मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: 1 मानव जीवन

  • समय की मांग
    श्रेणी:

    समय की मांग

    वह भी एक समय था जब देश में हर नौजवान किसी न किसी हस्त-कला एवं रोजगार से जुड़ा हुआ था। चारों ओर सुख-समृद्धि थी। देश में कृषि योग्य भूमि की कहीं कमी नहीं थी। पर ज्यों-ज्यों देश की जन संख्या बढ़ती गई त्यों-त्यों उसकी उपजाऊ धरती और पीने के पानी में भी भारी कमी होने लगी। प्रदूषण अनवरत बढ़ने लगा है। मानों समस्याओं की बाढ़ आ गई हो। इससे पहले कि यह समस्याएं अपना विकराल रूप धारण कर लें, हमें इन्हें नियन्त्रण में लाने के लिए विवेक पूर्ण कुछ प्रयास अवश्य करने होंगे।
    हमने कृषि योग्य भूमि पर औद्योगिक इकाइयां या कल-कारखानों की स्थापना नहीं करनी है जिनसे कि उत्पादन प्रभावित हो। उसके लिए अनुपजाऊ बंजर भूमि निश्चित करनी है और सदैव प्रदूषण मुक्त ही उत्पादन को बढ़ावा देना है।
    हमने देश में पशु-धन बढ़ाना है ताकि हमें प्रयाप्त मात्रा में देशी खाद प्राप्त हो सके। हमने रासायनिक खादों और कीट नाशक दवाइयों का कम से कम उपयोग करना है ताकि मित्र जीव जन्तुओं की भी सुरक्षा बनी रह सके और हम सभी का स्वास्थ्य ठीक रहे।
    घर के दुधारू पशुओं को कहीं खुला और सड़क पर नहीं छोड़ेंगे और न ही उन्हें कभी कसाइयों को बेचेंगे। अगर किसी कारणवश हम स्वयं उनका पालन-पोषण न कर सकें तो हम उन्हें स्थानीय सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित पशुशालाओं को ही देंगे ताकि वहां उनका भली प्रकार से पालन-पोषण हो सके और हमें मनचाहा ताजा व शुद्ध दूध, घी, पनीर, पौष्टिक खाद और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं मिल सकें।
    हमने नहाने, कपड़े धोने और साफ-सफाई के लिए भूजल स्रोतों – हैंडपंप, नलकूप, बावड़ियों और कुओं का स्वयं कभी प्रयोग नही करना है और न ही किसी को करने देना है बल्कि टंकी, तालाब, नदी या नाले के स्वच्छ रोग-किटाणु रहित पानी का प्रयोग करना है और दूसरों को करने के लिए प्रेरित करना है। सिंचाई के लिए हम विभिन्न विकल्पों द्वारा जल संचयन करेंगे और खेती सींचने के लिए वैज्ञानिक विधियों द्वारा फव्वारों को माध्यम बनाएंगें। हमने भूजल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन नही करना है। भूजल हम सबका जीवन आधार होने के साथ-साथ सुरक्षित जल भण्डार भी है। वह हमारे लिए दीर्घकालिक रोग मुक्त और संचित पेय जल-स्रोत है जो हमने मात्र पीने के लिए प्रयोग करना है।
    स्थानीय वर्षा जल-संचयन के लिए तालाब, पोखर, जोहड़ और चैकडैम अच्छे विकल्प हैं। इनसे जीव-जन्तुओं को पीने का पानी मिलता है। हम स्थानीय लोग मिलकर इनका नव निर्माण करेंगे। तथा पुराने स्रोतों का जीर्णोद्वार करके इन्हें उपयोगी बनाएंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल-संचयन हो सके और संचाई कार्य वाधित न हो सके।
