सुन बात दूसरों की, कर ले भली प्रकार विचार l
हृदय की बात पत्थर की लकीर, मनः कर तुरंत व्यवहार ll
श्रेणी: सशक्त मानव
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श्रेणी:सशक्त शरीर – बलिष्ट शरीर
मानवी ऊर्जा – ब्रह्मचर्य
गुरुकुल में विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया है l इस काल में विद्यार्थी गुरु जी के सान्निध्य में रहकर समस्त विद्याओं का सृजन, सवर्धन और संरक्षण करके स्वयं अपार शक्तियों का स्वामी बनता है l सफल विद्यार्थी बनने के लिए विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य या मानवी ऊर्जा का महत्व समझना अति आवश्यक है l ब्रह्मचर्य के गुण विद्यार्थी को सदैव उधर्वगति प्रदान करते हैं l
- ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों का सयंम l
- ब्रह्मचर्य बुद्धि का प्रकाश है l
- ब्रह्मचर्य नैतिक जीवन की नींव है l
- सफलता की पहली शर्त है – ब्रह्मचर्य l
- चारों वेदों में ब्रह्मचर्य जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है l
- ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण सौभाग्य का कारण है l
- ब्रह्मचर्य व्रत अध्यात्मिक उन्नति का पहला कदम है l
- ब्रह्मचर्य मानव कल्याण एवं उन्नति का दिव्य पथ है l
- अच्छे चरित्र निर्माण करने में ब्रह्मचर्य का मौलिक स्थान है l
- ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण शक्तियों का भंडार है l
- ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ ज्ञान है l
- ब्रह्मचर्य ही सर्व श्रेष्ठ धर्म है l
- सभी साधनों का साधन ब्रह्मचर्य है l
- ब्रह्मचर्य मन की नियंत्रित अवस्था है l
- ब्रह्मचर्य योग के उच्च शिखर पर पहुँचने की सर्व श्रेष्ठ सोपान है l
- ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन का ठोस आधार है l
- गृहस्थ जीवन में ऋतू अनुकूल सहवास करना भी ब्रह्मचर्य है l
- ब्रह्मचर्य से मानव जीवन आनंदमय हो जाता है l
- प्राणायाम से मन, इन्द्रियां पवित्र एवं स्थिर रहती हैं l
- ब्रह्मचर्य से अपार शक्ति प्राप्त होती है l
- ब्रह्मचर्य से हमारा आज सुधरता है l
- ब्रह्मचर्य में शरीर, मन व आत्मा का संरक्षण होता है l
- ब्रह्मचर्य से बुद्धि सात्विक बनती है l
- ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मस्वरूप में स्थिति हो जाती है l
- ब्रह्मचर्य से आयु, तेज, बुद्धि व यश मिलता है l
- ब्रह्मचारी का शरीर आत्मिक प्रकाश से स्वतः दीप्तमान रहता है l
- ब्रह्मचारी आजीवन निरोग एवं आनंदित रहता है
- ब्रह्मचारी स्वभाव से सन्यासी होता है l
- ब्रह्मचारी अपनी संचित मानवी ऊर्जा – ब्रह्मचर्य को जन सेवा एवं जग भलाई के कार्यों में लगाता है l
दोष सदैव अधोगति प्रदान करते हैं इसलिए ब्रह्मचारी की उनसे सावधान रहने में ही अपनी भलाई है l
- दुर्बल चरित्र वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्य पालन में कभी सफल नहीं होता है l
- मनोविकार ब्रह्मचर्य को खंडित करता है l
- आलसी व्यक्ति कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं क्र सकता l
- अति मैथुन शारीरिक शक्ति नष्ट कर देता है l
- काम से क्रोध उत्पन्न होता है , क्रोध से बुद्धि भ्रमित होती है l
- काम मनुष्य को रोगी, मन को चंचल तथा विवेक को शून्य बनता है l
- वीर्यनाश घोर दुर्दशा का कारण बनता है l
- देहाभिमानी ही कामी होता है l
- काम विकार का मूल है l
- ब्रह्मचर्य के बिना आत्मानुभूति कदापि नहीं होती है l
