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  • समृद्ध भारत और उसकी गरिमा
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    समृद्ध भारत और उसकी गरिमा

    विश्व  में  भारत आर्यवर्त के नाम से जाना जाता था। उसे समृद्धि के उच्चासन पर सुशोभित  करने का श्रेय देश  के उन वीर व वीरांगनाओं को जाता है जो भारत के इतिहास में नक्षत्रों की भांति दीप्यमान हैं। उन्होंने अपने समस्त सुखभोगों का परहित के लिए त्याग कर दिया था। उन्हें राष्ट्र, समाज और जन हित के कार्य अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रिय थे। अधर्म, अज्ञानता, अकर्मण्यता, अन्याय और शोषण  उनके शत्रु थे। इन सबको सफलतापूर्वक परास्त करने हेतु उनके पास धर्म परायणता, ज्ञाननिष्ठा, कला-कौशल, शौर्यता  एवं पराक्रम जैसे अचूक संसाधन भी उपलब्ध थे। इनका उन्होंने अपनी क्षमता, आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर उचित प्रयोग करके कई बार नई सफलताएं अर्जित की थीं। उनकी प्रत्येक सफलता के पीछे जिस महान प्रेरक शक्ति का योगदान रहा है, वह शक्ति थी – उनके उच्च संस्कार जो उन्हें मिलते थे – पूर्व जन्म से, परिवार से, समाज से और गुरुकुल शिक्षा से। भारत में ऐसी व्यवस्था व्यवस्थित थी।
    संत-महापुरुषों  का कथन है कि जीवन में किसी बड़े उद्देश्य  की प्राप्ति के लिए मानव जीवन छोटा होने के कारण वह सदैव बड़ी-बड़ी चुनौतियों से घिरा रहता है। मृत्यु होने के पश्चात्य  पुनर्जन्म होने पर मनुष्य  उस कार्य को वहीं से आरम्भ करता है जहां पर उसने उसे पूर्व जन्म में अधूरा छोड़ा होता है। अथवा मृत्यु के समय उसका जिस कार्य में ध्यान रह जाता है। इस प्रकार उस प्राणी के जन्म-मृत्यु का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक वह उस कार्य को अपनी ओर से सम्पन्न नहीं कर लेता है।
    परिवार में बड़ों के द्वारा बच्चे को जैसी शिक्षा मिलती है, वे उसके सामने जैसा आचरण करते हैं, बच्चा उन्हें जैसा आचरण करते हुए देखता है, वह उनका वैसा ही अनुसरण करता है। भले ही आरम्भ में बच्चे को अच्छे या बुरे कार्य का ज्ञान न हो पर उनका प्रभाव संस्कारों के रूप में उसके मन और मस्तिष्क  पर अवश्य  पड़ता है। विकसित अच्छे संस्कार उसके जीवन का उत्थान करते हैं जबकि बुरे संस्कार अवनति के गहन गर्त में धकेल देते हैं। इसलिए शिक्षक माता-पिता और गुरु को शास्त्र-नीति सावधान करते हुए कहती है कि बच्चों को अच्छी शिक्षा दो। उनके सामने अच्छा आचरण करो और स्वयं को सर्वदा बुरे आचरण से बचाओ। अन्यथा बच्चों पर दुष्प्रभाव  पड़ेगा और उनका भविष्य  अंधकारमय हो जाएगा। यह आपका दायित्व है।
    शास्त्र -नीति आगे कहती है कि परिवार की भान्ति समाज भी बच्चों के जीवन का उत्थान और पतन करने में सहायक होता है। यह बात उस समाज की संगति पर निर्भर करती है कि वह कितनी सुसंस्कृत  और सभ्य है? एक सभ्य एवं सदाचारी समाज की संगति से बच्चे के जीवन का विकास होता है जबकि दुराचारी और असभ्य समाज की संगति उसे पथ-भ्रष्ट  कर देती है।
