मानवता

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श्रेणी: स्व रचित रचनाएँ

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    भारतीय शिक्षा की महक

    आलेख शिक्षा दर्पण - असहाय समाज वर्ग 1995 अक्तूबर दिसम्बर 
    प्राचीन भारतीय निशुल्क शिक्षा-प्रणाली अपने आप में विशाल हृदयी होने के कारण विश्वभर में जानी और पहचानी गई थी l भारत विश्व गुरु कहलाया था l भारतीय शिक्षा गुरुकुल परम्परा पर आधारित थी जिसमें सहयोग, सहभोज, सत्संग, लोक अनुदान की पवित्र भावना सद्विचार,सत्कर्मो से विश्व का कल्याण होता था l गुरुकुल कभी किसी का शोषण नहीं, मात्र पोषण ही करते थे l तभी तो “सारी धरती गोपाल की है l“ भारत मात्र उद्घोष ही नहीं करता है, सारे विश्व को एक परिवार भी मानता है l 
    गुरुकुल में राजा, रंक और भिखारी सभी के होनहार बच्चों को अपने जीवन में आगे बढ़ने का एक समान सुअवसर प्राप्त होता था l उनके साथ एक समान व्यवहार होता था l गुरु व आचार्य जन शिष्यों के अँधेरे जीवन में तात्विक विषय ज्ञान-विज्ञान, ध्यान, लग्न, मेहनत, योग्यता, निपुणता, प्रतिभा और शुद्ध आचार-व्यवहार जैसे सद्गुणों का प्रकाश करके उन्हें दीप्तमान करते थे l इससे बच्चों के जीवन की नींव ठोस होती थी l उनके शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विकास होता था l बच्चे विश्व-बंधु बनते थे जो गुरु व आचार्यों के आशीर्वाद और बच्चों की लग्न तथा मेहनत का ही प्रतिफल होता था l
    भारतीय गुरुकुलों में शिक्षण-शुल्क प्रथा का अपना कोई भी महत्व नहीं था l गुरुकुलों में शुल्क रहित शिक्षण-प्रथा से ही गुरु तथा शिष्य का निर्वहन, साधना, समृद्धि और विकास होता था l स्वेच्छा से सामर्थ्यानुसार, बिना किसी भय के ख़ुशी-ख़ुशी से दिया जाने वाला लोक अनुदान बच्चों के जीवन का निर्माण करता था l
    कोई भी प्राचीन गुरुकुल एक वह दिव्य कर्मशाला थी जहाँ बच्चों में योग्यता पनपती थी l वहां उन्हें दुःख-सुख का सामना करने का अनोखा साहस मिलता था l जीवन के हर क्षेत्र में आत्म सम्मान के साथ सर उठाकर चलने और समय पड़ने पर शेर की तरह दहाड़ करने के साथ-साथ जीने और मरने की भी एक अनोखी मस्ती प्राप्त होती थी l इन गुणों को प्रदान करता था – आचार्यों, अभिभावकों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का योगदान l गुरुकुलों की गरिमा अविरल जलधारा समान प्रवाहित होती रहती थी l गुरुकुलों को अनुदान से प्राप्त अन्न, धन, वस्त्र और भूमि आदि पर मात्र गुरुकुल में कार्यरत मान्य आचार्यों का जितना स्वामित्व होता था, अध्ययनरत, अध्ययनकाल तक उस पर शिष्यों का भी उतना ही स्वामित्व रहता था l दोनों में प्रेम, सहयोग, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना होती थी l आचार्य शिष्यों के जीवन का निर्माण करते थे , उनका मार्गदर्शन करते थे जबकि शिष्य पूर्ण ज्ञानार्जित करने के पश्चात् मात्र कर्तव्य परायण होकर अपने माता-पिता, गाँव, समाज, शहर, और राष्ट्र ही की सेवा करते थे l
    भारतीय शिक्षा–क्षेत्र मात्र निःस्वार्थ सेवा-क्षेत्र रहा है जिसमें निष्कामी आचार्य तथा ज्ञान पिपासु विद्यार्थियों की महती आवश्यकता बनी रहती थी l वह तो सदैव सबके लिए ज्ञान का प्रणेता और मार्ग दर्शक ही था l आचार्य भली प्रकार जानते थे – उन्हें विद्यार्थियों को किस प्रकार का शिक्षण देने के साथ-साथ प्रशिक्षण भी देना है l
