मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: स्व रचित रचनाएँ

  • श्रेणी:

    भूजल भंडार करे उद्धार

    दिव्य हिमाचल 23 दिसम्बर 2004

    नभ से बूंदाबांदी होती टिप टिप टिप
    धरा पर इधर उधर गिरती पड़ती टिप टिप टिप
    सांए सांए करती जलधारा बन कर
    नाली नाला नदी रूप बन कर
    पहाड़ से जंगल और मैदान की ओर
    जलधारा बढ़ती जलाश्य की ओर
    उसे बहना है वह बहती जाती है
    पहाड़ से चलती सागर से मिल जाती है
    वर्षा जल आता आंधी बन कर
    बढ़ जाता आगे तूफान बन कर
    भूजल धरती को नहीं मिल पाता है
    कष्ट सहती धरती ज्यादा नहीं सहा जाता है
    गर्म सीना धरती का जलता जा रहा
    भूमि का जल स्तर घटता जा रहा
    मनवा प्यासी धरती करे पुकार
    सुरक्षित भूजल भंडार सबका करे उद्धार


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    जल संकट नहीं होने देंगे

    दिव्य हिमाचल 7 दिसम्बर 2004

    जल की हर बूंद है अनमोल
    जल से जीवन का है मोल
    बूंदबूंद से भर जाता है घड़ा
    पगपग पर जल करना है खड़ा
    बावड़ी बना कर कूप बना कर
    तालाब बना कर जलाशय बना कर
    बावड़ी यहां पर कूप वहां पर
    तालाब यहां पर जलाशय वहां पर
    भूजल का स्तर बढ़ाना है
    नमीदार पेड़ जंगल उगाना है
    नदियों को स्वच्छ बनाना है
    पर्यावरण का प्रदूषण हटाना है
    मनवा अब हम कोई बूंद व्यर्थ नही होने देंगे
    यहां वहां कल का जल संकट नही होने देंगे


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    भूजल जीवन आधार

    23 सितम्बर 2004 दिव्य हिमाचल

    वर्षा जल छत पर आए
    टिप-टिप-टिप,
    जल परनाला कूप पर ले जाए
    टिप-टिप-टिप,
    शुद्ध जल सबने पीना है,
    भूजल से सबने जीना है,
    चेतन यह भूजल है
    जीवन का आधार,
    मात्र शुद्ध भूजल है,
    जीवन का आधार,


    चेतन कौशल "नूरपुरी"


  • श्रेणी:

    आत्म-शान्ति पाने के उपाय

    आलेख - मानव जीवन दर्शन – कश्मीर टाइम्स 3.12.1996
    मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l 
    आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l
    1. जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l
    2. दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिन मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l
    3. समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l
    4. अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l
    5. अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है – आत्मानुशासन कहलाता है l
    6. संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था राखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l
    7. अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l
    8. अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रधालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l
    9. निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l
    भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l
    देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट सहन करने पड़ते हैं l
    पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l
    हम इसके बारे में कुछ अधिक न कहते हुए मात्र इतना ही कहेंगे कि हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य भी पुरे करने का प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"

     
     

  • श्रेणी:

    समाज के प्रति सजगता

    आलेख - सामाजिक चेतना कश्मीर टाइम्स 21.11.1996 
    नैतिक शक्ति से व्यक्तित्व निर्माण होता है जबकि अनुशासन से जन शक्ति, ग्राम शक्ति एवं राष्ट्र शक्ति का l इसी प्रकार कुशल नेतृत्व में अनुशासित संगठन शक्ति द्वारा संचालित जो शासन भेदभाव रहित सबके हित के लिए एक समान न्याय करता है, वह सुशासन होता है l 
    जन्म लेने के पश्चात् जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है उसे सबसे पहले माँ का परिचय मिलता है फिर बाप का l उसे पता चलता है कि उसकी माँ कौन है और बाप कौन ? उसके माता-पिता उसे हर कदम पर उचित कार्य करने और गलत कार्य न करने के लिए उसका साथ देते हैं l इससे वह सीखता है कि उसे क्या अच्छा करना है और क्या बुरा नहीं ?
    यही कारण है कि जब बालक बचपन छोड़कर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो वह अपने घर के लिए अच्छे या बुर कार्यों को भली प्रकार समझने लगता है l वह जान जाता है कि घर की संपत्ति पूरे परिवार की संपत्ति होती है l वह तब ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे उसका अपना या अपने घर का कोई अहित हो l
    जब वह रोजगार हेतु सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है तब वह अपने घर में मिली उस बहुमूल्य शिक्षा को भूल जाता है कि जिस प्रकार माँ-बाप द्वारा बनाई गई सारी संपत्ति पूरे परिवार की अपनी संपत्ति होती है उसी प्रकार सरकारी या गैर सरकारी संस्थान की भी पूरे समाज या राष्ट्र की अपनी संपत्ति होती है तथा वह स्वयं उस संपत्ति का रक्षक होता है l