    भारत के गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक , संवर्धक होने के साथ-साथ कार्यशालाओं  के रूप में नव जीवन निर्माता भी थे। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय कला-सस्ंकृति न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उससे जनित उसकी समृद्धि की महक विदेशों  तक भी पहुंची थी। यहां के किसी गुरुकुल से कोई भी विद्यार्थी जब पूर्ण विद्या प्राप्त करके या स्नातक युवा होकर प्रस्थान करता था तो वह उस गुरुकुल की यह प्रेरणा भी अपने साथ लेकर जाता था कि उसका व्यक्तित्व संस्कारित  है और सार्वजनिक जीवन की नींव का ठोस पत्थर भी। वह नवयुवक अपने जीवन मेें कभी ऐसा कोई भी कार्य नहीं करेगा जिससे किसी को किसी प्रकार का कोई कष्ट  हो। वह वह सदैव देश  और समाज का हित चाहने, देखने, सुनने, बोलने और कार्य करने वाला है। वह अपने दिव्यपथ से कभी विचलित नहीं होगा, भले ही उसके मार्ग में लाखों बाधाएं आएं। वह हर समय, हर स्थान पर, हर परिस्थिति में और हर संकट से दो-दो हाथ करने में समर्थ होने के कारण उनसे लोहा लेने हेतु सदैव तैयार रहेगा। यह उसका कर्तव्य है।
    सोने की चिड़िया भारत वर्ष  को अति निकटता से निहारने, समझने और उससे अपने विभिन्न उद्द्रेश्यों  की पूर्ति के लिए विदेशी  लोग भारत आए और उचित समय पाकर उसके शासक भी बनें। उनमें मुट्ठी भर गोरे अंगे्रजों ने ब्रिटिश  साम्राज्य का विस्तार करने हेतु भारत में फूट डालो, राज करो नीति का अनुसरण किया और जी भर कर आतंक फैलाया।
    आईये! हम सब संगठित होकर भारतीय सस्ंकृति की रक्षा-सुरक्षा और उसके पोशण के लिए गुरुकुलों के नैतिक मूल्यों की पुर्नस्थापना करने का दृढ़ संकल्प लें। उनके लिए धरती उपलब्ध करवाएं ताकि बच्चों को चरित्रवान बनाया जा सके। भारत को फिर से नई पहचान और उसकी अपनी उपेक्षित गरिमा प्राप्त हो सके।
    दिसम्बर 2010
    मातृन्दना

  • मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा-प्रणाली
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    मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा-प्रणाली

    हिमाचल की मासिक पत्रिका मातृवंदना अगस्त 2010 में पृष्ठ संख्या 19 पर प्रकाशित लेख “मैकाले की सोच-1835 ई0 में” के अनुसार यह एक वास्तविक लेख है। इसकी प्रति मद्रास हाईकोर्ट के अभिलेखों से प्राप्त हुई है। ब्रिटिश पार्लियामेंट के रिकाॅर्ड में सुरक्षित है। लाॅर्ड मैकाले को भारत में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लाॅर्ड विलियम वेंटिंग की कौंसिल का सदस्य नामजद कर भारत भेजा गया था। अपने भारत-भ्रमण के अनुभवों एवं अध्ययन के पश्चात उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह रिपोर्ट भेजी थी-
    “मैने पूरे भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है पर मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला, जो चोर हो। ऐसे धनी देश के अपने ऊँचे सामाजिक मूल्य हैं। यहां लोगों के पास बड़ी दृढ़ शक्ति है। इस देश को हम कभी जीतने की सोच भी नहीं सकते। हम इसे तब तक नहीं जीत सकते, जब तक हम विरासत इस देश की रीढ, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक को नहीं तोड़ देते। इसलिए मै इसकी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा पद्धति को हटाने का सुझाव देता हूंँ। जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशि चीजें और अंग्रेजी भाषा अपने से अच्छी हैं, तब वे अपना आत्मसम्मान और अपनी संस्कृति को खो देंगे। उसे भूल जाएंगे और तब वे वैसे बन जाएंगे जैसा अधिपत्य राष्ट्र हम चाहते हैं।
