मर्यादाओं की पालना करने के साथ-साथ समाजिक दायित्वों का भी भली प्रकार निर्वहन हो l समर्थवान बनने के लिए हर व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करके, उसका कृपा-पात्र बन सकता है l
    वह प्रार्थना कर सकता है – हे ईश्वर ! हमारे मन में सुसंगत करने का साहस उत्पन्न हो l कुसंगत से हमारी निरंतर दूरी बनी रहे l सुसंगत हमारे मन में शुद्ध भावना पैदा करे l शुद्ध भावना से हमारी हर दुर्बलता, दुर्भावना का नाश हो l शुद्ध भावना से हमारे मन में शुद्ध विचारों की वृद्धि हो l भूलकर भी हमारे मन कोई कुविचार न आये l शुद्ध विचार हमारे सत्कर्मों की सदा वृद्धि करें l आपका हमें कभी विस्मरण न हो l हमसे कभी कोई दुराचार न हो l सत्कर्मों से हमारा सदैव आत्मोत्थान हो l हमारा कभी आत्म-पतन न हो l आप हमें सदा आत्मोन्मुख बनाये रखें l आपकी कृपा से हम सदैव दूसरों की भलाई करने हेतु निमित मात्र बने रहें l यह मनोकामना हम सबकी पूर्ण हो l
    सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत परंपरागत सन्यासी और शासक, जन प्रतिनिधि, राजनेता का जीवन एक ही समान होता है, भारत में पहले ऐसा होता था और अब भी है l उनका कार्य, कार्य क्षेत्र अलग-अलग होने पर भी उनकी रचनात्मक एवंम सकारात्मक सोच एक ही समान रहती है l वास्तविक सन्यासी ज्ञानी, भक्त और वैरागी होता है l वह सदैव दूसरों का मार्गदर्शन करता है l यही कारण था कि भारत विश्व गुरु बना l
    सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाये नीति के अंतर्गत सबका एक समान विकास करना, विकास किया जाना सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों का दायित्व है l आज देशहित में आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को माँ-बाप के द्वारा मिलने वाले शिक्षा संस्कारों का समस्त विद्यालयों में भली प्रकार पालन-पोषण हो, संरक्षण हो l यह कार्य वहां तभी साकार हो सकता है जब भारत सरकार और देश की राज्य सरकारें आपस में परंपरागत गुरुकुलों की भाँती कोई एक ठोस राष्ट्रीय शिक्षा-नीति की घोषणा करके उसे व्यवहारिकता प्रदान करें l इससे भारतवर्ष विश्व मानचित्र पर पुनः अखंड महाभारत एवंम विश्व गुरु बन सकता है l इसके बिना न तो भारतवर्ष का हित है और न ही किसी देशवासी का

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    जय भारत देश महान

    आलेख - राष्ट्रीय भावना दैनिक जागरण 18 अगस्त 2007 
    वह भारत का स्वर्णयुग ही था जब देश का कोई भी नौजवान अपने बल, साहस, सुझबुझ और विद्या-ज्ञान आदि गुणों से सदैव परिपूर्ण रहता था l इसी कारण वह स्थानीय क्षेत्र से बढ़कर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और समस्त विश्व स्तर पर भी पहुँच जाता था l वहां वह अपनी अद्भुत प्रतिभा और अपार प्रभावी क्षमताओं के कारण जाना-पहचाना जाता था l 