- काम विचार से मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है l
- काम वासना के मस्त हाथी को मात्र बुद्धि के अंकुश से नियंत्रित किया जा सकता है l
- काम, क्रोध, लोभ नरक के द्वार हैं l
प्रकाशित जनवरी 2010 मातृवंदना
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श्रेणी:सशक्त शरीर – बलिष्ट शरीर
मानव इन्द्रियां – स्वाभाविक गुण
मानव शरीर उस सुंदर मकान के समान है जिसमें आवश्यकता अनुसार दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारियां, रोशनदान, और नालियां सब कुछ उपलब्ध है l उसमें घर की भांति प्रत्येक वस्तु उचित स्थान पर उचित और सुसज्जित ढंग से रखी मिलती है l मानव शरीर में मुख्यतः कान, नाक, आँख, जिह्वा, त्वचा, हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैरों के ही कारण परिपूर्ण और मनमोहक है l वह अपना प्रत्येक कार्य करने में हर प्रकार से सक्षम है l
भारतीय विद्वानों ने मनुष्य के इन महत्वपूर्ण अंगों को इन्द्रियां नाम प्रदान किया है l इन इन्द्रियों की कर्मशीलता के कारण मनुष्य शरीर गतिशील है l यह इन्द्रियां दो प्रकार की हैं – ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ l ज्ञानेन्द्रियों में कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा आती हैं और कर्मेन्द्रियों में हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर l इन सबके अपने-अपने कार्य हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं l
पांच ज्ञानेन्द्रियों में जो मनुष्य के शरीर में सुशोभित हैं, वह समय-समय पर आवश्यकता अनुसार मनुष्य को विभिन्न प्रकार के ज्ञान से स्वर्ग तुल्य आनंद व सुख की अनुभूति करवाती हैं l इन ज्ञानेन्द्रियों कान से शब्द ज्ञान, आँख से दृश्य ज्ञान, नाक से गंध ज्ञान, जिह्वा से स्वाद ज्ञान और त्वचा से स्पर्श ज्ञान सुख प्राप्त होते हैं l सृष्टि में पांच महाभूत आकाश, आग, मिटटी, पानी और वायु पाए जाते हैं जो क्रमशः कान, नाक, आँख, जिह्वा और त्वचा से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के रूप में अनुभव किये जाते हैं l
आकाश के माध्यम से कान के द्वारा शब्द सुनने से शब्द ज्ञान होता है l यह शब्द कई प्रकार के होते हैं जैसे – गाने का शब्द, बजाने का शब्द, नाचने का शब्द, हंसने का शब्द, रोने का शब्द, बड़बड़ाने का शब्द, पढ़ने-पढ़ाने का शब्द, शंख फूंकने का शब्द, गुनगुनाने का शब्द, बतियाने का शब्द, चलने का शब्द, तैरने का शब्द, लकड़ी काटने का शब्द इतियादि l
आग या प्रकाश के माध्यम से आँख के द्वारा देखने से दृश्य-ज्ञान होता है l उन्हें मुख्यतः चार भागों में विभक्त किया जा सकता है – रंगों के आधार पर, बनावट के आधार पर, रूप के आधार पर और क्रिया गति के आधार पर l
रंगों में – नीला, पीला, काला, हरा, सफेद और लाल रंग प्रमुख हैं तथा अन्य प्रकार के रंग उपरोक्त रंगों के मिश्रण से जो विभिन्न अनुपात में मिलाये जाते हैं, से मन चाहे रंग तैयार किये जा सकते हैं l
बनावट आकर में – गोलाकर, अर्ध गोलाकार, त्रिभुजाकार, आयताकार, वर्गाकार, सर्पाकार, आयताकार, लम्बा, छोटा, मोटा, नुकीला और धारदार आदि l
रूप प्रकार में – प्रकाश, ज्योति, आग, शरीर, पवन का स्पर्श, जल, वायु की सर-सराहट, मिटटी आदि l
क्रिया गति में – दो प्रकार हैं, सजीव तथा निर्जीव l सजीव स्वयं ही क्रियाशील हैं जबकि निर्जीव को क्रियाशील किया जाता है और उसे गति प्रदान की जाती है l