    यह उसका एक ऐसा सुझाव था जो आगे चल कर भारतीय सभ्यता- सास्कृति, धर्म-संस्कार और परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के लिए महाघातक सिद्ध हुआ। मैकाले के उपरोक्त सुझाव के आधार पर अंग्रेजों ने सन् 1840 ई0 में कानून बनाकर भारत की जनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को हटा दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवं साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान, कर्मनिष्ठां, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में उसकी रीढ़ थी। उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजीभाषी शिक्षा-प्रणाली लागू की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यन्त कारगर सिद्ध हुई।
    स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सत्तासीन राजनेताओं को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने सशक्त भारत का निर्माण करना है और इसके लिए उन्हें जनप्रिय स्थानीय भाषा , हिंदी, अथवा संस्कृत के आधार पर गुरुकुलों की भी स्थापना करनी है। देखने में आ रहा है कि निहित स्वार्थ में डूबे हुए, देश को भीतर ही भीतर खोखला एवं खण्ड-खण्ड करने के कार्य में सक्रिय अमुक देशद्रोही, अंग्रेजी पिट्ठू प्रशासकों के द्वारा देश के गांव-गांव और शहर-शहर में मात्र मैकाले की सोच के आधार पर अंगे्रजीभाषी पाठशालाएँ, विद्यालय एवं महाविद्यालय ही खोले जा रहे हैं। उनके द्वारा राष्ट्रीय जनहित-अहित का विचार किए बिना उन्हें धड़ाधड़ सरकारी मान्यताएँ भी दी जा रही हैं । जबकि वे न कभी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अनुकूल रहे और न कभी हुए। उनमें गुरुकुलों जैसी कहीं कोई गरिमा भी नहीं दिखाई देती।
    युगों से सोने की चिड़िया – भारत की पहचान बनाए रखने में समर्थ रह चुके गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक, संवर्द्धक होने के साथ-साथ मानव जीवन की कार्यशालाओं के रूप में छात्र-छात्राओं एवं साधकों के नव जीवन निर्माता भी थे। नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म-संस्कार और शिक्षा न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उनसे जनित उसकी सुख-समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी। इस बात को कौन नहीं जानता है कि आतंक फैला कर आपार धन-संपदा लूटना, भारतीय सभ्यता-संस्कृति नष्ट करना और फूट डालकर सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य स्थापित करना ही अक्रांता ईस्ट-इंडिया कम्पनी का मूल उद्देश्य था।
    आज भारतीय राजनीतिज्ञ भारतीय संस्कृति की सुगन्ध की कामना तो करते हैं पर उनके पास उसकी जननी गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली उपलब्ध नहीं है। इसलिए हम सब जागरूक अभिभावकों, गुरुजनों, प्रशासकों और राजनेताओं को एक मंच पर एकत्र होकर होनहार बच्चों, छात्र-छात्राओं एवं साधकों के संग अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर जनोपयोगी एवं परंपरागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की पुनस्र्थापना करके उसे अपने जीवन में समझना और जांचना होगा क्योंकि बच्चों और शिक्षार्थियों के जीवन का नव निर्माण राजनीति, भाषण या उससे जुड़े ऐसे किसी अंदोलन से कभी नहीं हुआ है और न हो ही सकता है बल्कि एक सशक्त शिक्षा-प्रणाली के द्वारा ज्ञानार्जित करने से ही ऐसा होता रहा है और आगे होगा भी। इसकी पूर्ति करने में भारतीय परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली पूर्णत्या सक्षम और समर्थ रही है। इसका भारतीय इतिहास साक्षी है जिसे पढ़ कर जाना जा सकता है।
