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    19 राम-राज्य कैसे हो साकार?

    राष्ट्रीय भावना

    मातृवन्दना मार्च-अप्रैल 2014

    प्राचीन काल से ही भारत भूमि ऋषि-मुनियों की तपो भूमि रही है। यह सब उन्हीं के तप का प्रतिफल है कि भारतवर्ष विश्व के मानचित्र पर आर्यवर्त के नाम से सर्व विख्यात हुआ। समय की मांग के अनुसार उसमें वेद, भाष्य, ऋचाएं, रामायण और गीता जैसे अन्य अनेकों धर्म-ग्रंथों की संरचनाएं हुईं और उनका शृंखलावद्ध प्रचार-प्रसार भी हुआ।

    भारत में अगर न्यायप्रिय राम-राज्य की स्थापना हुई थी तो उससे पूर्व राक्षस प्रवृत्ति एवं अन्याय के विरुद्ध राम का रावण के साथ भयंकर युद्ध भी हुआ था। कहते हैं रावण के यहां एक लाख पूत और सवा लाख नाती थे, पर अंतिम समय में, उसके घर दीपक जलाने वाला कोई भी शेष नहीं रहा था। कितना भयावह होता है, युद्ध-परिणाम! 

    जो राम-राज्य किसी ने देखा नहीं, वह हमें अब भी घर-घर में उपलब्ध जीवंत रामायण रूप में पढ़ने व विचार करने हेतु अवश्य मिल जाता है। रामावतार हुए युग बीत चुके हैं परन्तु श्रीराम जी के प्रति हमारी दृढ़ आस्था आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है, वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे। उन्होंने अपने जीवन काल में, हर कदम पर मर्यादाएं सुनिश्चित की थीं, जिनके अंतर्गत उनसे हमें प्रेरणा मिलती है। वह हमारे जन मानस पटल पर अंकित हैं।

    आज भारतवर्ष में राम-राज्य नहीं है, इसलिए उसकी पुनस्र्थापना हेतु हम सभी को आज ही से अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में सक्रिय हो कर कुछ प्रयास अवश्य करने होंगे।

    महऋषि मनु ने अपनी समृति में-

    धृतिक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

    धर्म के दस लक्षण बताए हैं। भगवान श्रीराम ने अपने जीवन काल में इन सभी का अनुपालन किया। महऋषि  वाल्मीकि के अनुसार वे धैर्य में हिमालय के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान थे। सत्य भषण में उनका वंश प्रसिद्ध ही था। रघुकुल रीति सदा चली आई। प्रान जाहि वरु वचन न जाई। उन्होंने विमाता की इच्छापूर्ति हेतु राज्य तक का त्याग कर दिया। उन्हें लेशमात्र लोभ नहीं था। वह इंद्रियों को अपने वश में किए हुए थे। व्यवहार में शुचिता थी। वे यज्ञों के रक्षक और स्वयं यज्ञ कत्र्ता थे। महऋषि विश्वामित्र जी के यज्ञ रक्षणार्थ राक्षसों से संघर्ष किया। भगवान श्रीराम ने धर्म के सभी लक्षणों का पालन करते हुए रामराज्य की स्थापना की। श्रीराम और राजगुरु महऋषि वशिष्ठ में एक लम्बा वार्तालाप हुआ था जिसका संपूर्ण वृतांत संस्कृत में निवद्ध ग्रंथ “योग-वशिष्ठ” में उपलब्ध है। उसमें योग वैराग्य की बहुत सी बातें हैं किंतु साथ ही “एक राजा का क्या कर्तव्य होना चाहिए?” इसका भी विशेष रूपेण उसमें उल्लेख किया गया है। राजा के उन्हीं कर्तव्यों का पालन करते हुए श्रीराम ने रामराज्य स्थापित किया। किंतु आज हम अपनी जड़ों से कट चुके हैं “योग-वशिष्ठ”, विदुर-नीति, अर्थ शास्त्र, दास बोध जैसे ग्रंथों का अध्ययन-मनन कौन करे? हमारे नैतिक पतन का कारण अगर है तो वह है धर्मविहीन राजनीति। आज देश की दुरावस्था देखिए, देशभर में आंतरिक और वाह्य संकटों के बादल मंडरा रहे हैं। देश के दुश्मन राष्ट्र को खंडित करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद से कृत संकल्प हैं। राष्ट्र को कदम-कदम पर भारी अपमान और विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। भारतवर्ष आज अंग्रेज शासित नहीं है, फिर भी सतासठ वर्ष बीत जाने के पश्चात् वह आज भी उनकी नीतियों, व्यवस्थाओं और प्रावधानों का बंधक बना हुआ है। देश की जनता जाति, धर्म, ऊंच-नीच, आपसी फूट, लिंगादि भेद-भावों से ग्रस्त है। संपूर्ण देश महंगाई, भ्रष्टाचार और नारी अपमान की ज्वलंत घटनाओं से प्रभावित हुआ है। परंतु भारतीय युवा वर्ग की अपनी लगन और कड़ी मेहनत से प्रायः सुप्त पड़ी तरुणाई फिर से अंगड़ाई लेने लगी है। उसमें ज्ञान, प्रेम, समर्पण, न्याय और धैर्य जैसे सद्गुणों का प्रादुर्भाव होने लगा है। समय आ गया है, अब बुराई के रावण का, युवा-वर्ग संहार अवश्य करेगा।

