श्रेणी: स्व रचित रचनाएँ
-
श्रेणी:आलेख
हमारी हिन्दी भाषा
यह सत्य है कि हमारे देश के लोग, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार, राष्टीय भौगोलिक स्थिति, जलवायु और उत्पादन से देश की सभ्यता और संस्कृति को बल मिलता है। उससे भारत की पहचान होती है। अगर कभी इसमें विद्यमान गुण व दोषों को समाज के सम्मुख अलिखित रूप में व्यक्त करना पड़े तो हम उस माध्यम को भाषा का नाम दे सकते हैं।
-
श्रेणी:आलेख
राष्ट्र -हित कितना बौना!
किसी व्यक्ति का-अपना परिवार, परिवार का-समाज, समाज का-क्षेत्र, क्षेत्र का-राज्य, राज्य का-राष्ट्र, और राष्ट्र का-विश्व पूरक होता है। वे सब एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। इन्हें स्वयं के निर्वहन हेतु आपस में मधुर संबंध और सामंजस्य बनाए रखना अति आवश्यक है।
व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और जान-माल संबंधी रक्षा-सुरक्षा तक की विश्वसनीयता बनाए रखने की महती आवश्यकता होती है जिसमें स्वतन्त्रता, समता, और बन्धुता का समर्पण भाव विद्यमान होता है। इससे विश्व शान्ति बनती है।
”बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य“ पुस्तक जिसके लेखक स्वयं डा0 भीमराव आम्बेडकर हैं, की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि 29 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डा0 भीमराव आम्बेडकर ने संविधान पारित होते समय राष्ट्र को चेतावनी दी थी-”26 जनवरी 1950 को हम राजनीतिक जीवन में समान होंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमान। हमें इस विषमता को जल्द से जल्द हटाना होगा, वरना उस विषमता के शिकार हुए लोग राजनैतिक प्रजातन्त्र का यह ढांचा उखाड़कर फैंक देंगे।“
अगर डा0 भीमराव आम्बेडकर के यह विचार उस समय तर्क संगत रहे हैं तो आज के परिप्रेक्ष्य में भी उनका महत्व कम नहीं है। आज हमें प्रजातन्त्र के इस ढांचे को उखाड़कर नही फैंकना है बल्कि एक सच्चे भारतीय बनकर उसे अत्याधिक भली प्रकार संवारना है। राष्ट्र को आज इसकी आवश्यकता है। इसके लिए देश के प्रतिभाशाली राजगुरुओं, धर्माचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, शिक्षाविदों, अर्थ-शास्त्रियों, समाज सेवकों, डाक्टरों, इंजिनियरों, और न्यायविदों को समय-समय पर आत्म निरीक्षण करना होगा ताकि उनके कार्य और कार्य-प्रणाली की विसंगतियां दूर हो सकेें।
भारत अपने आप में एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक देश है जिसके विभिन्न क्षेत्रों में जहां छोटी-छोटी अनेकों क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां हैं, वहीं उसकी राष्ट्रीय स्तर का दम भरने वाली बड़ी-बड़ी पार्टियां भी हैं। ऐसे कोई भी पार्टी जब अपने निजी स्वार्थ और जन हित विरोधी नीतियों का शिकार हो जाती है और वह जनता की अदालत में अपना विश्वासमत खो बैठती है तब उसकी सरकार अल्पमत में होती है। परिणाम स्वरूप पुनः चुनाव होता है। जनता जिस पार्टी को चाहती है, वह उसको अपना वोट देकर सफल बनाती है। इससे उसे अपनी सरकार बनाने का अवसर मिलता है। इस प्रकार अल्पमत में आने या बार-बार चुनाव होने से, चुनावों में भारी खर्च होता है। यह कर्ज देश की उस गरीब जनता को महंगाई के रूप में चुकाना पड़ता है जिसे दो वक्त खाने के लिए भर पेट खाना नही मिलता है। फिर भी विभिन्न पार्टियों के कार्यकत्र्ता और नेता उससे उसका कीमती वोट मांगते हुए दिखाई देते हैं। भूखा पेट रहने वाले लोग उन्हें अपना कीमती वोट इस आशा से दे देते हैं शायद इस बार कोई तो उनकी सुध लेगा। वैसे चुनाव जीतकर नेताओं का ईद का चांद हो जाना आम बात है।
कृषि प्रधान होने पर भी देश का कृषि-बागवानी, पशुपालन, उत्पादन, निर्माण, और वाणिज्य-व्यापार का क्षेत्र-प्राकृतिक आपदाओं, वित्तीय कमियों, कुप्रबन्धन, अव्यवस्था, जन निरक्षरता, अज्ञानता, कुपोषण अयोग्यता और राजनीतिक अदूरदर्शिता पूर्ण जन विरोधी नीतियों का शिकार हो रहा है। उससे अल्प आय वाले, दैनिक वेतन भोगी और कम वेतन लेने वाले ही लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं। उनका दुख-दर्द बांटने वाला कोई नही होता है। उनके पास प्रयाप्त धन न होने के कारण वे सांसारिक सुख-सुविधाओं से सदैव वंचित रहते हैं। उनका भरपूर लाभ मात्र धनी लोग उठाते हैं। यही कारण है कि धनी लोग और धनवान और निर्धन अति गरीब हो रहे हैं। दोनों में गहरी खाई बढ़ रही है।