मिटटी और उससे उत्पन्न जड़ी बूटियों, पेड़ पोधों, फूल-वनस्पतियों और फलों से विभिन्न प्रकार की उड़ने वाली गंधों – का नाक के द्वारा सूंघने से गंध–ज्ञान होता है l गंध कई प्रकार की हैं जिनमें कुछ इस प्रकार हैं – जलने की गंध, सड़ने की गंध, पकवान पकने की गंध, फूल-वनस्पति की गंध, पेड़ छाल की गंध, मल-मूत्र की गंध तथा मांस मदिरा की गंध आदि l
जल या रस के रूप में – पेय वस्तुओं का जिह्वा द्वारा स्वाद चखने से स्वाद-ज्ञान होता है l यह भी कई प्रकार के हैं – खट्टा, मीठा, फीका, नमकीन, तीक्षण, कसैला और कड़वा आदि l
वायु के स्पर्श से त्वचा पर पड़ने वाले प्रभावों से त्वचा के जिन-जिन रूपों में अनुभव होता है उनमें ठंडा, गर्म, नर्म, ठोस मुलायम और खुरदरा प्रमुख अनुभव हैं l
पांच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य को कर्म करने में सहायता करती हैं l यह इन्द्रियां इस प्रकार हैं – मुंह, हाथ, उपस्थ, गुदा और पैर l मुंह से होने वाले कार्य इस प्रकार है – फल खाना, बातें करना, गाना, हँसना, रोना, बड़बड़ाना, बांसुरी बजाना, शंख फूंकना, गुनगुनाना और पानी पीना आदि l
हाथों से किये जाने वाले कार्य इस प्रकार हैं – पैन पकड़ना, पत्र लिखना, सिर खुजलाना, कपड़ा निचोड़ना, खाना पकाना, ढोल बजाना, मशीन चलाना, भाला फैंकना, तैरना, धान कूटना, स्वेटर बुनना, दही बिलोना, कपड़ा सिलना, फूल तोड़ना, कढ़ाई करना, मूर्ति तराशना, चित्र बनाना, हल चलाना, अनाज तोलना, नोट गिनना, आँगन बुहारना, बर्तन साफ करना, पोंछा लगाना, गोबर लीपना, चिनाई करना, कटाई करना, पिंजाई करना आदि l
मूत्र विच्छेदन करना उपस्थ का कार्य है l
गुदा मल विच्छेदन का कार्य करता है l
पैरों से चलना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना, कूदना आदि कार्य किये जाते हैं l
इस प्रकार हम देख चुके हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को ज्ञान की ओर और कर्मेन्द्रियाँ कर्म की ओर आकर्षित करती हैं l यही उनका अपना स्वभाव है l
प्रकाशित 24 अगस्त 1996 काश्मीर टाइम्स
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साधक मन और साधना
आलेख - कश्मीर टाइम्स 9 जुलाई 1996
साधना-प्रगति के अंतिम बिंदु तक पहुँचने के लिए जो जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है, वह कभी थकने या रुकने का नाम नहीं लेता है – साधक कहलाता है l वह भली प्रकार जानता है कि साधना के मार्ग पर फूल कम और कांटे अधिक मिलते हैं l फिर भी जिज्ञासु साधक अपने अदम्य साहस के साथ उन काँटों को अपने पैरों तले रौन्दता हुआ मात्र फूलों को ही चुनता है और अपनी विकास–यात्रा जारी रखता है l इस प्रकार अविलंब प्रयत्न करते हुए एकाएक उसके जीवन में वह भी सुअवसर आ जाता है जब वह विभिन्न प्रकार के फूल एकत्रित करके उन्हें किसी एक मनोहारी माला का स्वरूप प्रदान कर देता है l साधक की साधना साकार हो जाती है l उसे उसकी निश्चित मंजिल मिल जाती है l
साधना मार्ग में यह बात सुनिश्चित है कि साधक मन उस समय अपनी रचनात्मक साधना प्रगति–मार्ग से भ्रमित हो जाता है जब उसकी बुद्धि मन के अधीन विषयासक्त होकर उचित निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती है l विषय भोगी चंचल मन इच्छा वश होकर इन्द्रिय विषय – शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का रसास्वादन करने हेतु दौड़ता है, ललायत रहता है l वह इन्द्रिय इच्छापूर्ति का माध्यम बनता है पर अल्पकालिक इन्द्रिय सुख उसके लिए दुःख का कारण बनता है l परिणाम स्वरूप बुद्धि का नाश होता है l साधक की साधना अवरुद्ध होने के कारण, आगे नहीं बढ़ पाती है l साधक पूर्णता प्राप्त करने से वंचित रह जाता है l इसी कारण इन्द्रिय विषय अल्पकालिक सुख देने वाले, साधना-मार्ग के शत्रु होते हैं l श्रीकृष्ण जी के कथनानुसार – “साधक को अपना मन अभ्यास या वैराग्य के द्वारा सयंत करके उसे सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के अंतर्गत रचनात्मक कार्यों में समर्पित करना चाहिए l”