    उसका अपेक्षित संकल्प पूजनीय माता-पिता व् गुरु को कभी शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट पहुँचाने वाला नहीं होता था l उसकी अपनी कोई भी स्वार्थपूर्ण भावना प्यारे बहन भाई को बलात पीड़ा अथवा क्षति पहुँचाने वाली नहीं होती थी l उसका कोई भी विचार किसी व्यक्ति, जाति, वंश, मत, पंथ, सम्प्रदाय का ही नहीं बल्कि किसी भाषा, स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र के लिए भी कल्याणकारी होता था l वह सदैव वाद-विवाद से ऊँचा उठकर स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता बनाये रखने में सहायक होता था l उसकी वाणी से कदाचित दूसरों का मन आहत और व्यथित नहीं होता था l वह किसी की उन्नति से घृणा, अथवा द्वेष नहीं करता था बल्कि उससे प्रेरणा और सहयोग लेकर अपने सन्मार्ग पर आगे बढ़ने का निरंतर प्रयास किया करता था l उसका अपना हर आचार-व्यवहार सर्व सुख-शांति प्रदाता होता था l वह वन सम्पदा, समस्त जीव जंतुओं और प्राकृतिक सौन्दर्य से भी उतना ही अधिक प्रेम किया करता था जितना कि अपने परिवार से l उसके दोनों हाथ सदैव किसी असहाय, पीड़ित, अपाहिज, बाल, वृद्ध रोगी, नर-नारी की निस्वार्थ सेवा सुश्रुसा और सहायता हेतु हर समय तत्पर रहते थे l उसका आहार सदैव बलवर्धक और पौष्टिकता से भरपूर रहता था l उसके पराक्रमी साहस के समक्ष स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र विरोधी तत्व भूलकर भी कोई अपराध करने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे l इसी कारण स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में सब ओर सुख-शांति और समृद्धि होने से भारत विश्व में सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ था l


    आइये ! हम सब मिलकर आज कुछ ऐसा कर दिखाएँ कि जिससे भारत को उसका पुरातन खोया हुआ हुआ गौरव फिर से प्राप्त हो सके और विश्वभर में ये प्यारा संगीत सदा अनवरत, अविरल चहुँ ओर गूंजता रहे ---- “जय भारत देश महान , ऊँची तेरी शान----- ऊँची तेरी शान l”

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    क्या स्वराज ही लोकराज की इकाई है ?

    आलेख - स्वराज  कश्मीर टाइम्स  8.11.1996

    जब कभी हम एकाकी जीवन में निराशा अनुभव करते हैं तब उस समय हमारी ऐसी भी भावना पैदा हो जाती है कि चलो कहीं किसी सज्जन के पास हो आयें या कहीं किसी रमणीय स्थल पर घूम आयें l यही नहीं हम थोड़ी देर पश्चात् वहां चल भी देते हैं l ऐसा क्यों होता है ? यहाँ पहले हम इसी बात पर विचार करेंगे l

    जब हम अपने घर से बाहर निकलते हैं तो उससे कुछ समय पूर्व जहाँ हमने जाना होता है, उस स्थान का दृश्य हमारे मानस पटल पर उभरता है l


    वह कोई गाँव होता है या शहर, व्यक्ति होता है या जन सभा l सिनेमा घर होता है या कोई अन्य स्थान l उसका हमारे साथ अपना कोई पुराना संबंध होता है या हमने उससे नया ही संबंध बनाना होता है l वह हमारा पुराना संबंध हो या नया, पुराने के साथ पुरातन और नये साथ नवीनतम संबंध के आकर्षण का ही समावेश होता है l भावना के अनुसार किसी वाधा के कारण जब कभी ऐसा न हो सके तो हमें अशांति का ही मुंह देखना पड़ता है l


    जब हममें से कोई व्यक्ति किसी दूरस्थ महानुभाव से मिलता है तो वह उससे उसकी दो बातें सुनता है जबकि अपनी चार सुनाता भी है l ऐसा मात्र ख़ुशी के समय में या विचार विमर्श के समय में ज्ञान के आधार पर होता है l परन्तु जब वहां रोगी होता है तो उस समय आगंतुक अपनी कोई बात न करके मात्र रोगी की द्वा-दारु, सेवा-श्रुषा या उसके स्वास्थ्य से संबंधित बातें करता है l इस प्रकार किन्हीं दो प्रेमियों में उनका प्रेम ही नहीं बनता है बल्कि बढ़ता भी है l वह एक दुसरे से बात कह, सुनकर अपना दुःख-सुख आपस में बाँट लेते हैं l