भारतीय समाज-पुरातन काल से-सनातन धर्म और उसकी संस्कृति से जुड़ा हुआ होने के कारण, वह राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में विश्व विख्यात है। उसका विनाश करने के लिए आज तक समाज विरोधी तत्वों ने अपनी ओर से जितने भी प्रयास किए हैं, बदले में उन्होंने मुंह की खाई है। इतिहास साक्षी है कि जाति एवं धार्मिक साम्प्रदायिक शक्तियों का शिकार होने वाले लोगों का जब-जब उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों से मोह भंग हुआ है तब-तब वे पुनः सनातन धर्म की ओर लौटे हैं।
भारतीय संस्कृति के अनुसार-वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली का आरम्भ ही जन हित विरोधी था, अब जन विरोधी है और आगे वैसा तब तक रहेगा जब तक उसे पूर्णतयः जड़ से उखाड़कर नहीं फैंक नही दिया जाता। कारण, उसकी कल्पना देश का हित चाहने वाले किसी स्वदेशी शिक्षाविद हितैशी ने नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के हितैशी एवं ब्रिटिश राजभक्त अंग्रेज मैकाले ने की थी जो भारत से उसकी समस्त सुख-समृद्धि छीनकर ब्रिटेन की खुशहाली में बदलना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रिटिश शासन ने छल, बल और समर का सहारा लेकर अनेकों प्रयास किए थे जिनके अंतर्गत भारत की अपार बहुमूल्य धन-सम्पदा को ब्रिटेन पहुंचाया गया था। उनमें पंजाब के अंतिम सिख महाराजा का बहुमूल्य कोहिनूर हीरा भी था जो आज ब्रिटेन की महारानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है।
यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि अंग्रेज मैकाले द्वारा प्रदत और ब्रिटिश-राज की पोषक वर्तमान शिक्षा प्रणाली को आज भी हम भारतीयों ने ज्यों का त्यों ही अपनाया हुआ है जिससे देश को बेरोजगारी, निर्धनता, चरित्रहीनता और कुसंस्कारों की फलित खेती मिल रही हैै। स्नातक युवा वर्ग के जीवन की बुनियाद दिन प्रति दिन नैतिक मूल्यविहीन होकर खोखली हो रही है। इससे स्पष्ट है कि मैकाले का उद्देश्य पूर्ण हुआ है। वह भारतीय परम्परागत गुरुकुल प्रधान शिक्षा प्रणाली और भारतीय संस्कृति बदलना चाहता था। गुरुकुल शिक्षा के अभाव में आज देश का युवा वर्ग अपनी कार्य कुशलता, सामर्थ्या, सदाचार और सुसंस्कार भूल रहा है। वह मेहनत करने की अपेक्षा लघु मार्ग से अधिक से अधिक आय के स्रोत ढूंढ निकाल लेना श्रेष्ठ समझता है। वर्तमान में उसके द्वारा बात-बात पर या उच्च अभिलाषा पूर्ण न होने पर आत्म-हत्या तक कर लेना आम बात है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय जनता को आशा थी कि उसे स्वशासन से सस्ता और त्वरित न्याय मिला करेगा। भविष्य में उसकी जान-माल की रक्षा-सुरक्षा सुनिश्चित होगी। पर काश! आजादी मिलने के पश्चात, देश की किसी भी छोटी या बड़ी पार्टी ने इस ओर कोई विषेष कारगर कदम नहीं उठाया है। आज देश भर में – ”देश का नव निर्माण“ करने के नारे तो खूब लगाए जा रहे हैं। गांव-गांव में पाठशालाएं खोली जा रही हैं। शहर-शहर में कालेज भी स्थापित हो रहे हैं पर अज्ञानता, हिंसा, आतंक, उग्रवाद, कुपोषण, अत्याचार के रूप में-दानवता का साम्राज्य जो यहां पराधीनता के समय विद्यमान था- स्वाधीनता मिलने के पश्चात भी तन्दूर सा दहक रहा है। जनहित का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टियां कोई बहाना मिलते ही, बिन देरी किए उस पर अपनी-अपनी राजनीतिक चपातियां सेंकनें लगती हैं। इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उभरते हुए ज्वलंत मुद्दे उनके घोषणा पत्रों में ग्रह-नक्षत्रों के समान दमकने लगते हैं। विभिन्न पार्टियों के द्वारा घोषणा पत्रों में जनता को अनेकों सब्ज-बाग दिखाए जाते हैं जो आगामी चुनाव में उसको अपनी ओर आकर्षित करने के ज्यादा और व्यावहारिक रूप में कम संसाधन सिद्ध होते हैं। इस प्रकार वह जो चाहें करती हैं, कर सकती हैं। सरकार में विद्यमान पार्टी को अपनी सरकार बचाने की चिन्ता रहती है। जन हित का सिर दर्द मोल लेने का उसके पास समय नहीं होता है। जनता द्वारा कोई मांग करने पर उसके आराम में खलल पड़ता है। उसे आंदोलन समझा जाता है। उसे कुचलने के लिए सुरक्षा बल अपना क्रूरता पूर्वक बल प्रयोग करता है। हिंसा भड़कती है। इससे मीडिया भी अछूता नहीं रहता है।
आज देश को महती आवश्यकता है ऐसे प्रतिभावान अभिभावकों, राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, अधिकारियों, न्यायविदों, राजगुरुओं, धर्माचार्यो, शिक्षकों, विद्यार्थिओं, श्रमिकों और समाज सेवकों की जिनकी अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में विद्यमान प्रशासन, वित्तव्यवस्था और कार्य प्रणाली पर अपनी मजबूत पकड़ हो। जिन्हें दोस्त और दुश्मन की भली प्रकार पहचान हो। जो राष्ट्र हित और अहित में भेद कर सकें। जो सत्य एवं असत्य का अन्तर समझ सकें ओर दोषी को निष्पक्षता पूर्ण कड़े से कड़ा दण्ड भी दिला सकें। जो जनहित की आवाज बुलंद करने में समर्थ हों और उसे व्यावहारिक रूप दे सकें। ऐसा जनहित एवं राष्ट्रीय कल्याण हेतु किया जाना अति आवश्यक है।28 सितम्बर 2008 कश्मीर टाइम्स