    हम समस्त भूजल स्रोतों की पहचान करके उन्हें संरक्षित करने हेतु उनके आस-पास अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाएंगे। इससे भू संरक्षण होगा। इनसे जीवों के प्राण रक्षार्थ प्राण वायु तथा जल की मात्रा में वृद्धि होगी और जीव-जन्तुओं के पालन-पोषण हेतु चारा तथा पानी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होगा।
    हमने आवासीय कालोनी, मुहल्लों को साफ सुथरा व रोग मुक्त रखने के लिए घरेलू व सार्वजनिक शौचालयों को सीवरेज व्यवस्था के अंतर्गत लाकर मल निकासी तन्त्र प्रणाली को विकसित करना है और मल को तुरंत खाद में भी परिणत करना है ताकि गंदगी युक्त पानी के रिसाव से स्थानीय भूजल स्रोत – हैंडपंप, नलकूप, बावड़ियों और कुओं का शुध्द पेयजल कभी दूषित न हो सके। वह हम सबके लिए सदैव उपयोगी बना रहे।
    हम घर पर स्वयं शुद्ध और ताजा भोजन बना कर खाएंगे। डिब्बा-लिफाफा बन्द या पहले से तैयार भोजन अथवा जंक-फूड का प्रयोग नहीं करेंगे ताकि हम स्वस्थ रह सकें और हमारी आय का मासिक बजट भी संतुलित बना रहे।
    युवावर्ग बेरोजगार नहीं रहेगा। वह धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से रोजगार के विकल्पों की तलाश करेगा और उन्हें व्यावहारिक रूप मेें लाएगा। योग्य इच्छुक बेरोजगार युवावर्ग के लिए हस्तकला, ग्रामाद्योग, वाणिज्य-व्यापार, कृषि उत्पादन, वागवानी, पशुपालन ऐसे अनेकों रोजगार संबंधी विकल्प हैं जिनसे वह घर पर रहकर स्वरोजगार से जुड़ जाएगा। उसे सरकारी या गैर सरकारी नौकरी तलाशने की आवश्यकता नहीं होगी।
    निराश युवावर्ग सरकारी या गैर सरकारी नौकरी की तलाश नहीं करेगा बल्कि स्वरोजगार, पैतृक व्यवसाय तथा सहकारिता की ओर ध्यान देगा। इससे उसकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ परंपरागत स्थानीय क्षेत्रीय और राष्ट्रीय कला-संस्कृति व साहित्य की नवीन संरचना, रक्षा और उसका विकास तो होगा ही – इसके साथ ही साथ उनकी अपनी पहचान भी बनेगी।
    स्थानीय बेेरोजगार युवा वर्ग गांव में रह कर अधिक से अधिक हस्त कला, निर्माण, उत्पादन, कृषि-वागवानी और पशुपालन संबंधी रोजगार तलाशने और स्वरोजगार शुरू करने के लिए संबंधित विभाग से मार्गदर्शन प्राप्त करेगा ताकि उसे स्वरोजगार मिल सके और गांव छोड़कर दूर शहर न जाना पड़े।
    हमने अपने परिवार में बेटा या बेटी में भेद नहीं करना है। दोनों एक ही माता-पिता की संतान है। हमनें परिवार नियोजन प्रणाली के अंतर्गत सीमित परिवार का आदर्श अपनाना है और बेटा-बेटी या दोनों का उचित पोषण करना है। उन्हें उच्च शिक्षा देने के साथ-साथ उच्च संस्कार भी देने हैं ताकि भारतीय संस्कृति की रक्षा हो सके।
    यह सब कार्य तब तक मात्र किसी सरकार के द्वारा भली प्रकार से आयोजित या संचालित नही किए जा सकते और वह कारगर भी प्रमाणित नही होे सकते हैं, जब तक जनसाधारण के द्वारा इन्हें अपने जीवन में व्यावहारिक नही लाया जाता। अगर हम इन्हें व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं तो यह निश्चित है कि हम आधुनिक भारत में भी प्राचीन भारतीय परंपराओं के निर्वाहक हैं और हम अपनी संस्कृति के प्रति उत्तरदायी भी।
    30 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स