    आइए! हम सब मिलकर जन, परिवार, गांव और राष्ट्रहित के कार्य करके देश में सक्षम नेतृत्व का चयन कर राम-राज्य की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करें।


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    वैदिक वर्ण व्यवस्था का सत्य

    मातृवंदना जुलाई 2017

    इस लेख का मुख्य प्रेरणा-स्रोेत लाला ज्ञान चंद आर्य द्वारा लिखित ”वर्ण व्यवस्था का वैदिक रूप“ पुस्तक है। यह पुस्तक उनका अपने आप में एक हृदय स्पर्शी और अनूठा प्रयास है।
    पुस्तक में दर्शाया गया है - मानव शरीर के अवयव मुख-ब्राह्मण, बाहु-क्षत्रिय, उदर-वैश्य और पैर-शूद्र हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर से चारों वर्णों का दैनिक कार्य करते हुए ही आर्य है। मानव जाति के पूर्वज आर्य थे। इसलिए समस्त मानव जाति मात्र आर्य पुत्र है। आर्य पुत्र जो कर्म करने के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं, कार्य करने के पश्चात वे स्वयं आर्य हो जाते हैं। शरीरिक कार्य कर लेने के पश्चात शरीर के अवयव पैर अछूत या घृणित नहीं हो जाते हैं और न ही उन्हें कभी शरीर से अलग ही किया जा सकता है। वैदिक शूद्र शिल्पकार या इंजिनियर भी अछूत या घृणित नहीं हो सकता। मुख, भुजा, पेट, या पैर में किसी एक अवयव की पीड़ा संपूर्ण शरीर के लिए कष्टदायी होती है। वर्ण व्यवस्था में किसी एक वर्ण का कष्ट समस्त समाज के लिए असहनीय है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कर्ममूलक हैं, जन्ममूलक नहीं। समाज में सभी आर्य एक समान हैं। उनमें कोई ऊँच-नीच अथवा छूत-अछूत नहीं है।
    आर्य वेद मानते हैं। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते हैं। आर्य वही है जोे संकट काल में महिला, बच्चे, वृद्ध और असहाय की जान माल की रक्षा करते हैं, सुरक्षा बनाए रखते हैं। ब्राह्मण वर्ण शेष तीनों वर्णों का पथ प्रदर्शक गुरु और शिक्षक है। वह उन्हेें ज्ञान प्रदान करता है। क्षत्रिय वर्ण शेष तीनों वर्णों की रक्षा करके उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है। वैश्य वर्ण शेष तीनों वर्णों का कृषि-बागवानी, गौपालन, व्यापार से पालन-पोषण करता है। शुद्र वर्ण शेष तीनों वर्णों के लिए श्रमसाध्य शिल्पविद्या, हस्तकला द्वारा भांति-भांति की वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन करके सुख सुविधा प्रदान करता है।
    समाज मेें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्मगत चार प्रमुख वर्ण हैं। वर्ण व्यवस्था में मनुष्य की जाति मानव है। जैसे गाय जाति को भैंस या भैंस जाति को कभी बकरी नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य जाति को किसी अन्य जाति का नहीं कहा जा सकता।
    वर्ण व्यवस्था में एक व्यसक लड़की को अपना मनपसंद का वर चुनने का पूर्ण अधिकार है। जो उसे पसंद होने के साथ-साथ उसके योग्य होता है। लोभ से ग्रस्त, भ्रष्टचित होकर विपरीत वर्ण में विवाह करने से वर्णसंकर पैदा होते हैं, हो रहे हैं। जिससे सनातन कुल, वर्ण-धर्म का नाश होता है, हो रहा है। आत्मपतन होने के साथ-साथ समाज में पापाचार और व्यभिचार बढ़ता है, बढ़ रहा है।
    वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन के कल्यााणार्थ चार प्रमुख आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम। वर्ण व्यवस्था के चारों आश्रमों मेें वेद सम्मत कार्य किए जाते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु विद्यार्थी को वैदिक शिक्षा प्रदान करता है। गृहस्थाश्रम में विवाह, संतानोत्पति, संतान का पालन-पोषण, शिक्षा और व्यवसाय आदि कार्य होते हैं। वानप्रस्थाश्रम में आत्मसुधार तथा ईश्वरीय तत्व का चिंतन मनन होता है और सन्यासाश्रम में जन कल्याणार्थ हितोपदेश दिया जाता है।
    ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी किसी गृहस्थाश्रम में जाकर अपने खाने के लिए भीक्षाटन करते हैं, न कि वे खाने के लिए जीते हैं। वे गृहस्थ के कल्याणार्थ गृहस्थियों को उपदेश देते हैं।
    ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी का जीवन सदाचारी, सयंमी, जप, तप, ध्यान करने वाला होने के कारण गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहता है। वे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिससे गृहस्थी को किसी प्रकार का कष्ट या उसकी कोई हानि हो।
    वर्ण व्यवस्था में सबके लिए कार्य करना, सबका अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहना, आपस में मेल मिलाप रखना, आपसी हित-चिंतन, आवश्यकता पूर्ति, पालन-पोषण, रक्षण, एक दूसरे का सम्मान करना, प्रेम स्नेह रखना, महत्व समझना, ऊँँच-नीच रहित स्वरूप, अधिकार, कर्तव्य और सहयोग को बढ़ावा देना अनिवार्य है। वेद सम्मत किया जाने वाला कोई भी कार्य जन कल्याणकारी होता है। उससे लोक भलाई होती है।
    वर्ण व्यवस्था गृहस्थाश्रम के लिए उपयोगी है। वह उसकी हर आवश्यकता पूरी करती है। वर्णों के कर्म गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार विभिन्न होते हैं। ब्राह्मण सहनशील और ज्ञानवान होेेेता है तो क्षत्रिय विवेकशील तथा शूरवीर। वैश्य धनवान, मृदुभाषी और बुद्धिमान होता है तो शूद्र विद्वान शिल्पकार और कर्मशील। एक वर्ण ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे दूसरे वर्ण को कष्ट अथवा उसकी किसी प्रकार की हानि हो। वर्णों का मूलाधार कर्मगत उनका अपना कार्यकौशल और सदाचार है। चारों वर्ण अपने-अपने गुण संस्कार और स्वभाव से जाने जाते हैं। ब्राह्मण तात्विक ज्ञान से जाना जाता है तो क्षत्रिय बल-पराक्रम से। वैश्य धर्म कर्तव्य-परायणता से जाना जाता है तो शूद्र शिल्प-कला और कार्य-कौशल से। वर्णों में किसी एक वर्ण का दुःख तीनों वर्णों के लिए अपना दुःख होता है। मानों पैर में कोई कांटा लगा हो और हृदय, मष्तिष्क तथा हाथ उसे निकालने के लिए व्याकुल एवं तत्पर हो गए हों। समाज में मां-बाप तथा गुरु का स्थान सर्वोपरि है, वंदनीय है। जो बच्चे या विद्यार्थी उनका अपमान, निरादर या तिरस्कार करते हैं - वे दंडनीय हैं।
    शिल्पकार शूद्र वर्ण भी उतना ही अधिक आदरणीय है जितना कि ज्ञानदाता ब्राह्मण वर्ण। शिल्पकार शूद्र वर्ण, ब्राह्मण वर्ण की तरह अपने कार्य में विद्वान होता है। समाज मेें मानव जाति को जाति, धर्म, लिंग, ऊँच-नीच भेदभाव उत्पन्न करके बांटना वेद विरुद्ध अपराध है। यज्ञ - श्रेष्ठ कार्य से हीन, मनन पूर्वक कार्य न करने वाला, व्रतों - अहिंसा, सत्य आदि मर्यादाओं के अनुष्ठान से पृथक रहने वाला, जिसमें मनुष्यत्व न हो, वह दस्यु, अपराधी है। दस्यु व अपराधी भी आर्य बन जाते हैं, जब वे वेद मानते हैं और वेद सम्मत कार्य करते हैं। आर्य भी दस्यु या अपराधी बन जाते हैं, जब वे वेद मानना भूल जाते हैं और वेद सम्मत कार्य नहीं करते हैं। दस्यु या अपराधी - वेद नहीं मानते हैं। वे वेद विरुद्ध कार्य करते हैं। समाज में जातियां उपजातियां उन लोगों की देन है जो वेद नहीं मानते थे। जो दम्भी, स्वार्थी एवं अहंकारी थे और जो इस समय उनका अनुसरण भी कर रहे हैं।
    पूर्व में स्थित हिमालय और उससे उत्पन्न गंगा, जमुना, कृष्णा, सरस्वती, नर्वदा, कावेरी, गोदावरी और सिंधु जिस भू भाग से होकर बहती हैं, वह क्षेत्र आर्यवर्त है। जिस देश में नारी को नर की शक्ति, उसकी अद्र्धांगिनी और जग जननी मां मानने के साथ-साथ उसे पूर्ण सम्मान भी दिया जाता है, उस राष्ट्र को आर्यवर्त कहते हैं।
    आचार्य चाणक्य के अनुसार - ”जिसके पास विद्या नहीं है, न तप है, न कभी उसने दान ही किया है, न उसमें कोई गुण है और न धर्म, न उसके पास शीतलता ही है - वह मनुष्य इस मृत्युलोक में उस मृग के समान भार मात्र है जो पूरा दिन घास खाने के अतिरिंक्त और कुछ नही करता है।“