    वैसे शिक्षण-प्रशिक्षण लेने की कोई आयु नहीं होती है l आवश्यकता है तो मात्र विद्यार्थी के दृढ़ निश्चय की कि वह क्या करना चाहता है, क्या कर रहा है ? वह क्या बनना चाहता है, क्या बन गया है ? वह क्या पाना चाहता है, उसने अभी तक पाया क्या है ? अगर वह अपना उद्देश्य पाने में बार-बार असफल रहा हो, उसके लिए उसे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, किसी शंका का समाधान ही करवाना चाहता हो तो आ जाये उसका निवारण करवाने को l गुरुकुल के आचार्यों की शरण ले l वहां उसे हर समस्या का समाधान मिलेगा l वह जब भी आये, अपने साथ श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास अवश्य लाये, भूल नहीं जाना l हमारे आचार्य यही शुल्क लेते हैं l इनके बिना किसी को वहां उनसे कुछ भी नहीं है, मिलने वाला l
    आज भारत माता के तन पर लिपटा सुंदर कपड़ा जगह-जगह से कटा हुआ है l भारतीय शिक्षा सदियों से आकंताओं, अत्याचारियों की बर्बरता, क्रूरता का शिकार हुई है l उसकी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी है l कपड़ा तो ठोस है, घिसा नहीं है, मात्र कटा हुआ है l वह तो अब भी हर मौसम का सामना करने में सक्षम है l भारतीय शिक्षा अव्यवस्थित होते हुए भी किसी अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली की तुलना में अब भी कम नहीं, श्रेष्ठ ही है l जरुरी है – उस कपड़े की सिलाई करना l उसे पुनः साफ-सुथरा करके फिर से उपयोगी बनाना l गुरुकुल शिक्षा का पुनर्गठन करना उसे उचित नेतृत्व प्रदान करना l
    क्या हमें किसी अन्य तन का मात्र सुंदर कपड़ा देख अपने तन का उपयोगी एवं सुखदायी कपड़े का त्याग कर देना चाहिए ? हमें अपनी जीवनोपयोगी भारतीय शिक्षा प्रणाली को भुला देना चाहिए ? उसके स्थान पर किसी अन्य राष्ट्र से उपलब्ध शिक्षा-प्रणाली को स्वीकार कर लेना चाहिए ? नहीं, कभी नहीं l हमें गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को पुनः समझना होगा l उसे आधुनिक नई कसौटी पर परखना होगा l तभी वह एक दिन देश, काल, और पात्र के अनुकूल तथा जन मानस के अनुरूप, उपयोगी सिद्ध होगी l वैसे किसी कमजोर रोगी के तन से लिया हुआ कोई भी कपड़ा एक हृष्ट-पुष्ट निरोगी काया को मात्र रोगों के अतिरिक्त कुछ और दे भी क्या सकता है ? ऐसे कपड़े की तरह ली गई अन्य राष्ट्र की शिक्षा-प्रणाली भारत वर्ष के लिए किसी भयानक संक्रामक रोग से कम नहीं है l इससे उसे दूर रखने में ही हम सबका हित है l
    आज हम वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को अँधेरे का कारण मान रहे हैं लेकिन अँधेरे को दोष देने से कहीं अच्छा है – कोई एक दीप जला देना l कभी-कभी भारतीयन शिक्षा का मंद गति से प्रवाहित होने वाला मदमाती महक का मधुर झोंका न जाने कहाँ से आकर कोमल मन को स्पर्श कर जाता है ? मन आनंदित हो जाता है l लगता है वह कुछ कह रहा हो -
    गुण छुपाये छुप नहीं पाता, गुण का स्वभाव है यही,
    फुलवारी अपनी फूलों भरी, सुगंध रोके, रूकती है नहीं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”
    