    नेता के रूप में जब कभी हम में से किसी व्यक्ति को किसी जन सभा में बोलने का सुअवसर मिलता है तो वह तब तक बोलता है जब तक सुनने वालों का झुकाव उसके भाषण की ओर रहता है l वह भाषण का आनंद लेते हैं l सिनेमा या रमणीय स्थलों को देखने वाला कोई भी प्रेमी महानुभाव तो उसे देखता ही रहता है l जब वह उन्हें देखकर लौटता है तब राह में या उसके घर में मिलने वालों के साथ वह अपनी पसंद के दृश्यों के बारे में बातें करता है कि उसे वहां क्या अच्छा लगा और क्यों ? तब उसे मिलने वाले उसकी बात का अनुमोदन करते हैं या कोई तर्क देकर ही उसे समझाते हैं l


    बाढ़, सुखा, आकाल, अग्निकांड, भूकंप जैसे दुखद समय में आस-पड़ोस, गाँव, शहर और राष्ट्र की यही एक भावना होती है कि किसी तरह पीड़ा ग्रस्त लोगों का दुःख दूर हो l वे यथा शक्ति तन, मन से धन, विस्तर, वस्त्र का दान देकर उनकी सहायता करते हैं l


    युद्ध काल में किसी राष्ट्र, समाज के हर व्यक्ति की यही एक भावना होती है कि किसी तरह शत्रु पक्ष हार जाये और उसके अपने ही पक्ष की जीत हो l


    विश्व में हर महानुभाव का मन उसका अपना मन होता है l इस कारण विभिन्न मन के स्वामियों की आपनी-अपनी आस्थायें होती हैं l वह आस्थायें सुख के समय भले ही अलग-अलग हों पर दुःख के समय पर वे सब एक समान हो जाती हैं l उस समय ऐसा भी लगने लगता है मानों चारों ओर से ऐसा सुनाई दे रहा हो कि हमें इसी समानता को सदैव स्थिर बनाये रखना है l इसलिए कि हम किसी का दुःख बाँट सकें l दुखिया भी दुःख से राहत अनुभव कर सके l दुखियों तक सुख-सुविधाएँ पहुँच सकें l वे भी सुख का आनंद ले सकें l वे यह जान सकें कि उन्हें दुखी ही नहीं रहना है, वह भी सुखी हो सकते हैं l यह सत्य है कि अगर हम ऐसा कुछ करते हैं तो हमें अपने राष्ट्र, समाज और परिवार का सदस्य कहलाने का अधिकार स्वयं ही प्राप्त हो जाता है l


    मन के अधीन रहना हर मानव का अपना स्वभाव है l मन का स्वामी बनने के लिए उसे अभ्यास या वैराग्य की शरण लेनी होती है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है l अपनी पवित्र भावना, सद्गुण और संस्कारों के विपरीत अन्य कार्य किया जाना उचित नहीं है l इसी बात को ध्यान में रखकर जिन-जिन महानुभावों के द्वारा पवित्र लोकतंत्र की कल्पना और उसकी पुनर्स्थापना की गई है, उसका संबंध स्वराज ही से है जिसका नियंत्रण अंतरात्मा से होता है l


    स्वराज्य का अर्थ है – अपने शरीर पर अपना राज्य l यह कार्य अपनी सजगता, सतर्कता, तत्परता और अपनी सुव्यवस्था द्वारा संचालित होता है l स्व तथा राज्य इन दोनों शब्दों के आपसी मेल से तो अर्थ स्पष्ट है ही पर इसे यहाँ और स्पष्ट करने की नितांत आवश्यकता है l