-
श्रेणी:आलेख
सुखदायक सत्य कड़वा होता है
योग्य गुरु द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान सुपात्र का प्रदान किया जाता है, कुपात्र को नहीं। सुपात्र उसका सदुपयोग करता है जबकि कुपात्र दुरुपयोग। वही विद्यार्थी गुरु का मान बढ़ाता है और स्वयं महान बनता है जो गुरु के निर्देशानुसार जन सेवा एवं जग कल्याण के कार्य करता है।
1 प्रकृति का अनुभव प्राप्त किए बिना व्यक्ति की अपनी आत्मा का भली प्रकार पोषण नहीं होता है।
2 व्यक्ति द्वारा सत्य जान लेने से असत्य की परिभाषा बदल जाती है।
3 आपसी झगडों व तनाव से परिवारों को हानि पहुंचती है जबकि दुश्मन को लाभ होता है।
4 पारिवारिक झगड़ों से समाज कमजोर होता हैं।
5 पारिवारिक मतभेदों को परिवार में ही समाप्त कर लेना बुद्धिमानी का कार्य है।
6 किसी परिवार का अपमानित किया हुआ तनाव ग्रस्त, क्षुब्ध व्यक्ति आने वाले समय में अपने या पराए विरुद्ध कुछ भी कर सकता है।
7 व्यक्ति, समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, उपद्रवी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा बढ़ाकर उग्रवाद को जन्म देते हैं।
8 क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन होता है।
9 दुश्मन कभी कमजोर नहीं होता है।
10 अलगाव एवं अफवाहों का शिकार होने पर व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र संकट ग्रस्त हो जाते हैं।
11 अगर समाज,क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
12 इतिहास साक्षी है कि कपर्यु, आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वालों को कभी सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
13 कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
14 वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र को सुरक्षित रखते हैं जो अपनी रक्षा-सुरक्षा आप करतेे हैं।
15 वासना, विकार, नशा, आलस्य, निद्रा और व्यभिचार में आसक्त नौजवानों का विनाश होना सुनिश्चित है।
16 नीति-धर्म का मर्म समझने वाले नौजवान के लिए अधर्म कभी बाधक नहीं होता है।
17 आत्म विश्वास से कार्य करने पर नौजवान को उसके कार्य में सफलता अवश्य मिलती है।
18 आवेश में आकर युवा बंद, चक्काजाम, और हड़ताल का आह्वान करके भूल जाते हैं कि इससे जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र की कितनी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
19 वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
20 मैदान में आए बिना रण की बातें करने से कभी कोई दिग्विजयी नहीं बन जाता है।
21 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य परायणता से जाना जाता है।
22 वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।
23 गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
24 मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
25 कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
26 सच्चे रणवीर, कर्मवीर, धर्मवीर और ज्ञानवीर – शब्द, रूप, रस गंध और स्पर्ष रूपी कांटों को पैरों तले रौंद कर मात्र उच्च लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
27 संकट या अफवाहों के रहते वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
28 ज्ञान, विवेक और वैराग्य से सुसज्जित वीर राष्ट्र, राज्य, क्षेत्र, समाज और जन साधारण की रक्षा एवं सुरक्षा करने में समर्थ होते हैं।
29 आत्म-हत्या कायर करते हैं, वीर नहीं।
30 सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क सदैव सर्वहितकारी और धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
31 राष्ट्रहित में – सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण-कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
32 सच्चे वीर स्वतन्त्रता पूर्वक धरती का सुख भोगते हेैे जबकि कायर पराधीन हो कर दुख प्राप्त करते हैं।
33 दुश्मन को कमजोर समझने वाला वीर अपनी कमजोरी के कारण जल्दी परास्त हो जाता है।
34 संकट या अफवाहों में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की वास्तविक परख होती है।
35 लोगों का शांत और मर्यादित जुलूस सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
36 स्पष्ट रूप से परिभाषित किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देष्य में सफलता अवश्य मिलती है।