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    क्रांति लाने हेतु

    जो भाई-बहन और नौजवान सकारात्मक सोच रखते हैं, उनसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे रचनात्मक कार्य करने हेतु अपने-अपने गांव या शहर में शाखाओं का गठन करें और क्षेत्र में क्रांति लाने हेतु निम्न प्रयास तेज करके शिव-शक्ति ग्राम सेवा मंच के इस कार्यक्रम में सहयोग दें।
    शैक्षणिक क्रांति – वैदिक पाठशाला से प्रतिभाओं का उजागर, प्रोत्साहन, संरक्षण करना।
    शासनिक क्रांति – स्वशासन से राष्ट्र एवं समाज हित में सनातन धर्म और संस्कृति की सेवा, त्याग और बलिदान की भावना को बढ़ावा देना।
    जल क्रांति – वर्षा जल संग्रहण करना।
    हरित क्रांति – फुलवारी, बागवानी, पेड़-पौधों को बढ़ावा देना।
    श्वेत क्रांति – गाय सेवा से दूध उत्पादन को बढ़ावा देना।
    औद्योगिक क्रांति – ग्रामोद्योग से लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना।
    सहमत हैं? तो सांझा अवश्य करें।


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    सशक्त जनसेवक

    ब्रह्मभाव में स्थिर रहकर, ब्रह्मतत्व का विश्वकल्याण हेतु प्रचार-प्रसार करने वाला ब्रह्मज्ञानी, ज्ञानवीर होता है।

    क्षत्रियभाव में स्थिर रहकर, जन, समाज और राष्ट्र हित में जान-माल की रक्षा करने वाला, शूरवीर होता है।


    वैश्यभाव में स्थिर रहकर, गौसेवा, कृषि और व्यापर से जन, समाज और राष्ट्र हित में कार्य करने वाला, धर्मवीर होता है।


    शुद्रभाव में स्थिर रहकर, हस्त-ललित कला, लघु एवं कुटीर उद्दोग धंधों से जन, समाज और राष्ट्र हित में कार्य करने वाला, कर्मवीर होता है।
    ज्ञानवीर, शूरवीर, धर्मवीर और कर्मवीर एक दूसरे के पूरक हैं।

  • समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड
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    समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड

    व्यक्तिगत और पारिवारिक सुरक्षा से बड़ी सामाजिक सुरक्षा है और सामाजिक सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्र  की सुरक्षा है। अतएव देश  के भविष्य  हेतु हमारे युवाओं को कुछ मानदंड स्थापित करने होंगे जिनके लिए उन्हें निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना होगा
    1  मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
    2 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य  परायणता से जाना जाता है।
    3  गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
    4  व्यक्ति, समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, अहंकारी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा को जन्म देते हैं।
    5  अगर समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र  में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
    6  स्पष्ट रूप से परिभाषित  किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देश्य  में सफलता अवश्य  मिलती है।
    7  लोगों का शांत और मर्यादित सत्यग्रह सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
    8  इतिहास साक्षी है कि कर्फ्यू , आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वाले स्वार्थी एवं अहंकारी शासको की सदा हार हुई है।
    9  सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगंधित बनता है।
    10  लोक परंपराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है।
    11  स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का समय मिलता है।
    12  तन, मन और धन से समाज की सेवा करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है।
    13  कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
    राष्ट्रीय  सुरक्षा
    14  क्षेत्र, भाषा , जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति या दल राष्ट्रीय  एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन  होता है।
    15 राष्ट्रीय  एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
    16 राष्ट्रीय  सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।
    17  बंद, चक्काजाम, और हड़ताल के आह्वान पर आवेश  में आकर यह कभी मत भूलो कि उपद्रव करने से जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र  की कितनी हानि होती है।
    18  कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य  पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
    19  कठिन परिस्थितियों में भी वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
    20  सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क  सदैव सर्वहितकारी एवं धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
    21  राष्ट्रहित  में – सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण.कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
    22  संयुक्त रूप से राष्ट्रीय  पर्व मनाने से राष्ट्र  की एकता एवं अखंडता प्रदर्शित होती है।
    23  जनहित एवं सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण  हो जाती है।
    24  वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षे़त्र, राज्य, और राष्ट्र  को सुरक्षित रखते हैं जो स्वयं अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं।
    25  वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
    26  वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।
    जनवरी 2014
    मातृवन्दना