    
    
    
    


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    मतदान के प्रति मतदाता की जागरूकता

    from चेतन लेख माला
    धन्यवाद जी! संपादक मंडल, मातृवंदना संस्थान, शिमला, हिमाचल प्रदेश। मातृवंदना नवंबर 2022

    1 जागरूक मतदाता :-
    जो मतदाता भारत का नागरिक हो l जो आचार संहिता लगने तक संपूर्ण 18 वर्ष का हो गया हो l जो उस निर्वाचन क्षेत्र का निवासी हो जहाँ उसका पहली बार नाम अंकित होना हो, मतदान की योग्यता रखता है l लोक तांत्रिक देश भारत में 18 वर्ष से ऊपर के हर किशोर/युवा को संवैधानिक रूप से अपना मतदान करने का अधिकार प्राप्त है l निर्वाचन काल में वह मतदाता बनकर अपने मतदान से अपनी पसंद के प्रत्याशी की हो रही हार को भी अपने एक मत से उसकी जीत में परिवर्तित कर सकता है, ऐसी अपार क्षमता रखने वाले उसके मत को बहुमूल्य कहा जाता है l 1996 में माननीय अटल विहारी वाजपेयी जी की केन्द्रीय सरकार थी जिसे मात्र एक मत कम मिलने के कारण हार का सामना करना पड़ा था l हर लोकतान्त्रिक देश में किसी नेता, दल या दल की विचारधारा को लेकर उसके बारे में मतदाता की जो अपनी राय या मत होता है, उसे उसका मतदान के समय उपयोग अवश्य करना होता है l मतदाता जागरुक होना चाहिए ताकि जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए मजबूत लोकतंत्र की स्थापना को बल मिल सके l
    2 मताधिकार का प्रयोग :-
    छब्बीस जनवरी 1950 के दिन भारत में भारत के संविधान को स्वीकृति मिली थी l उसे पूर्ण रूप से लागु किया गया था l तब से लेकर अब तक मतदाता के द्वारा मतदान करने का अपना बहुत बड़ा महत्व है l मतदाता मतदान करके अपने पसंद का प्रत्याशी चुनता है l उसके द्वारा चुना हुआ प्रत्याशी अन्य क्षेत्रों से चुने गये प्रत्याशियों के साथ आगे चलकर स्थानीय निकाएं – ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, नगर पालिका, जिला परिषद् का ही नहीं, विधान सभा और लोक सभा का भी गठन में भी साह्भागी बनता है और सरकार बनाता है l
    इस व्यवस्था की प्रक्रिया से सरकार द्वारा जो योजनायें बनाई जाती हैं, उन्हें साकार करने हेतु प्रारंभ किये गये जनहित विकास कार्यों का लाभ व सुविधाएँ जन-जन तक पहुंचाई जाती हैं l इसलिए मतदाता को अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करना चाहिए - क्योंकि यह केवल अधिकार ही नहीं, उसका कर्तव्य भी है l
    3 गोपनीयता :-
    देश में राजनीति से संबंधित वर्तमान में अनेकों विचार धाराएँ विद्यमान हैं l देखा जाये तो सभी विचार धाराओं के अपने-अपने दल और उनके विभिन्न उद्देश्य हैं l पर उनमें कुछ एक नेता निजहित, परिवार हित, दलहित की दलदल की राजनीति में ही धंसे हुए हैं l उन्हें जनहित, क्षेत्रहित, प्रांतहित, राष्ट्रहित और मानवता की भलाई कुछ भी दिखाई नहीं देती है l या तो उन्हें राजनीति की दलदल से बाहर निकलने का कोई मार्ग/सहारा नहीं मिलता है, या फिर वे उससे बाहर ही निकलना नहीं चाहते हैं l इस दौरान उन्हें जो मार्ग/सहारा मिलता भी है तो वह मार्ग पहले ही दलदल से भरा हुआ होता है या सहारा उस दलदल में धंसा हुआ मिलता है, जो उसे बाहर निकलने/निकालने में असमर्थ होता है l