    इसका कारण यह है कि उसे मिली शिक्षा अभी अधूरी है क्योंकि कभी-कभी वह अपने कार्य क्षेत्र में तरह-तरह के फेरबदल, हेराफेरी और गबन इतिआदि कार्य करने से ही नहीं हिचकचाता या डरता बल्कि अपने से नीचे कार्यरत कर्मचारियों का तन, मन, धन संबंधी शोषण और उन पर तरह-तरह के अत्याचार भी करता है, मानों वे उसके गुलाम हों l लालच उसकी नश-नश में भरा हुआ होता है l
    मनुष्य की आवश्यकता है – संपूर्ण जीवन विकास l जीवन का विकास मात्र ब्रह्म विद्या कर सकती है l वह सिखाती है कि निष्काम भाव से कार्य कैसे करें और अपनी अभिलाषाएं कैसे कम करें ? जब हमारी इच्छायें कम होंगी तब हम और हमारा समाज सुखी अवश्य होगा l
    वन्य संपदा में पेड़-पौधे, जंगल दिन प्रतिदिन कम हो रहे हैं l उनकी कमी होने से जंगली पशु-पक्षियों व जड़ी-बूटियों का आभाव हो रहा है l भूमि कटाव बढ़ रहा है l बाढ़ का प्रकोप सूरसा माई की तरह अपना मुंह निरंतर फैलाये जा रही है l वन्य संपदा के आभाव, धरती कटाव और बाढ़ रोकने के लिए आवश्यक है जंगलों का संरक्षण किया जाना l वन्य पशु-पक्षियों को मारने पर प्रतिबंध लगाना l जड़ी-बूटियों को चोरी से उखाड़ने वालों से कड़ाई से निपटा जाना l यह सब रचनात्मक कार्य ग्राम जन शक्ति से किये जा सकते हैं l
    वर्तमान समय में विभिन्न राष्ट्रों के आपसी राजनैतिक मतभेद और संघर्षों के कारण हर राष्ट्र और राष्ट्रवादी दुखी व निराश है l जब भी युद्ध होते हैं, निर्दोष जीव व प्राणी मारे जाते हैं l राष्ट्रों का आपसी विरोध व शत्रुता कम होने के स्थान पर और अधिक बढ़ जाती है l ऐसे संघर्ष रोकने के लिए सारी धरती गोपाल की, भावना का विस्तार करना आवश्यक है l अगर हममें आपसी भाईचारा व बन्धुत्व भाव होगा तो हम अपना दुःख-सुख आपस में बाँटकर कम कर सकते हैं l
    संसार में जहाँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण के हिसाब से लाखों में जनसंख्या बढ़ रही है तो पौष्टिक पदार्थों के कम होने के साथ-साथ धरती भी सिकुड़ती जा रही है l कारखाने, सड़क, बाँध, भवन बनते जा रहे हैं l युवावर्ग में शारीरिक दुर्बलता, विषय-वासनाओं के प्रति मानसिक दासता बढ़ रही है l हमें चाहिए कि सयंम रहित जनन क्रिया को सामाजिक समस्या समझा जाये l समाज की समस्या परिवार की और परिवार की समस्या अपनी समस्या होती है या वह समस्या बन जाती है l इसलिए परिवार का सीमित होना अति आवश्यक है l
    कोई भी रोग किसी को हो सकता है l उसकी दवाई होती है या दवाई बना ली जाती है l रोगोपचार के लिए रोगी को दवाई दी जाती है l उसका उपचार किया जाता है और वह एक दिन रोग-मुक्त भी हो जाता है l विशाल समाज ऐसे विभिन्न रोगों से रोगग्रस्त हो गया है l सब रोगों की एक ही दवाई है ब्रह्म विद्या, जो मात्र सरस्वती विद्या मंदिरों के माध्यम से संस्कारों के रूप में. रोग निदान हेतु वितरित की जा सकती है l आइये ! हम विस्तृत समाज में ब्रह्म विद्या के सरस्वती विद्या मंदिरों की स्थापना करके इस पुनीत कार्य को संपूर्ण करें l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"