मानवता

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श्रेणी: स्व रचित रचनाएँ

  • भारतीय शिक्षा-प्रणाली
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    भारतीय शिक्षा-प्रणाली

    प्रिय होने के नाते आदि काल से ही भारतवर्ष  महान पुरुषों  का देश  रहा है। उनमें श्री राम, श्री कृष्ण , गुरु नानक देव, आदि गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द जी का नाम सर्वोपरि है।
    इन महान पुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन, चिन्तन-मनन करने से हमें अनेकों ऐसे दीप्त ज्ञान-स्तंभ दिखाई देते हैं जिनके प्रकाश  में समग्र मानव जाति का कल्याण होना निश्चित  है।
    इस समय आवश्यकता  इस बात की है कि पहले हम स्वयं उन दिव्य ज्ञान-स्तंभों की भली भांति पहचान कर लें और फिर उनके बारे में दूसरों को भी बताएं। अतः स्थानीय गुरु के सानिध्य में, गुरु व शिष्य  के मध्य मानवीय, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, साहित्यिक, ज्ञान-विज्ञान और कला-सांस्कृतिक विषयों  के बारे में कुछ सीखने-सिखाने की प्रकिया ही का दूसरा नाम शिक्षा है। इसके बारे में स्वामी जी रामतीर्थ का कथन है – ‘‘वास्तविक शिक्षा का आदर्श  यह है कि हम अपने भीतर से कितनी विद्या बाहर निकाल चुके हैं, यह नहीं कि बाहर से कितनी अन्दर डाल चुके हैं। सच्चा ज्ञान वही है जो सृष्टि  के कल्याण के लिए उपयोगी हो।
    आज के भारत को किस प्रकार की शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता  है? आइए! हम इस गहन-गम्भीर प्रश्न  का उत्तर पाने के लिए भारतीय महान पुरुषों  के द्वारा स्थापित किए गए उन दिव्य ज्ञान-स्तम्भों का अवलोकन करें जो वर्तमान राजनैतिक इच्छा-शक्ति न होने पर भी हमारा पग-पग पर मार्ग-दर्शन  कर रहे हैं।
    आध्यात्मवादी शिक्षा
    1 भेद-भाव रहित सबके लिए एक समान आध्यात्मिक शिक्षा ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, छूत-अछूत, छोटा-बड़ा, गोरा या काला की दीवारों और लिंग-भेद आदि से स्वयं सदैव अनभिज्ञ रहती है। आध्यात्मिक शिक्षा से समग्र मानव जाति का एक समान कल्याण होता है। इससे मानवात्माओं का परमात्मा से मिलन होता है। छात्र-छात्राओं के द्वारा गुरुजनों के सानिध्य में रह कर योग, ध्यान, प्राणायाम, संबंधी पुरुषार्थ  करने पर आत्म शांति  का मार्ग प्रप्रशस्त होता है।
    2 यथार्थवादी शिक्षा सत्य-असत्य में ज्ञान-अज्ञान का भाव रखती है। गुण-अवगुण में लाभ-हानि का अन्तर समझाती है।?
    भौतिक वादी शिक्षा
    1 स्थानीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति उत्तरदायी शिक्षा मानव जाति, मानव के खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार और परिवार के साथ-साथ स्थानीय भाषा , पहनावा, रीति-रिवाज तथा कला-संस्कृति की स्पष्ट  झलक दर्शाने  वाली है।
    2 मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा सदगुणों को बढ़ावा देती है। छोटों में बड़ों के प्रति श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास  जगाती है। बड़ों में छोटों के प्रति सुस्नेह का वर्धन करती है। समर्थवानों में दुखियों के प्रति करुणा, दया, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना उपजाती है।
    3 कलात्मक एवं व्यावसायिक शिक्षा से शिक्षार्थी कला अथवा व्यवसाय का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करता है जिससे वह अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करता है। इसी से वह समाज की यथा संभव तथा यथा शक्ति सेवा करता है।
    4 नैतिक एवं व्यावहारिक शिक्षा से छात्र-छात्राओं को स्वयं जीने और समाज में रहने की कलाओं का ज्ञान होता है। वे सीखते हैं कि समाज में उन्हें स्वयं कैसे रहना है? उन्हें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना है?
    5 महिला संबंधी जीवनोपयोगी शिक्षा से छात्राओं को अपने जीवन की उपयोगिता का ज्ञान होता है। इससे उन्हें अपने कर्तव्यों और अधिकारों की पहचान होती है। इससे वे आत्म-रक्षा करना सीखती हैं। शादी के पश्चात  ज्ञान के आधार पर ही वे अपने परिवार में, अपने बच्चों का भली-भांति पालन-पोषण  करती हैं और समाज के प्रति सजग भी रहती हैं।