पांच ज्ञानेंद्रियाँ – त्वचा, रसना, आँख, कान और नाक स्पर्श करना, रस चखना, रूप देखना, शब्द सुनना, गंध सूंघना और पांच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर कर्म करना, भोजन करना, जनन, मल विच्छेदन, तथा चलना अपने स्वाभाविक गुणानुकुल कार्य करती हैं l इन्द्रियों का समयबद्ध अनुशासित और सयंत करके साधक पुरुष उन्हें बुद्धि द्वारा, अपने जीवन के प्रगति–पथ पर जीवन का निश्चित लक्ष्य पाने के लिए रचनात्मक कार्यों में लगाता है l इससे उसकी हर प्रकार की प्रगति होने के साथ-साथ उसे पूर्णता भी प्राप्त होती है
कोई भी साधक पुरुष शरीर रूपी मकान को अंदर की अपेक्षा उसके बाहरी सौन्दर्य को निखारने में बिना कारण अपनी शारीरिक शक्ति, अमूल्य समय और धन कभी नष्ट नहीं करता है l वह दैवी गुणों से विमुख नहीं रहता है l वह नित गुरु की देख-रेख में, उनके मार्ग-दर्शन और आदेशानुसार अपने दैवी गुणों की सतत वृद्धि ही करता है l इनका सदुपयोग करने से उसका अपना तो भला होता है, साथ ही साथ दूसरों का भी भला होता है परन्तु दुरूपयोग करने से सबको पीड़ा और दुःख ही मिलते हैं l जो साधक पुरुष मान्यवर गुरु की उपेक्षा करते हैं, उनकी उन्नति पर ईर्ष्या करते हैं और उनसे अधिक स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं – वे अपने जीवन में विकास अथवा लाभ पाने के नाम पर पतन-हानि ही पाते हैं l कायर, आलसी, और चापलूस साधक पुरुष की साधना कभी साकार नहीं होती है l
साधक पुरुष प्रायः सयंमित, शांत, त्यागी, समद्रष्टा, विनम्र और अनुशासित होता है l वह अध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति में संतुलन बनाये रखता है l वह मानसिक विकारों के वेगों के प्रति सदैव सचेत रहता है l वह जानता है कि मानसिक विकारों के वेग उसकी उन्नति में वाधक हैं l जो प्रगति की उंचाई की ओर बढ़ते हुए उसके क़दमों को लड़खड़ा देते हैं l परिणाम स्वरूप साधक का पतन होना आरम्भ हो जाता है l
इसलिए पति-पत्नी के अतिरिक्त पराये नर-नारी का चिंतन-मनन, दर्शन और संग करना जैसे आचार-व्यवहारों से न केवल काम वासना जागृत होती है, बल्कि वह और अधिक बढ़ती है l इससे समाज में माँ, बहन, बहु, बेटी भरजाई और उनके समान अन्य की भी मान-मर्यादा नष्ट होती है l साधक पुरुष मान-मर्यादा के रक्षक होते हैं, भक्षक नहीं l वह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिनसे समाज में अपहरण, बलात्कार, देह प्रदर्शन, देह व्यपार, और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता हो l वह स्वयं तो सयमित रहते हैं, समय समय पर दूसरों को भी सावधान करते रहते हैं l
छोटी-छोटी बातों के पीछे बौखला जाना, अपशब्द कहना और लड़ाई-झगड़े करना जैसे आचार-व्यवहार क्रोध के ही विभिन्न रूप हैं l यह सब क्रोध को बढ़ावा देते हैं l विकराल रूप न धारण हो, इसी बात का ध्यान रखते हुए साधक पुरुषों के द्वारा शांतभाव में गंभीर से गंभीर समस्या का हल ढूँढना होता है l क्रोध किसी समस्या का हल नहीं है l साधक द्वारा क्रोध करने की आवश्यकता आ भी पड़े तो वह ज्ञान, कर्तव्य, नीति, और न्याय संगत होता है l इनके बिना किया गया क्रोध किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है l