    अगर मैकाले सन् 1840 ई0 में अपने संकल्प से भारत में परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली समाप्त करवा कर अंगे्रजी शिक्षा-प्रणाली जारी करवा सकता था तो हम भी सब मिलकर राष्ट्रीय जनहित न्यायालय तक अपनी संयुक्त आवाज पहुंचा सकते हैं। वहां से अध्यादेश पारित करवा कर भारतीय आशाओं के विपरीत अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली को निरस्त करवा सकते हैं। क्या हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हम उसके स्थान पर फिर से भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को लागू करवा सकें? अतीत में हम सब सार्वजनिक रूप से सुसंगठित और जागरूक रहे हैं – अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे। विश्व में कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती। ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
    आइए! हम सब मिलकर प्रण करें और इस पुनीत कार्य को सफल करने का प्रयास करें। यह तो सत्य है कि बबूल के बीज से कभी आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती। हम पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के बल पर भारत के पुरातन गौरव एवं सुख-समृद्धि की मनोकामना कैसे कर सकते हैं?……
    अगस्त 2010 मातृवंदना

  • मानवी उर्जा – ब्रह्मचर्य
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    मानवी उर्जा – ब्रह्मचर्य

    विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है। इस काल में विद्यार्थी गुरु जी के सान्निध्य में रह कर समस्त विद्याओं का सृजन, संवर्धन और संरक्षण करके स्वयं अपार शक्तियों का स्वामी बनता है। सफल विद्यार्थी बनने के लिए विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य या मानवी उर्जा का महत्व समझना अति अवष्यक है। ब्रह्मचर्य के गुण विद्यार्थी को सदैव ऊध्र्वगति प्रदान करते हैं।
    1- ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इंद्रियों का संयम।
    2- ब्रह्मचर्य बुद्धि का प्रकाश  है।
    3- ब्रह्मचर्य नैतिक जीवन की नींव है।
    4- सफलता की पहली शर्त है – ब्रह्मचर्य।
    5- चारों वेदों में ब्रह्मचर्य जीवन ही श्रेष्ठ  जीवन है।
    6- ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण सौभाग्य का कारण है।
    7- ब्रह्मचर्य व्रत आध्यात्मिक उन्नति का पहला कदम है।
    8- ब्रह्मचर्य मानव कल्याण एवं उन्नति का दिव्य पथ है।
    9- अच्छे चरित्र का निर्माण करने में ब्रह्मचर्य का मौलिक स्थान है।
    10- ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण शक्तियों का भंडार है।
    11- ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ  ज्ञान है।
    12- ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ धर्म है।
    13- सभी साधनों का साधन ब्रह्मचर्य है।
    14- ब्रह्मचर्य मन की नियन्त्रित अवस्था है।
    15- ब्रह्मचर्य योग के उच्च शिखर पर पहुंचाने की सर्व श्रेष्ठ सोपान है।
    16- ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन का ठोस आधार है।
    17- गृहस्थ जीवन में ऋतु के अनुकूल सहवास करना भी ब्रह्मचर्य है।
    ब्रह्मचर्य से मानव जीवन आनन्दमय हो जाता है।
    1- प्राणायाम से मन, इंद्रियां पवित्र एवं स्थिर रहती हैं।
    2- ब्रह्मचर्य से अपार शक्ति प्राप्त होती है।
    3- ब्रह्मचर्य से हमारा आज सुधरता है।
    4- ब्रह्मचर्य में शरीर, मन व आत्मा का संरक्षण होता है।
    5- ब्रह्मचर्य से बुद्धि सात्विक बनती है।