  • श्रेणी:

    औेर लम्बी होंगीं बेरोजगार श्रृंखलाएं!

    भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़तेे साम्राज्य से असंख्य स्नातक-बेरोजगार की लम्बी श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं। उनके हाथों का कार्य कल-कारखानें और मशीनें ले चुकी हैं। वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश  में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं।
    भारत में वह भी एक समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में काम होता था। लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण  किया करतेे थे। कोई कहीं चोरी नहीं करता था। वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ  समझते थे। कोई भीख नही मांगता था। इस प्रकार देश  की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख शांति थी। लार्ड मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात  2 अक्तूवर सन् 1835 में ब्रिटिश  सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था।
    वर्तमानकाल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज संयम, शांति, सन्तोष, विनम्रता आदर-सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता  एवं सेवा भक्ति-भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा  और आचार-व्यवहार भूल ही नही रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है। वह ऐसा करना श्रेष्ठ  समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किए गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है। इस समय समाज को महती आवश्यकता  है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की।
    भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता  से अधिक किया जाने वाला उपयोग है। हम दिन प्रति दिन पूर्णतयः कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं। यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है। ऐसी राष्ट्रीय  नीति उस देश  को अपनानी चाहिए जहां जन संख्या कम हो। पर्याप्त जन संख्या वाले भारत देश  में कल-करखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक से अधिक कार्य लेना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी। स्नातक, युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक  है। कल-कारखानें और मशीनें भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं। वह तो कृषि -वागवानी, पशु -पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक  खाद्य पदार्थाें का सेवन करने से प्राप्त होता है।
    हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाए गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाए हुए, ताजा खाद्य पदार्थाें का, अपनी आवश्यकता  अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए।
    भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनानें में पहल करनी होगी। उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी  हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी  जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्त-कला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके। उनके द्वारा बनाए गए सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके। देश  में कहीं पेयजल, कृषि  भूमि और प्राण-वायु की कमी न रहे। इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है।

    सितम्बर 2008
    मातृवन्दना

  • श्रेणी:,

    बलि का बकरा

    आज तक हमने बकरों की बलि दिया जाना सुना था पर यह नहीं सुना था कि कहीं बस की सवारियों को भी बलि का बकरा बनाया जाता है। जी हां, ऐसा अब खुले आम हो रहा है। अगर हम अन्य स्थानों को छोड़ मात्र जम्मू से लखनपुर तक की बात करें तो राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बने ढाबों, भोजनालयों और चाय की दुकानों को कसाई घरों के रूप में देख सकते हैं। वहां प्रति चपाती पांच रुपए के साथ नाम मात्र की फराई दाल दस रुपए में और चाय का प्रति कप पांच रुपए के साथ एक कचौरी तीन रुपए के हिसाब से धड़ल्ले से बेची जाती है। वहां कहीं मुल्य सूचि दिखाई नहीं देती है। शायद उन्हें प्रशासन की ओर से पूछने वाला कोई नहीं है। क्या यह दुकानदार सरकारी मूल्य सूचि के अंतर्गत निर्धारित मूल्यानुसार सामान बेचते हैं? संबंधित विभाग पर्यटक वर्ग अथवा सवारी हित की अनदेखी क्यों कर रहा है?
    राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारों पर ढाबों और चाय की दुकानों पर लम्बे रूट की बसें रुकती हैं। वहां पर चालक और परिचालकों को तो खाने-पीने के लिए मूल्यविहीन बढ़िया और उनका मनचाहा खाना-पीना मिल जाता है, मानों जमाई राजा अपने ससुराल में पधारे हों। पर बस की सवारियों को उनकी सेवा के बदले में दुकानदारों की मर्जी का शिकार होना पड़ता है। अन्तर मात्र इतना होता है कि कोई कटने वाला बकरा तो गर्दन से कटता है पर सवारियों की जेब दुकानदारों द्वारा बढ़ाई गई अपनी मंहगाई की तेज धार छुरी से काटी जाती है। कई बार सवारियों के पास गंतव्य तक पहुंचने के मात्र सीमित पैसे होते हैं। अगर रास्ते में भूख-प्यास लगने पर उन्हें कुछ खाना-पीना पड़ जाए तो वह खाने-पीने की वस्तुएं खरीद कर न तो कुछ खा सकती हैं और न पी सकती हैं। क्या लोकतन्त्र में उन्हें जीने का भी अधिकार शेष नहीं बचा है?
    यह पर्यटक एवं सवारी वर्ग भी तो अपने ही समाज का एक अंग है जो हमारे साथ कहीं रहता है। स्वयं समाज सेवी और इससे संबंधित सरकारी संस्थाओं को प्रशासन के साथ इस ओर विशेष ध्यान देना होगा और सहयोग भी देना पड़ेगा। उसके हित में उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग तथा बस अड्डों पर खाने-पीने और अन्य आवश्यक सामान खरीदने हेतु उचित मूल्य की दुकानों व ठहरने या विश्राम करने के लिए सुख-सुविधा सम्पन्न सस्ती सरायों की व्यवस्था करनी होगी ताकि स्थानीय दुकानदारों द्वारा सवारियों और प्रयटकों से मनमाना मूल्य न वसूला जाए और कोई किसी के निहित स्वार्थ के लिए कभी बलि का बकरा न बन सके।
    13 जुलाई 2008 कश्मीर टाइम्स