कश्मीर टाइम्स 3 अक्तूबर 2010
वेद भारती संस्कृति, वेद भारती समृद्धि, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
वेद भारती आयना, वेद भारती आत्मा, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
वेद भारती ज्ञान, वेद भारती विज्ञान, सत्यमेव-------सत्यमेव
वेद आर्य कर्म, वेद आर्य धर्म, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
वेद मान भारती, वेद प्राण भारती, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
वेद भू भारती, आर्य भू भारती, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
वेद भाग्य विधाता, वेद मुक्तिदाता, सत्यमेव------- जयते
वेद प्रयास महान, जाने सकल जहान, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
वेद भू नमन, आर्य भू नमन, सत्यमेव जयते-------सत्यमेव जयते
चेतन कौशल "नूरपुरी"
श्रेणी: स्व रचित रचनाएँ
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श्रेणी:कवितायें
वेद महिमा
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श्रेणी:कवितायें
हिंदी भाषा संकल्प
मातृवन्दना सितम्बर 2010
हिंदी हो, हिन्द की भाषा,
हिंदी से हिन्द की पहचान हो,
हम सब बोलें भाषा हिंदी,
यही संकल्प हमारा हो
घर हो या दफ्तर,
गली चाहे कोई दुकान हो,
निःसंकोच हम बोलें भाषा हिंदी,
यही संकल्प हमारा हो
बात हो पत्र लिखने की
या विज्ञापन प्रकाशन हो,
लिखें हम भाषा हिंदी,
यही संकल्प हमारा हो
हिंदी जोड़े गांव-गांव
अखंड भारत सजने दो,
हिंदी छाए सारे जगत में,
यही संकल्प हमारा हो
अहिन्दी राज्य टकराना भूलें,
राष्ट्रीय संचालन हिंदी हो,
कोई बैरी न तोड़े प्यारा भारत,
यही संकल्प हमारा हो
हिंदी राज हो भारत में,
अन्य भाषाओँ का भी सम्मान हो,
जन-जन की हो भाषा हिंदी,
यही संकल्प हमारा हो
चेतन कौशल "नूरपुरी"
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श्रेणी:आलेख
मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा-प्रणाली
हिमाचल की मासिक पत्रिका मातृवंदना अगस्त 2010 में पृष्ठ संख्या 19 पर प्रकाशित लेख “मैकाले की सोच-1835 ई0 में” के अनुसार यह एक वास्तविक लेख है। इसकी प्रति मद्रास हाईकोर्ट के अभिलेखों से प्राप्त हुई है। ब्रिटिश पार्लियामेंट के रिकाॅर्ड में सुरक्षित है। लाॅर्ड मैकाले को भारत में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लाॅर्ड विलियम वेंटिंग की कौंसिल का सदस्य नामजद कर भारत भेजा गया था। अपने भारत-भ्रमण के अनुभवों एवं अध्ययन के पश्चात उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह रिपोर्ट भेजी थी-
“मैने पूरे भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है पर मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला, जो चोर हो। ऐसे धनी देश के अपने ऊँचे सामाजिक मूल्य हैं। यहां लोगों के पास बड़ी दृढ़ शक्ति है। इस देश को हम कभी जीतने की सोच भी नहीं सकते। हम इसे तब तक नहीं जीत सकते, जब तक हम विरासत इस देश की रीढ, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक को नहीं तोड़ देते। इसलिए मै इसकी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा पद्धति को हटाने का सुझाव देता हूंँ। जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशि चीजें और अंग्रेजी भाषा अपने से अच्छी हैं, तब वे अपना आत्मसम्मान और अपनी संस्कृति को खो देंगे। उसे भूल जाएंगे और तब वे वैसे बन जाएंगे जैसा अधिपत्य राष्ट्र हम चाहते हैं।
यह उसका एक ऐसा सुझाव था जो आगे चल कर भारतीय सभ्यता- सास्कृति, धर्म-संस्कार और परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के लिए महाघातक सिद्ध हुआ। मैकाले के उपरोक्त सुझाव के आधार पर अंग्रेजों ने सन् 1840 ई0 में कानून बनाकर भारत की जनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को हटा दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवं साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान, कर्मनिष्ठां, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में उसकी रीढ़ थी। उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजीभाषी शिक्षा-प्रणाली लागू की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यन्त कारगर सिद्ध हुई।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सत्तासीन राजनेताओं को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने सशक्त भारत का निर्माण करना है और इसके लिए उन्हें जनप्रिय स्थानीय भाषा , हिंदी, अथवा संस्कृत के आधार पर गुरुकुलों की भी स्थापना करनी है। देखने में आ रहा है कि निहित स्वार्थ में डूबे हुए, देश को भीतर ही भीतर खोखला एवं खण्ड-खण्ड करने के कार्य में सक्रिय अमुक देशद्रोही, अंग्रेजी पिट्ठू प्रशासकों के द्वारा देश के गांव-गांव और शहर-शहर में मात्र मैकाले की सोच के आधार पर अंगे्रजीभाषी पाठशालाएँ, विद्यालय एवं महाविद्यालय ही खोले जा रहे हैं। उनके द्वारा राष्ट्रीय जनहित-अहित का विचार किए बिना उन्हें धड़ाधड़ सरकारी मान्यताएँ भी दी जा रही हैं । जबकि वे न कभी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अनुकूल रहे और न कभी हुए। उनमें गुरुकुलों जैसी कहीं कोई गरिमा भी नहीं दिखाई देती।