37 राष्ट्र, राज्य, क्षेत्र, समाज, परिवार और जनहित की सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण होती है।
38 राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
39 गाय का दूध, ब्राह्मण हितोपदेश, गीता ज्ञान और शुद्ध पर्यावरण का प्रभाव सदैव सर्वहितकारी होता है।
40 राष्ट्रीय सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।14 सितम्बर 2008 कश्मीर टाइम्स
-
श्रेणी:आलेख
औेर लम्बी होंगीं बेरोजगार श्रृंखलाएं!
भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़तेे साम्राज्य से असंख्य स्नातक-बेरोजगार की लम्बी श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं। उनके हाथों का कार्य कल-कारखानें और मशीनें ले चुकी हैं। वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं।
भारत में वह भी एक समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में काम होता था। लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण किया करतेे थे। कोई कहीं चोरी नहीं करता था। वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ समझते थे। कोई भीख नही मांगता था। इस प्रकार देश की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख शांति थी। लार्ड मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात 2 अक्तूवर सन् 1835 में ब्रिटिश सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था।
वर्तमानकाल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज संयम, शांति, सन्तोष, विनम्रता आदर-सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता एवं सेवा भक्ति-भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा और आचार-व्यवहार भूल ही नही रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है। वह ऐसा करना श्रेष्ठ समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किए गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है। इस समय समाज को महती आवश्यकता है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की।
भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता से अधिक किया जाने वाला उपयोग है। हम दिन प्रति दिन पूर्णतयः कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं। यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है। ऐसी राष्ट्रीय नीति उस देश को अपनानी चाहिए जहां जन संख्या कम हो। पर्याप्त जन संख्या वाले भारत देश में कल-करखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक से अधिक कार्य लेना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी। स्नातक, युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है। कल-कारखानें और मशीनें भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं। वह तो कृषि -वागवानी, पशु -पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक खाद्य पदार्थाें का सेवन करने से प्राप्त होता है।
हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाए गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाए हुए, ताजा खाद्य पदार्थाें का, अपनी आवश्यकता अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए।
भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनानें में पहल करनी होगी। उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्त-कला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके। उनके द्वारा बनाए गए सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके। देश में कहीं पेयजल, कृषि भूमि और प्राण-वायु की कमी न रहे। इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है।
सितम्बर 2008
मातृवन्दना
-
श्रेणी:कवितायें
शहरी नाले की व्यथा
27 जुलाई 2008 कश्मीर टाइम्स
अपना भी स्वच्छ जल था मेरा
सदा स्वच्छ ही नीर बहता था
हर जगह उपयोगी पानी चाहने बालो
मुझमें गंदगी बहाओ न
मुझे और दूषित बनाओ न
तुम सुबहशाम आकर यहीं नहाते थे
धोकर कपड़े साहिल पर ही सुखाते थे
बना शिकार मच्छली चाव से खाने बालो
मुझमें गंदगी बहाओ न
मुझे और दूषित बनाओ न
मेरे जल संग जल गंदा गंदगी बहाने बालो!
मुझसे लिफाफे पालीथिन बोतलें प्लास्टिक नहीं गलाए जाते
गड्ढे नालियों में रोग किटाणुओं को बढा़ने बालो
मुझमें गंदगी बहाओ न
मुझे और दूषित बनाओ न
तुम चाहो तो स्वच्छ उपयोगी बनाए रखो मुझको
दूसरों की रक्षा करो और सुरक्षित रखो खुद को
कोई गंदगी फेैलाए न परदोष निहारने बालो
मुझमें गंदगी बहाओ न
मुझे और दूषित बनाओ न
चेतन कौशल "नूरपुरी"