    6- ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्म स्वरूप में स्थिति हो जाती है।
    7- ब्रह्मचर्य से आयु, तेज, बुद्धि व यश  मिलता है।
    8- ब्रह्मचारी का शरीर आत्मिक प्रकाश  से स्वतः दीप्तमान रहता है।
    9- ब्रह्मचारी अजीवन निरोग एवं आनन्दित रहता है।
    10- ब्रह्मचारी स्वभाव से सन्यासी होता है।
    11- ब्रह्मचारी अपनी संचित मानवी उर्जा – ब्रह्मचर्य को जन सेवा एवं जग भलाई के कार्यों में लगाता है।
    दोष  सदैव अधोगति प्रदान करते हैं इसलिए ब्रह्मचारी की उनसे सावधान रहने में ही अपनी भलाई है।
    1- दुर्बल चरित्र वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्य पालन में कभी सफल नहीं होता है।
    2- मनोविकार ब्रह्मचर्य को खण्डित करता है।
    3- आलसी व्यक्ति कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता।
    4- अति मैथुन शारीरिक शक्ति नष्ट  कर देेता है।
    5- काम से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से बुद्धि भ्रमित होती है।
    6- काम मनुष्य  को रोगी, मन को चंचल तथा विवेक को शून्य बनाता है।
    7- वीर्यनाश  घोर दुर्दशा  का कारण बनता है।
    8- देहाभिमानी ही कामी होता है।
    9- काम विकार का मूल है।
    10- ब्रह्मचर्य के बिना आत्मानुभूति कदापि नहीं होती है।
    11- काम विचार से मस्तिष्क  पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
    12- काम वासना के मस्त हाथी को मात्र बुद्धि के अंकुश  से नियन्त्रित किया जा सकता है।
    13- काम, क्रोध, लोभ नरक के द्वार हैं।
    जनवरी 2010
    मतृवन्दना

  • विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति
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    विश्व दर्पण में भारतीय संस्कृति

    Paragraph

    प्राचीन भारतवर्ष  विश्व  मानचित्र पर आर्यावर्त देश रहा है। आर्य वेदों को मानते थे। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते थे। वेद जो देव वाणी पर आधारित हैं, उन्हें ऋषि  मुनियों द्वारा श्रव्य एवं लिपिबद्ध किया हुआ माना जाता है। वेदों में ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद प्रमुख हैं । वे सब सनातन हैं वेद पुरातन होते हुए भी सदैव नवीन हैं उनमें परिवर्तन नहीं होता है। वे कभी पुराने नहीं होते हैं।
    समय परिवर्तनशील है जिसके साथ-साथ नश्वर  संसार की हर वस्तु बदल जाती है। नहीं बदलता है तो वह मात्र सत्य है। सत्य सनातन है। वेद सत्य पर आधारित होने के कारण सदा नवीन, अपरिवर्तनशील और सनातन हैं। वेदों  के अनुगामी और हमारे पूर्वज आर्य सत्यप्रिय, कर्मनिष्ठ , धार्मिक और शूरवीर थे। सत्यप्रियता, कर्मनिष्ठा , धार्मिकता और शूरवीरता ही वेदों का आधार है, उनका सार है। यही हमारी पुरातन संस्कृति तथा आध्यात्कि धरोहर है जिसे विश्व  ने माना है।
    सत्य ही ब्रह्म है, वह ब्रह्म जिसका किसी के द्वारा कभी कोई विघटन नहीं किया जा सकता। वह सदैव अबेध्य, अकाटय और अखंडित है। ब्रह्म-ज्ञान और विषयक तात्विक ज्ञान प्राप्त करना ही विवेकशील पुरुष  का परम कर्तव्य है जो उन्हें भली प्रकार समझ लेता है, जान जाता है, उसे सत्य-असत्य में भेद अथवा अंतर कर पाना सहज हो जाता है। कोई कहे कि रात बड़ी काली होती है। रात को हमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है। यह पहला सत्य है। अगर काली रात में कोई एक दीपक प्रज्जवलित कर लिया जाए तो घोर अंधकार भी दिन के उजाले की तरह प्रकाश  में बदल जाता है ओर तब हमें सब कुछ दिखाई देने लगता है। यह दूसरा सत्य है। इसी तरह मन, कर्म तथा वाणी से ब्रह्ममय हो जाने से मनुष्य सत्यवादी हो जाता है। तदोपरांत उसमें सत्यप्रियता, सत्यनिष्ठा  जैसे अनेकों गुण स्वाभाविक ही पैदा हो जाते हैं ।
    ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य  की अपनी पहचान होती है। वह जान जाता है कि उसमें क्या कर सकने की क्षमताएं विद्यमान हैं ? वह स्वयं क्या-क्या कार्य  कर सकता है? उनके संसाधन क्या है? उन्हें अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य बेधन हेतु उनका धारण और प्रयोग कैसे किया जाता है? उन क्षमताओं के द्वारा जीवन में उन्नति कैसे की जा सकती है? जब वह ऐसा सब कुछ जान जाता है तब वह अपने गुण व संस्कार ओर स्वभाव से वही कार्य करता है जो उसे आरम्भ में कर लेना होता है। देर से ही सही, वह वैसा करके अपने कार्य में दक्षता प्राप्त कर लेता है। उसे कार्य कौशल प्राप्त हो जाता है जो उसकी अपनी आवश्यकता होती है।
    ब्रह्म-ज्ञान से मनुष्य  को उचित-अनुचित और निषिद्ध  कार्याें का ज्ञान होता है। जनहित में उचित कार्य करना वह अपना कर्तव्य समझता है। वह नैतिक, व्यवहारिक कार्य करता हुआ सदाचार का  उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार उसके गुण-संस्कारों से दूसरों को प्रेरणा मिलती है। दूसरों के लिए वह एक आदर्श बन जाता है। वे उसका अनुसरण करते हैं और अपना जीवन सफल बनाते हैं।
    ब्रह्म-ज्ञान से ही मनुष्य  जागरूक होता है। उसका हृदय एवं मष्तिष्क ज्ञान के प्रकाश  से प्रकाशित हो जाता है। जब वह इस स्थिति पर पहंच जाता है तब वह स्वयं के शौर्य  और पराक्रम को भी पहचान लेता है। वह समाज को संगठित करके उसमें नवजीवन का संचार करता है जिससे समाज और उसकी धन-सम्पदा की रक्षा एवं सुरक्षा होती है।
    ब्रह्म-ज्ञान मनुष्य जीवन को पुष्ट  करता है। उसे अजेयी शक्ति प्रदान करता है। शायद इन पंक्तियों में इसी प्रकार के भाव भरे हुए हैं ।
    सुगंध बिना पुष्प  का क्या करें?
    तृप्ति बिना प्राप्ति का क्या करें?
    ध्येय बिना कर्म निरर्थक है,
    प्रसन्नता बिना जीवन व्यर्थ है।
    प्रष्न पैदा होता है कि ऐसे गुण-संस्कारों के प्रेरणा स्रोत क्या है? यह गुण-संस्कार जन साधारण तक कैसे पहुंचाए जा सकते हैं? इसका उत्तर आर्याें ने सहज ही युगों पूर्व गुरुकुलों की स्थापना करके दे दिया है जिसे भारत, भारतीय समाज ही नहीं
    20 दिसम्बर 2009
    दैनिक कष्मीर टाइम्स

  • भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक
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    भारतीय संस्कृति का संरक्षण आवश्यक

    यह बात सर्व विदित है कि भारत ऋषि   मुनियों का देश  रहा है। मनीषियों  ने मानव जीवन को मुख्यता चार आश्रमों में विभक्त किया था। उनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासाश्रमों के अपने विशेष  सिद्धांत थे।, उच्च आदर्श   थे। उनके अनुसार मनुष्य  अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता हुआ अपार शक्तियों का स्वामी बन जाता था। भारत की नैतिकता, आध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी। जब मैकाले ने ऐसा भारत में देखा और जाना तो वह ईर्ष्यावश  तिलमिला उठा। उसने भारत की इस उच्चस्तरीय जीवन पद्धति को हर प्रकार से नष्ट -भ्रष्ट  करने तथा उसके स्थान पर निम्नतम स्तरीय शैली स्थापित करने का मन बना लिया। उसने ब्रिटिश  संसद में जाकर एक वक्तव्य दिया जो भारत विरुद्ध महाशड्यंत्र था। वही वक्तव्य आगे चलकर भारत में ब्रिटिश  साम्राज्य को लम्बे समय तक हरा-भरा बनाए रखने तथा उसका विस्तार करने हेतु भारत की नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्तियों का हृास करने वाला ब्रिटिश  शासकों का सहायक नीतिशास्त्र बना।