    6 सहशिक्षा या छात्र-छात्राओं की संयुक्त शिक्षा से छात्र-छात्राओं को आपस में एक दूसरे से वार्तालाप करने और एक दूसरे को समझने का सुअवसर मिलता है। इससे उनका मानसिक, कार्मिक तथा वाचिक विकास तो होता है, साथ ही साथ उनमें विद्यमान संकोच की भावना भी नष्ट  हो जाती है। छात्र मित्र की भांति छात्रा मित्र भी लक्ष्य प्राप्ति में अधिक विश्वास  पात्र सिद्ध हो सकती है अगर वे दोनों अपने-अपने लक्ष्यों के प्रति जागरुक हों। वे दिव्य-पथ से भटक न पाएं इसलिए उनमें अपने-अपने लक्ष्य-वेधन के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति, शुद्ध भावना और कड़ी मेहनत के साथ-साथ ब्रहमचर्य जीवन का महत्व समझना तथा व्यावहारिक जीवन अपनाना अति आवश्यक  है। इस प्रकार वे विशेष  जीवनोपयोगी उर्जा संचित करते हुए पूर्ण स्नातक बनते हैं । इसी बल पर वे अपने होने वाले भावी गृहस्थ जीवन को सुखी बनाते हैं।
    7 मितव्ययी उच्चशिक्षा कभी किसी को कहीं मिलती नहीं है बल्कि उसकी व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके लिए सजग अभिभावकों, गुरुजनों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों  को मिल कर एक मंच बनाना होता है और उसके लिए उन्हें समर्पित भाव से कार्य करना पड़ता है ताकि देश  का कोई गरीब से गरीब होनहार प्रतिभाशाली अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करने से कभी वंचित न रह सके।
    8 स्वदेशी  शिक्षा किसी स्वदेशी  या विदेशी  प्रशासक के द्वारा स्वदेशी शिक्षार्थी पर थोपी या लादी जाने वाली वस्तु नहीं है बल्कि स्वदेशी  शिक्षक की अन्तरात्मा द्वारा उद्घोशित तथा आत्म स्वीकृत प्रतिभा का विषय  है जिसे एक अनुभवी प्रतिभावान स्वदेशी  शिक्षक ही उचित समय पर नवोदयी प्रतिभाशाली  शिक्षार्थी को अपना क्षणिक मात्र सहारा दे सकता है। वह प्रतिभाशील उसका सहारा पा कर स्वयं प्रकाशित हो जाता है।
    9 सशक्त  एवं समर्थ शिक्षा शिक्षार्थी जीवन को समर्थ बनाती है। इससे राष्ट्र सशक्त  एवं समर्थवान बनता है।
    10 प्रदूषण  मुक्त शैक्षिक वातावरण से मन, कर्म, वाणी के आचार-व्यवहार में शुद्धता आती है। व्यक्तित्व में निखार आता है और इससे प्रकृति एवं पर्यावरण को भी चार चांद लग जाते हैं।
    11 आदर्श शिक्षा-प्रणाली की अपनी पहचान होती है। आदर्श शिक्षा-प्रणाली संसार में जन कल्याणकारी, रचनात्मक एवं व्यावहारिक ज्ञान का प्रकाश  फैलाती है। इससे मानसिक, कार्मिक, तथा वाचिक अज्ञान नष्ट  होता है।
    12 विकासशील राष्ट्रीय  प्रमाणिक पाठयक्रम पर आधारित शिक्षा से युवावर्ग की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसी से राष्ट्र  की अपनी पहचान और उसकी शक्ति का संवर्धन होता है। युवा वर्ग राष्ट्र  के प्रति सेवा एवं भक्ति भाव वाला होता है।
    13 राजनैतिक हस्तक्षेप मुक्त शैक्षिक प्रशासनिक और प्रबंधन से शिक्षा-तन्त्र ठोस, सुरक्षित, गतिशील रहता है। शैक्षिक प्रशासन और प्रबंधन से सतर्कता, तत्परता, पारदर्शिता और कार्यकुशलता का होना अति आवश्यक  है। इस आवश्यकता की पूर्ति सर्वदा राजनैतिक हस्तक्षेप मुक्त वरिष्ट  शिक्षाविदों के संरक्षण में मात्र स्वशासित राष्ट्रीय शैक्षनिक अनुसन्धान एवं[प्रशिक्षण  संस्थान ही कर सकती है।
    14 योग्य शिक्षक योग्य शिक्षार्थी का निर्माता होता है इसलिए शिक्षक का योग्य होना अनिवार्य है।
    15 योग्य शिक्षार्थी ही राष्ट्र  का योग्य नागरिक बनता है अतः शिक्षार्थी का योग्य होना अति आवश्यक  है।
    इससे स्पष्ट  हो जाता है कि भारत की आध्यात्मिक एवं भौतिकवादी संयुक्त शिक्षा-प्रणाली ही भारत का अपना मूल दर्पण है। अगर किसी जिज्ञासु को भारत-दर्शन करना है तो उसे मार्ग-दर्शन पाने हेतु पहले गुरुजनों के द्वारा संरक्षित भारत की गुरुकुल प्रधान भारतीय शिक्षा-प्रणाली का एक बार अवलोकनअवश्य  कर लेना चाहिए।
    28 जून 2009
    कष्मीर टाइम्स