    निर्वाचन की व्यार चलते समय भारतीय राजनेता/राजनीतिक दल जनता को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त धन - मदिरा-मास, मासिक युवा बे-रोजगारी भत्ता, रोजगार देने, गरीबी दूर करने, सुशासन देने जैसे लुभावने तरह-तरह के प्रलोभन दिखाते हैं, उन्हें तो मात्र किसी तरह सत्ता की प्राप्ती करनी होती है, जनहित, देशहित किसने, कब देखा है ? निर्वाचन काल में उनके द्वारा किये जाने वाली घोषनाएँ /वायदे अथवा किये जाने वाले कार्य मात्र जनता को प्रलोभन दिखाकर मुर्ख बनाना होता है l
    मतदान के दो प्रकार :- मतदान का पहला प्रकार सबसे अच्छा चुनाव वह होता है जो निर्विरोध एवं सर्व सम्मति से सम्पन्न होता है l इसमें प्रति स्पर्धा के लिए कोई स्थान नहीं होता है और दूसरा जो मतपेटी में प्रत्याशी के समर्थन में उसके चुनाव चिन्ह पर अपनी ओर से चिन्हित की गई पर्ची डालकर या ईवीएम मशीन से किसी मनचाहे प्रत्याशी के पक्ष में, चुनाव चिन्ह का बटन दबाकर अपना समर्थन प्रकट किया जाता है, मतदान कहलाता है l लेकिन प्रतिस्पर्धा मात्र पक्ष-विपक्ष दो ही प्रत्याशी प्रतिद्वद्वियों में अच्छी होती है जिसमे अधिक अंक लेने वाले की जीत और कम अंक लेने वाले की हार निश्चित होती है l
    समय या असमय देखा गया है कि विधायक चुनी हुई सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेते हैं परिणाम स्वरूप सरकार गिर जाती है l अगर विधायक को अपना समर्थन वापस लेने का अधिकार है तो मतदाताओं को भी उस विधायक से अपना मत वापस लेने का अधिकार होना चाहिए ताकि वो कभी बिकने का दुस्साहस न कर सके l मतदाता के द्वारा सदैव बिना किसी भय, बिना किसी दबाव, बिना किसी लोभ, अपनी इच्छा और पसंद के, सर्व कल्याणकारी विचार धारा को मध्यनजर रखते हुए, बिना किसी व्यक्ति को बताये अपना गुप्त मतदान करना चाहिए l मतदाता के पास अपना बहुमूल्य मत होता है जिससे वह समाज विरोधी विचारधारा को हराकर, राष्ट्रवादी विचारधारा को विजय दिला सकता है l आगे भेज सकता है और उससे एक अच्छी सरकार की आशा भी कर सकता है l अन्यथा उस बेचारे मतदाता को पांच वर्ष तक अधर्म, अन्याय, अनीति और असत्य का सामना करना पड़ता है l
    4 शत प्रतिशत मतदान :-
    “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं लहर नहीं, पहले व्यक्ति देखूंगा l मैं प्रचार नहीं, छवि देखूंगा l मैं धर्म नहीं, विजन देखूंगा l मैं दावे नहीं, समझ देखूंगा l मैं नाम नहीं, नियत देखूंगा l मैं प्रत्याशी की प्रतिभा देखूंगा l मैं पार्टी को नहीं, प्रत्याशी को देखूंगा l मैं किसी प्रलोभन में नहीं आऊंगा l” इस तरह मतदाता का स्वयं जागरूक होना या दूसरों को जागरूक करना परम आवश्यक है और स्वभाविक भी l
    इसी माह 12 नवंबर को प्रदेश में लोक सभा के चुनाव होने हैं l सभी नर-नारी, युवा और वृद्ध शत-प्रतिशत लोक-सभा मतदान करने की प्रतिज्ञा करें l कोई भी 18 वर्ष की आयु से ऊपर वाला युवा जो वैधानिक दृष्टि से मतदान करने का अधिकारी बन चुका है, मतदान से वंचित नहीं रहना चाहिए l