    मैकाले का उद्देश्य  भारत को हर प्रकार से क्षीण-हीन, अपंग और निःसहाय बना कर उसमें ब्रिटिश  साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करना था। समय-समय पर भारतीय संत-महात्माओं, समाज सुधारकों, नवयुवाओं, धार्मिक व राजनेताओं ने मैकाले की भारत विरोधी नीतियों का डट कर विरोध किया और अनेकों बलिदान दिए। उनके द्वारा लम्बे समय तक अथक प्रयासों और त्याग से ही बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई ताकि भारतीय संस्कृति की अखंड पहचान बनी रहे। उसका भली प्रकार विस्तार भी हो सके।
    इस प्रकार 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश  भर में सरकारी, गैर सरकारीविद्यालयों महाद्यिालयों और विश्वविद्यलयों से हमें जो दिव्य प्रकाश  मिलने की आशा  बनी थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई। सरकार द्वारा इस ओर कोई प्रयास नहीं हुआ बल्कि उन अंग्रेजी फैक्टरियों व कारखानों से पहले की तरह निरंतर सस्ते बाबू और काले अंग्रेज  बन कर निकलते रहे जो कभी ब्रिटिश  साम्राज्य की अवश्यकता मानी जाती थी।
    इससे स्पष्ट  होता है कि हम जिस गरिमा के साथ स्वतंत्रता को अंगिकार करने आगे बढ़े थे, वह गरिमा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्  और अधिक तीव्र होने के स्थान पर लुप्तप्रायः हो गई है। स्वदेशी  सस्कारों के स्थान पर पाश्चात्य  संस्कार  हमारी रग-रग में समा रहे हैं। अगर इस बढ़ती प्रवृत्ति को अतिशीघ्र रोका न गया तो भारत का एक बार फिर पराधीन होना निश्चित  है। मत भूलो कि राष्ट्रीय  सांस्कृतिक सदभावना, सहकार, प्रेम  और एकता ही अखंड भारत के प्राण हैं।
    वर्तमान में बहुत से कार्य मशीनों  से किए जाते हैं। कार्य में असफल होने बाली मशीनों को कार्यशालाओं में ले जाकर मिस्त्री से ठीक भी करवा लिया जाता है, पर हमें देश  भर में कहीं कोई ऐसी कार्यशाला दिखाई नहीं देती है जहां हमारी संस्कृति की त्रुटियों का अवलोकन व सुधार करके उसे पुष्ट  भी किया जाता हो। हां पाश्चात्य  संस्कृति बड़ी तेजी के साथ किसी बाधा के बिना भारतीय संस्कृति पर अवश्य  छा रही है।
    राष्ट्रीय  संस्कृति के पोषक  रह चुके गुरुकुलों के देश  में -- विद्यालयों से लेकर विश्व  विद्यालयों तक भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होने के कारण पाश्चात्य  संस्कृति के भरण पोषण को ही निर्विवाद रूप में बढ़ावा मिल रहा है। रही सही कसर वर्तमान सरकार द्वारा पूरी की जा रही है। इसके द्वारा विदेशियों का शिक्षा में प्रवेष  के लिए अब रंगमंच तैयार किया जा चुका है। क्या इस तरह हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाएंगे? क्या हमारी संस्कृति दूसरों के लिए पुनः आदर्श  बन पाएगी?
    उपरोक्त बातों से स्पष्ट  होता है कि एक ओर जहां आज भारत को मजबूत सीमाओं की आवश्यकता  है तो दूसरी ओर उसके भीतर सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्यकुशल नवयुवाओं की भी आवश्यकता  है जो भारतीय संस्कृति के संवाहक रूप में उसका पुनरुत्थान करने में पूर्णत्या सक्षम और समर्पित हों।
    नवम्बर 2009
    मातृवन्दना