  • बोलने की अपेक्षा
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    बोलने की अपेक्षा

    धर्म की जय हो। अधर्म का नाश  हो। प्राणियों में सद्भावना हो। विश्व  का कल्याण हो। गौ माता की जय हो। यह उद्घोष देश  के गांव-गांव व शहर-शहर के मंदिरों में सुबह-शाम सुनाई देते हैं। यहां यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि हम वहां कौन सा उदघोष  कितने जोर से उच्चस्वर में करते हैं बल्कि वह यह है कि हम उसे आत्मसात् भी करते हैं कि नहीं?
    हम धर्म की जय के लिए क्या कर रहे हैं? हमसे कहीं अधर्म तो नहीं हो रहा? प्राणियों में सद्भाना कहां से आएगी? विश्व  का कल्याण कौन करेगा? गौ माता की जय करने के लिए हमारे अपने क्या-क्या प्रयास हो रहे हैं?
    धर्म और अधर्म दोनों एक दूसरे के विपरीतार्थक शब्द  हैं। जहां धर्म होता है वहां अधर्म किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व जमाने का प्रयास अवश्य करता है पर जहां अधर्म होता है वहां धर्म तभी साकार होता है जब वहां के लोग स्वयं जागृत नहीं होते हैं। लोगों की जागृति के बिना अधर्म पर विजय कर पाना कठिन है। धर्म दूसरों को सुख-शांति  प्रदान करता हैं। उनका दुःख-कष्ट  हरता है जबकि अधर्म सबको दुःख, अशांति  और पीड़ा ही पहुंचता  है।
    सद्भावना सत्संग करने से आती है। सत्संग का अर्थ यह नहीं है कि भजन, कीर्तन, और प्रवचन करने के लिए बड़े-बड़े पंडाल लगा लिए जाएं। लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी कर ली जाए। स्पीकरों व डैकों से उच्च स्वर में सप्ताह या पंद्रह दिनों तक खूब बोल लिया और फिर उसे भूल गए। सत्संग अर्थात सत्य का संग या उसका आचरण करना जो हमारे हर कार्य, बात और व्यवहार में दिखाई दिया जाना अनिवार्य है। जहां सत्संग होता है वहां सद्भावना अपने आप उत्पन्न हो जाती है।
    इस प्रकार जहां सद्भावना होेती है वहां दूसरों की भलाई के कार्य होना आरम्भ हो जाते हैं। इसी विस्तृत कार्य प्रणाली को परोपकार कहा गया है। जिस व्यक्ति में परोपकार की भावना होती है और वह परोपकार भी करता है, उससे उसका परिवार, समाज, राष्ट्र  और विश्व प्रभावित अवश्य  होता है। परोपकार से विश्व  का कल्याण होना निश्चित  है।
    गौ माता की जय करने के लिए गाय के आहार हेतु चारा पीने के लिए पानी के साथ-साथ रहने के लिए गौशाला और उसकी उचित देखभाल भी करना जरूरी है। उसे बूचड़खाना और कसाई से बचाना धर्म है। जो व्यक्ति और समाज ऐसा करता है उसे उद्घोषणा करने की कभी आवश्यकता  नहीं पड़ती है बल्कि वह उसे अपने कार्य प्रणाली से प्रमाणित करके दिखाता है।
    वास्तव में धर्म की जय, अधर्म का नाश , प्राणियों में सद्भावना, विश्व  का कल्याण और गौ माता की जय तभी होगी जब हम सब सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्य करेंगे। यदि विश्व  में मात्र बोलने से सब कार्य हो जाते तो यहां हर कोई बोलने बाला होता, कार्य करने वाला नहीं किसी को कोई कार्य करने की आवश्यकता  न पड़ती।
    28 जून 2009
    कष्मीर टाइम्स