    बुद्धि के द्वारा मन को अपनी दस इन्द्रियों के विषयों से बचाना जिनसे कि मन अपने पांच अश्व रूपी विकारों पर चढ़कर पल-पल में पथ-भ्रष्ट होता रहता है, बुद्धि को भी भ्रमित कर देता है – इन्द्रिय दमन कहलाता है यह क्रिया मन को इन्द्रियों के विषयों में भागीदार न बनाने से होती है l बुद्धि द्वारा मन की बहुत सी इच्छाओं पर नियंत्रण करके या उनका त्याग करके किसी एक अति बलशाली इच्छा को ही पूर्ण करने का योगाभ्यास करने से मनोनिग्रह होता है l इससे मन की भटकन समाप्त होती है l उसे कोई एक कार्य करने के लिए असीमित बल मिल जाता है जिसमें वह मग्न रहता है और उसे सफलता भी मिलती है l


    अंत में हमें अपनी बुद्धि का भी जो कभी-कभी मन के विकारों में फंसकर चंचल हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ बनाये रखने के लिए अपनी आत्मा का ही सहारा लेना चाहिए l उसे आत्म-चिंतन के रूप में मग्न रखना आवश्यक है l अन्यथा विषयों और विकारों का बुद्धि द्वारा चिंतन होने से स्वराज्य या आत्मा का अपना प्रशासन भ्रष्ट होने लगता है l उसकी सुव्यवस्था और सुरक्षा के लिए स्थिर बुद्धि ही की आवश्यकता पड़ती है l हमें अपनी बुद्धि को स्थिर बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए l इसके लिए हमें सत्संग अर्थात जो सत्य है – उसकी संगत करना अनिवार्य है l सत्संग करने से सत्य की भावना, सत्य की भावना से सत्य विचार, सत्य विचारों से सत्कर्म और सत्कर्मों से निकलने वाला परिणाम भी सत्य ही होता है l इससे नैतिक शक्ति को बल मिलता है l


    वर्तमान काल में स्वराज्य के साथ – साथ लोकराज को भी जोड़ दिया गया है अर्थात आत्म सयंम द्वारा संचालित समाज की भलाई l स्वराज्य में कोई भी व्यक्ति स्वयं का निर्माता, पालक और संहारक भी होता है l उसे अपने लिए करना क्या है ? यह निर्णय पर पाना उसकी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है l लोकराज तो बहुत लोगों का जनसमूह है जिसमें विभिन्न अंतरात्माओं के द्वारा सर्वसम्मत भिन्न-भिन्न कार्य करने की व्यवस्था होती है जो मात्र स्वतन्त्रता पर आधारित होती है l


    अगर कभी किसी प्रकार की कोई त्रुटि लोकराज्य में आ जाती है तो हमें स्वराज्य ही का निरीक्षण करना चाहिए l अगर स्वराज्य दोषपूर्ण है तो लोकराज में दोष का आना स्वभाविक ही है l लोकतंत्र को दोषमुक्त बनाये रखने के लिए स्वराज्य या आत्म नियंत्रित प्रशासन व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखना आवश्यक है l ऐसा किये बिना न तो स्वराज्य और न ही लोकतंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित रह सकती है l भ्रष्टाचार फ़ैलने और अव्यवस्था होने का मात्र यही एक कारण है l यह सब व्यक्ति और समाज की व्यवहारिक बातें हैं जिनका उन्हें ध्यान रखना अनिवार्य है l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    जागेगा स्वाभिमान जमाना देखेगा