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    अति वृष्टिपात और बाढ़-संकट

    मातृवन्दना अगस्त 2023 

    जल, वायु, अग्नि, धरती और आकाश सृष्टि के पंच महाभूत, सर्व विदित हैं L धरती पर वायु अग्नि और जल तत्वों की प्रतिशत मात्रा जब कभी कम या अधिक हो जाती है तब उस पर असंतुलन पैदा हो जाता है L वायु का दबाव कम या अधिक होने पर आंधी या तूफ़ान आने और पेड़, जंगल के अभाव में वायुमंडल में ताप अधिक बढ़ने से जंगल में आग लगने का भय बना रहता है L इसी प्रकार धरती पर जब कभी भारी वृष्टिपात होता है तो वर्षाजल बाढ़ के रूप में परिवर्तित हो जाता है और उससे धरती का कटाव होता है, जान-माल की हानि होती है L

    बाढ़ आने का कारण -
    अवैध खनन – कभी नदियों और नालों में विद्यमान बड़े-बड़े पत्थर जल बहाव की गति को कम किया करते थे L लोगों के मकान मिट्टी, लकड़ी के बने होते थे L वे उसी में संतुष्ट रहते थे L परन्तु जबसे पक्के भवन, पुल और मकानों के निर्माण हेतु नदियों और नालों में पत्थर, रेत और बजरी का अवैध खनन किया जाने लगा है तब से उनमें वर्षा काल में जल बहाव की गति भी तीव्र होने लगी है और उसे बाढ़ के नाम से जाना जाता है L


    अवैध पेड़-कटान से वन्य क्षेत्रफल की कमी – अवैध पेड़ कटान होने से धरती का निरंतर चीर-हरण किया जा रहा है L धरती हरित पेड़, पौधे, झाड़ियों और घास के अभाव में बे-सहारा/नग्न होती जा रही है जिससे कम बर्षा होने पर भी वह वर्षाजल का वेग सहन नहीं कर पाती है, निरंकुश बाढ़ बन जाती है और वह विनाश लीला करने लगती है L

    नदियों के किनारे पर बढ़ती जन संख्या – नदी, नालों के किनारों पर अन्यन्त्रित जन संख्या बढ़ने से दिन-प्रतिदिन हरे पेड़, पौधे, झाड़ियों और घास का आभाव हो रहा है L जिससे जल बहाव मार्ग परिवर्तित होता रहता है L जल बहाव को तो उसका मार्ग मिलना चाहिए, उसे नहीं मिलता है L उसके मार्ग में अवैध निर्माण होते हैं L अगर मनुष्य जाति नदी, नालों में अपने लिए आवासीय घर, पार्क और अन्य आवश्यक निर्माण करवाती है तो नदी, नाला भी अपने बहाव के लिए मार्ग तो बनाएगा ही L जल प्रलय अवश्य आएगी L धरती के रक्षण हेतु नदी, नालों के किनारों पर तो अधिक से अधिक हरे पेड़, पौधे, झाड़ियां और घास होने चाहिए, न कि मनुष्य द्वारा निर्मित कंक्रीट, पत्थरों का जंगल L

    पहाड़ों पर अधिक सड़क निर्माण – विकास की दौड़ के अंतर्गत मैदानी क्षेत्रों में चार, छेह लेन के राष्ट्रीय राज-मार्ग निर्माण कार्य जोरों से हो रहा है L उससे पहाड़ी राज्य-क्षेत्र अछूते नहीं रहे हैं L वहां भी चार लेन की सडकें बननी आरंभ हो गई हैं L इससे भूमि का कटाव जोरों पर है L लाखों पेड़ों की बलि दी जा रही है L धरती हरे पेड़, पौधे, झाड़ियां और घास से विहीन होती जा रही है L वृहत जंगल वृत्त, वन्य संपदा के सिकुड़ने से, असंतुलित वृष्टिपात होने तथा बाढ़ आने से धरती का कटाव बढ़ रहा है L