  • श्रेणी:

    हमारी जिम्मेदारी

    24 मई 2009 कश्मीर टाइम्स

    कुछ ऐसी वस्तुओं का हमनें प्रयोग शुरू है करना,
    दूसरी बार जिनका प्रयोग हो न सके,
    प्लास्टिक, पॉलीथिन का प्रयोग बंद है करना,
    जिन वस्तुओं से पर्यावरण प्रदूषण रुक न सके,
    हटाना है हमने प्लास्टिक, पॉलीथिन वस्तुओं को,
    पर्यावरण प्रदूषण, फैलता है जिन वस्तुओं से,
    अपनाना है, हमनें फिर से उन वस्तुओं को,
    पर्यावरण प्रदूषण न फैले, जिन वस्तुओं से,
    पर्यावरण प्रदूषण की वस्तुओं का, हमने करना है उत्पादन
    तो उन्हें हटाने की भी हम क्यों न जिम्मेदारी लें
    उपभोक्ता नहीं चाहते पर्यावरण प्रदूषण और उत्पादन,
    आओ! पर्यावरण प्रदूषण मिटाने की हम जिम्मेदारी लें


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    शिक्षा कहां मिलेगी ?

    3 मई 2009 कश्मीर टाइम्स

    कार्य प्रयास करें जो सबका भला,
    सबके काम आएं जो विधि-विधान,
    संस्कारों का आचरण सदा यथार्थ हो,
    कार्य-व्यवहार करें जीवनोपयोगिता बयान,
    ज्ञान बढ़े और हो जिससे आत्मरक्षा,
    स्वास्थ्य वर्धन करे और रहे सामाजिक सुरक्षा,
    देगा कौन? हमें ऐसी शिक्षा,
    मिलेगी कहां? हमें ऐसी शिक्षा,


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    मेहनत का राज

    12 अप्रेल 2009 कश्मीर टाइम्स

    मेहनत करने वालों को काम बहुत हैं,
    नहीं करने वालों को बहुत हैं बहाने,
    बही कहें आँगन टेढा,
    जो कभी नाचना न जाने,
    मेहनत लगन से होती है,
    दिल-दिमाग एक करना जो जाने,
    मेहनत करने वालों को काम बहुत हैं,
    नहीं करने वालों को बहुत हैं बहाने,
    जबरन उनको काम पर न लगाना,
    ध्यान जिन्होंने काम पर नहीं लगाना,
    लगन से मुश्किल काम आसान हो जाते,
    आओ चलें! कार्यकुशल मेहनती अपनाने,
    मेहनत करने वालों को काम बहुत हैं,
    नहीं करने वालों को बहुत हैं बहाने,
    धनदौलत अर्जित होती है
    और ठाटबाट भी, क्या कहने!
    धनदौलत उन्हीं की दासी होती है,
    धन सदुपयोग करना जो जाने,
    मेहनत करने वालों को काम बहुत हैं,
    नहीं करने वालों को बहुत हैं बहाने,
    सारा बाजार उन्हीं का होता अपना,
    जान लेते बाजार के सारे जो मायने,
    मेहनत करना अपना धर्म वो समझते,
    नहीं ढूंढते, नहीं करने के जो बहाने,
    मेहनत करने वालों को काम बहुत हैं,
    नहीं करने वालों को बहुत हैं बहाने,


    चेतन कौशल "नूरपुरी"