युगों से सोने की चिड़िया – भारत की पहचान बनाए रखने में समर्थ रह चुके गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक, संवर्द्धक होने के साथ-साथ मानव जीवन की कार्यशालाओं के रूप में छात्र-छात्राओं एवं साधकों के नव जीवन निर्माता भी थे। नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म-संस्कार और शिक्षा न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उनसे जनित उसकी सुख-समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी। इस बात को कौन नहीं जानता है कि आतंक फैला कर आपार धन-संपदा लूटना, भारतीय सभ्यता-संस्कृति नष्ट करना और फूट डालकर सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य स्थापित करना ही अक्रांता ईस्ट-इंडिया कम्पनी का मूल उद्देश्य था।
आज भारतीय राजनीतिज्ञ भारतीय संस्कृति की सुगन्ध की कामना तो करते हैं पर उनके पास उसकी जननी गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली उपलब्ध नहीं है। इसलिए हम सब जागरूक अभिभावकों, गुरुजनों, प्रशासकों और राजनेताओं को एक मंच पर एकत्र होकर होनहार बच्चों, छात्र-छात्राओं एवं साधकों के संग अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर जनोपयोगी एवं परंपरागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की पुनस्र्थापना करके उसे अपने जीवन में समझना और जांचना होगा क्योंकि बच्चों और शिक्षार्थियों के जीवन का नव निर्माण राजनीति, भाषण या उससे जुड़े ऐसे किसी अंदोलन से कभी नहीं हुआ है और न हो ही सकता है बल्कि एक सशक्त शिक्षा-प्रणाली के द्वारा ज्ञानार्जित करने से ही ऐसा होता रहा है और आगे होगा भी। इसकी पूर्ति करने में भारतीय परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली पूर्णत्या सक्षम और समर्थ रही है। इसका भारतीय इतिहास साक्षी है जिसे पढ़ कर जाना जा सकता है।
अगर मैकाले सन् 1840 ई0 में अपने संकल्प से भारत में परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली समाप्त करवा कर अंगे्रजी शिक्षा-प्रणाली जारी करवा सकता था तो हम भी सब मिलकर राष्ट्रीय जनहित न्यायालय तक अपनी संयुक्त आवाज पहुंचा सकते हैं। वहां से अध्यादेश पारित करवा कर भारतीय आशाओं के विपरीत अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली को निरस्त करवा सकते हैं। क्या हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हम उसके स्थान पर फिर से भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को लागू करवा सकें? अतीत में हम सब सार्वजनिक रूप से सुसंगठित और जागरूक रहे हैं – अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे। विश्व में कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती। ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
आइए! हम सब मिलकर प्रण करें और इस पुनीत कार्य को सफल करने का प्रयास करें। यह तो सत्य है कि बबूल के बीज से कभी आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती। हम पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के बल पर भारत के पुरातन गौरव एवं सुख-समृद्धि की मनोकामना कैसे कर सकते हैं?……अगस्त 2010 मातृवंदना
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श्रेणी:कवितायें
चोर
21 मार्च 2010 कश्मीर टाइम्स
काला होता है मन मेरा, काला ही सबको कहता हूँ,
चोर भाव छुपाता है मन मेरा, चोर ही सबको कहता हूँ,
नजर मेरी सबको देखती है, पर खुद को न कभी देख पाई है,
ढूंढता हूँ बाहर, छुपाए चोर भीतर, नहीं बात समझ में आई है,
चोर हूँ, क्यों न चोरी छोड़ूँ! कुछ ऐसे भी कर लूँ काम,
सज्जन मैं भी बन जाऊं, दुर्जनों के सब छोड़ दूँ काम,
छोटी-छोटी चीज के लिये, क्यों नियत खराब कर लूँ मैं?
इज्जत हो जमाने में मेरी भी, वस्तु पूछकर क्यों न ले लूँ मैं?
चेतन कौशल "नूरपुरी"
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भटका राही
कश्मीर टाइम्स 21 फरवरी 2010
भटक गया हूँ, राह से
राह मैं अपनी भूलकर
सही राह पर, आऊं भी तो
कैसे? मैं राह खुद की खुद पहचानकर
इच्छा और आशाओं के गहन अंधेरे में
खो गया मेरा जीवन है
तालाश खुद की, खुद करूँ कैसे?
मैं नाहक बन गया दीन हीन हूँ
क्या है अच्छा, क्या है बुरा?
उलझन में उलझकर रह गया हूँ
मैं खुद को देखू कैसे, हूँ कहां?
पता नहीं, मैं कर रहा हूँ क्या?
ऊपर मेरे नीली चादर,
खड़ा मैं तपती जमी पर,
करना है मैनें, जाने क्या
और किधर है अपनी मेरी डगर?
चेतन कौशल "नूरपुरी"