    देश, धर्म-संस्कृति के प्रति बढ़ती मानवीय उदासीनता - संपूर्ण धरा पर मानव और दानव दो जातियां पाई जाती हैं L नर और मादा उनके दो रूप हैं L वेदज्ञान मानव को ही मानव नहीं बनाये रखता है बल्कि दानवों को भी मानव बनाने की क्षमता रखता है L जब तक मनुष्य वेद सम्मत अपना जीवन यापन करता रहा, वह मानव ही बना रहा L वह देश, सनातन धर्म-संस्कृति का भी सम्मान करता था पर जब से वह वेद विमुख हुआ है, तब से वह दानव बन गया है L वेदज्ञान जल, वायु, अग्नि, आकाश और धरती की पूजा के साथ-साथ धरती पर विद्यमान पहाड़, नदियों, पत्थर, पेड़, फूल-वनस्पतियों जीवों के भरन-पोषण का ध्यान रखने में मानव को सन्मार्ग पर चलने हेतु मार्ग-दर्शन करते थे L मानव की स्वार्थ पूर्ण दानव प्रवृत्ति बढ़ने से अब वह देश, धर्म-संस्कृति के विरुद्ध आचरण करने लगा है, जो उसके विनाश का कारण बनता जा रहा है L


    बाढ़ का दुष्प्रभाव –
    बाढ़ आने से नदियों का जलस्तर बढ़ जाता है L खेतों की फसल नष्ट हो जाती है L स्कूल, विद्यालय, महाविद्यालय बंद हो जाते हैं L व्यापारिक, व्यवसायिक, कार्यशालाओं की गतिविधियाँ मंद पड़ जाती हैं L नदियों के किनारे की वस्तियाँ उजड़ जाती हैं L राष्ट्रीय राजमार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं L पेय जलस्रोत नष्ट हो जाते हैं L जल बाँध टूट जाते हैं L खेत–खलिहान, वस्तियाँ जलमग्न हो जाती हैं L राष्ट्रीय संपदा की भारी हानि होती है L यह सब चिंता के ऐसे ज्वलंत विषय हैं जिन्हें समय रहते सुलझा लेना अति आवश्यक है L

    बाढ़ की रोक-थाम के उपाए -
    नदी, नालों के किनारों पर आवासीय वस्तियाँ वसाने के स्थान पर अधिक से अधिक पोधा-रोपण किया जाना चाहिए L नदियों और पहाड़ों का खनन रोका जाना चाहिए L नदियों के किनारे पर और अधिक वस्तियों को नहीं वसाना चाहिए L नदियों नालों के किनारों से अवैध कब्जे हटाए जाने चाहिए L कार्यशालाओं के माध्यम से लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए L विकास की आड़ और अंधी दौड़ में पहाड़ों का सीना छलनी न किया जाना चाहिए L नदी नालों में प्लास्टिक कचरा नहीं बहाना चाहिए L वन काटुओं व खनन माफियाओं पर नकेल कसी जानी चाहिए L

    इस कार्य को कार्यान्वित करने हेतु सरकार, प्रशासन, प्रशासकों, आचार्यों, विद्यार्थियों, स्वयंसेवी संस्थाओं, स्वयं सेवकों को व्यवस्था के अंतर्गत आगे बढ़कर अपना-अपना दायित्व निभाना चाहिए ताकि आने वाले महा विनाश से देश, धर्म-संस्कृति और मानवता की रक्षा सुनिश्चित हो सके L
    आलेख - पर्यावरण चेतना मातृवन्दना अगस्त 2023
    चेतन कौशल "नूरपुरी"