    आलेख – राष्ट्रीय भावना मातृवंदना जनवरी 2018 
    प्राचीन काल से ही हमारा देश एक अध्यात्म प्रिय देश रहा है भारत के ऋषि-मुनियों का संपूर्ण जीवन ज्ञान-विज्ञान अनुसन्धान एवंम शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य में व्यतीत हुआ है उन्होंने सनातन संस्कृति में मानव जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास जीवन चार श्रेणियों में विभक्त किया था l वे संपूर्ण मानव जाति के कल्याणार्थ व्यक्तिगत ध्यानस्थ होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं – “हे प्रभु ! तू मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल l अँधेरे से उजाले की ओर ले चल l मृत्यु से अमरता की ओर ले चल l” उनका मानना है कि “आत्म सुधार करने से मानव जाति का सुधार होता है l” जीवन सब जीते हैं  पर जीवन जीना इतना सरल नहीं, जितना कि कहना l वह हर पल कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से घिरा रहता है l   
    मात्र विवेकशील मनुष्य समय और परिस्थिति अनुसार बुद्धि से निर्णय लेते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं की संसार में जीवन नश्वर है l सुख-दुःख बादल समान हैं, वे आते हैं तो चले भी जाते हैं l वह जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कुछ नया करना चाहते हैं, जबकि अन्य मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से बचने के लिए सरल एवंम लघु मार्ग ढूंढ़ते हैं l इस प्रकार दोनों की सोच दूसरे के विपरीत हो जाती है l मानव जीवन में फुलों भरा सरल एवंम लघु मार्ग ढूँढने वाले लोग मात्र मन की बात मानते हैं l वे उसी पर चलते हैं l वे नैतिकता और मानवता की तनिक भी प्रवाह नहीं करते हैं l
    ऐसे लोगों के द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्रों के पाठ्यक्रमों में देश का इतिहास, वास्तविक इतिहास नहीं होता है l उसमें सच्ची घटनाओं का सदैव अभाव रहता है l समाज परंपरागत सभ्यता एवंम संस्कृति से कटता जाता है और वह धीरे-धीरे उसे भूल भी जाता है l वे सत्ता पाने के लिए नैतिकता के साथ-साथ मानवता को भी ताक पर रख देते हैं, वे व्यक्ति विशेष, परिवार-वंश की महिमा मंडित करते कभी थकते नहीं हैं l वे क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म-संप्रदाय वाद को बढ़ावा देते हैं l इससे देश की एकता एवंम अखंडता कमजोर होती है l अपने हित के लिए दंगे करवाए जाते हैं l विवेकशील मनुष्य नैतिकता, मानवता और मान-मर्यादाओं को पसंद करते हैं l स्मरण रहे ! कि ऐसे ही लोगों के प्रयासों से हमारा भारत अखंड भारत “सोने की चिड़िया” बना था l वे निजी जीवन में जनहित, समाजहित और राष्ट्रहित में कष्ट, दुःख, कठिनाइयों और चुनौतियों से सीधा सामना करने की विभिन्न प्रतिज्ञाएँ करते हैं, वह विपरीत परिस्थितयों से लोहा लेने के लिए हर समय तैयार रहते हैं l उनके लिए सबका हित सर्वोपरी होता है l
    उनके द्वारा संचालित विद्या केन्द्रों से बच्चों को अच्छी, संस्कारित, गुणात्मक एवंम उच्चस्तरीय शिक्षा मिलती है l उससे उनका चहुंमुखी विकास होता है l उनके प्रशासन की नीतियां सर्व कल्याणकारी होती हैं l उपरोक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि समस्त मानव जाति के पास जीवन यापन करने के सरल या कठिन मात्र दो ही मार्ग होते हैं l एक मार्ग उसे पतन – असत्य, अन्धकार और दुःख-मृत्यु की ओर ले जाता है तो दूसरा उत्थान – सत्य, प्रकाश और सुख-अमरता की ओर l हमें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ? उसे हमारे लिए जानना और समझना अति आवश्यक है l


    चेतन कौशल "नूरपुरी"



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    सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व

    आलेख - मानव जीवन दर्शन कश्मीर टाइम्स 5 मई 1996 
    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l 
    बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता है l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
    युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
    प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
    समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
    लोक शक्ति का मूल आधार,
    जन-जन के उच्च गुण संस्कार l
    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्र में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं - ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?


    चेतन कौशल “नूरपुरी”