अपने लिए अपनी आवश्यकता से अधिक चल-अचल धन-संपदा, अन्न, वस्त्र का उत्पादन निर्माण, संग्रहण करना और उन पर मात्र अपना एकाधिकार जताना जैसे अचार-व्यवहार व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ ही के स्वरूप हैं l साधक पुरुष असंग्रही, बुद्धिमान, सदाचारी, न्यायप्रिय और कर्तव्य-परायण होते हैं l वह स्वयं उदाहरण बनकर, दूसरों को भी वैसा ही बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं l इससे चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सुख-समृद्धि देखने को मिलती है l
नशा–धुम्रपान जान-बुझकर मौत के कुएं में छलांग लगाने के समान है l इससे तन, मन, धन, और स्वयं का नाश होता है l तन के जर-जर हो जाने पर, उसे कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है l नशा–धुम्रपान करने वाले पुरुष की बुद्धि का नाश हो जाता है l उसकी विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाती है l उसे आर्थिक संकट घेर लेता है l साधक पुरुष ऐसा करने से दूर रहते हैं और दूसरों को इस संकट से सावधान भी करते हैं l
साधक पुरुष सृष्टि में – पति-पत्नी, संतान, धन-संपदा, सुख-सुविधा, पद, वेतन, सत्ता सुख को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं l यह सब उन्हें भौतिक सुख तो दे सकते हैं पर आत्मिक शांति नहीं l साधक पुरुष को भौतिक सुख के साथ-साथ अध्यात्मिक सुख की भी आवश्यकता होती है l साधक पुरुष ऐसे आचार-व्यवहार जिनसे अशांति होने का भय या संदेह हो, उनमें अपने मन से कभी आसक्त नहीं होते हैं बल्कि निज मन को अभ्यास और वैराग्य के अंतर्गत उसे अध्यात्मिक उन्नति की साधना में व्यस्त रखते हैं l इससे उन्हें आत्मिक सुख और आनंद मिलता है l
मैं और मैंने शब्दों का बात-बात पर उच्चारण, व्यवहार में प्रदर्शन करना ही अहंकारी पुरुष का अहंकार है l उसमें अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना का आभाव रहता है l वह छोटों के प्रति अप्रिय होता है l साधक पुरुष विनम्र होते हैं l विनम्रता के कारण वह सबको प्रिय होते हैं l विनम्रता ही मैं और मैने के के अहंकारी भावों का अस्तित्व मिटाती है l उससे आत्मसमर्पण का भाव जागृत होता है तथा आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है जिससे साधक पुरुष के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है l
साधक पुरुष साधना में मग्न रहकर मानवता ही की सेवा करते हैं और समय-समय पर वे समाज तथा प्रशासन के द्वारा सम्मानित भी होते हैं l साधक पुरुषों का सुख-दुःख सबका अपना सुख-दुःख बन जाता है l साधक साधना से दूसरों को अपना बना लेते हैं l उनकी चिंता सभी करते हैं l वह हर मन प्यारे बन जाते हैं l सारा संसार उनका अपना घर होता है और वे होते हैं, विश्व परिवार के सदस्य – विश्व बंधू l
साधक पुरुष सबको एक ही परमात्मा की संतान मानते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं और सबके लिए प्रिय ही कार्य कार्य करते हैं l उनका जीवन चिंता मुक्त होता है l वास्तव में चिंता मुक्त विकसित चिंतनशील मन ही साधक पुरुष के जीवन को सार्थक, पूर्ण, साकार, सफल, आत्मज्ञानी और सुखी-समृद्ध बनाने के साथ-साथ उसे मुक्ति भी प्रदान करता है l
काश ! ऐसी प्रभु कृपा सभी पर हो l