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    आस्था की दहलीज

    आलेख - धर्म अध्यात्म संस्कृति  दैनिक जागरण 1.8.2007  

    हमारे देश में ऐसे अनेकों धार्मिक व तीर्थ स्थल हैं जिनके साथ हमारी पवित्र आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l हम वहां अपनी किसी न किसी कामना सहित देव दर्शनार्थ जाते हैं और अपनी कामना पूरी होने पर उन्हें श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं l इससे हमें मानसिक शांति मिलती है l  पर दुर्भाग्य से इन्हीं धार्मिक व तीर्थ स्थलों पर समाज विरोधी तत्वों का साम्राज्य स्थापित हो गया है l मंदिर परिसरों में भारी भीड़, महिलाओं से छेड़-छाड़, दुर्व्यवहार, उनके कीमती जेवरों का छिना जाना और पुरुषों की जेब तक कट जाना प्रतिदिन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है l ऐसा व्रत-त्योहार व मेलों में होता है l इस समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि मंदिर प्रशासन और मेला आयोजकों के कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित व अनुशासित बनाने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं को भी आगे आने का सुअवसर दिया जाये l उन्हें प्रशासन की ओर से पूर्ण सहयोग मिले ताकि हमारे मंदिर और तीर्थ स्थान आस्था के केंद्र बने रहें और श्रद्धालु, भक्त जनों को वहां सदा भय एवम् तनाव मुक्त वातावरण मिल सके l पंजाब से सीखना चाहिए कि इन स्थलों की शुचिता कैसे बनाये रखी जाती है l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में समरसता

    धर्म अध्यात्म संस्कृति– 3

    ऋषि-मुनि, सिद्ध, सन्यासी, साधु-सन्त, महात्मा और परमात्मा के साथ जुड़े माणिकों एवं अलंकारों से सुशोभित, भारत माता के सरताज, देव और वीरभूमि हिमाचल प्रदेश की तराई में राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है जिला कांगड़ा, का प्रवेश द्वार नूरपुर, के उत्तर में सहादराबान से सर्पाकार एवं घुमावदार सड़क द्वारा लेतरी, खज्जन, हिंदोरा-घराट, सदवां से घने निर्जन चीड़ के जंगल पार, गांव सिम्बली से होते हुए नूरपुर से लगभग 11 किलोमीटर के अंतराल पर स्थित है - सुल्याली गांव।

    अपनी हरियाली की अपार सुंदरता एवं स्वच्छता के कारण भारत की देव भूमि हिमाचल प्रदेश विश्व विख्यात है। यहां पर स्थित विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देश व विदेश में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। प्रदेश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में सुल्याली गांव का डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर अथवा प्राकृतिक शिवाला डिह्बकेश्वर धाम अत्यंत सुंदर, शांत तथा रमणीय स्थल है।

    यह प्राकृतिक शिवाला अपने अस्तित्व में कब आया? कोई नहीं जानता है। परंतु यहां विराजित साक्षात देवों के देव महादेव परिवार की गांव सुल्याली में वसने वाले लोगों पर असीम कृपा अवश्य है। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम व सद्भावना कूटकूट कर भरी हुई है।

    डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर के स्नानों में स्नान सोमवार की अमावस्या, वैसाखी की अमावस्या, बुध पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, पितर तर्पण, सावन मास के सोमवारों के स्नान होते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, शीतला पूजन के साथ-साथ यहां शिवरात्रि हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है जिसमें हर वर्ण के लोग यथाशक्ति बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।

    यहां पर गृह शांति हेतु हवन करवाये जाते हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं। यहां पर लंगर लगवाने की व्यवस्था भी है जिसमें कोई भी गृहस्थी अपनी इच्छा से यहां की व्यवस्था के अनुसार हवन, संकीर्तन करवाने के साथ-साथ लंगर भी लगवा सकता है।

    भरमौर निवासी गद्दी समुदाय के लोग अंधेरा होने पर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में शिव विवाह जिसे वे अपनी स्थानीय भाषा में नवाला कहते हैं, का हर वर्ष जनवरी मास में आयोजन करते हैं। वे शिव-पूजन करके लोक-नृत्य सहित शिव-विवाह के भजन गाते हैं। जो देखने योग्य होता है। इसे देखने हेतु यहां पर दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे यहां आए हुए श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते है जिसे लोग सप्रेमपूर्वक प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।

    स्व0 मास्टर गिरीपाल शर्मा जी ने अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद में चरण पादुका स्थित सुल्याली गांव में शिवरात्रि के दिन इस यज्ञ का शुभारम्भ किया था। जो वहां हर वर्ष किया जाता था। इसे बाद में बंद कर दिया गया और फिर डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में आरम्भ कर दिया गया। स्व0 मास्टर हंस राज शर्मा, जी ने सन् 1967- 68 ई0 से शिवरात्रि पर्व से लोगों को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। यज्ञ में दाल, चावल, खट्टा, मीठा, मह्दरा आदि बनना आरम्भ हो गया। इससे पूर्व यहां आषाढ़ मास की संक्रांति को चपाती, आम की लाहस तथा माश की दाल बना कर सहभोज करने की प्रथा प्रचलित थी। जिसे ग्रहण करके सभी लोग आनन्द उठाते थे।

    यहां हर वर्ष शिवरात्रि से दो - तीन दिन पूर्व ही उसकी तैयारी होना आरम्भ हो जाती है। शिवरात्रि से एक दिन पूर्व यहां हवन-यज्ञ किया जाता है। रात को भजन कीर्तन होता है और दूसरे दिन सहभोज-भण्डारा किया जाता है जिसका आयोजन एवं समापन बिना किसी भेदभाव से संपूर्ण होता है। इन दिनों डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में बहुत ज्यादा चहल-पहल रहती है। यहां स्थानीय लोग ही नहीं दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर राज्यों के दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालू-भक्त जन भी अपनी-अपनी यथाशक्ति से अन्न, तन, मन और धन द्वारा सेवा कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं।

    यहां आने वाले आस्थावान भक्तों पर भोलेनाथ सदा दयावान रहते हैं। जन धारणा के अनुसार शिवरात्रि को शिवभोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजमान रहते हैं तथा यहां पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद भी देते हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि शिवरात्रि के पश्चात् शिव भोले नाथ सपरिवार, मणिमहेश कैलाश की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।

    शिव भोले नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्तजन बारह मास - सर्दी, गर्मी और बरसात में शिव दर्शन और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वे शिवलिंगों को दूध लस्सी से नहलाते हैं तथा उन पर बिल्व-पत्री चढ़ा कर उनकी धूप-दीप, नैवेद्यादि से पूजा अर्चना करके, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

    साहिल ग्रुप पठानकोट, के सदस्य मिलकर यहां हर वर्ष दिन में पहले सुल्याली बाजार से होते हुए डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर तक संगीत सहित शिव-विवाह की मनोरम झांकियां निकालते हैं और फिर देर रात तक शिव-विवाह से संबंधित धर्म-सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता रहता है जिसे देखने हेतु दूर-दूर से लोग आते हैं। दूसरे दिन वे वहां आने वाले श्रद्धालु-भक्तों के लिए भोले शंकर का लंगर लगाते हैं। लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।

    सुल्याली गांव के आसपास के क्षेत्र से अनेकों महिलाएं डिह्बकेश्वर महादेव परिसर में आकर सोमवार की अमावसया, वैसाखी की बड़ी सोमी अमावसया को पीपल वृक्ष का पूजन करती हैं। इस पूजन में पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें की जाती हैं जिनके अंतर्गत फल, चावल व दाल के दाने, द्रब, दक्षिणा, कच्चा सू़त्र की लड़ियां और जोतें सभी गिनती में 108-108एक समान नग होते हैं। इसके अतिरिक्त सुहागी, वर्तन और कपड़ा भी होता है जो दान किया जाता है। कच्चा सूत्र की लड़ियों को पीपल वृक्ष के चारों ओर परिक्रमा करके लपेटा जाता है जो देखने योग्य होता है। इस तरह डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में अध्यात्मिकता देखने को मिलती है जो समरसता से परिपूर्ण होती है।

    प्रकाशित मार्च-अप्रैल 2020मातृवंदना