श्रेणी: आलेख
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सुखदायक सत्य कड़वा होता है
योग्य गुरु द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान सुपात्र का प्रदान किया जाता है, कुपात्र को नहीं। सुपात्र उसका सदुपयोग करता है जबकि कुपात्र दुरुपयोग। वही विद्यार्थी गुरु का मान बढ़ाता है और स्वयं महान बनता है जो गुरु के निर्देशानुसार जन सेवा एवं जग कल्याण के कार्य करता है।
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औेर लम्बी होंगीं बेरोजगार श्रृंखलाएं!
भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़तेे साम्राज्य से असंख्य स्नातक-बेरोजगार की लम्बी श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं। उनके हाथों का कार्य कल-कारखानें और मशीनें ले चुकी हैं। वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं।
भारत में वह भी एक समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में काम होता था। लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण किया करतेे थे। कोई कहीं चोरी नहीं करता था। वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ समझते थे। कोई भीख नही मांगता था। इस प्रकार देश की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख शांति थी। लार्ड मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात 2 अक्तूवर सन् 1835 में ब्रिटिश सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था।
वर्तमानकाल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज संयम, शांति, सन्तोष, विनम्रता आदर-सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता एवं सेवा भक्ति-भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा और आचार-व्यवहार भूल ही नही रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है। वह ऐसा करना श्रेष्ठ समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किए गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है। इस समय समाज को महती आवश्यकता है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की।
भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता से अधिक किया जाने वाला उपयोग है। हम दिन प्रति दिन पूर्णतयः कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं। यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है। ऐसी राष्ट्रीय नीति उस देश को अपनानी चाहिए जहां जन संख्या कम हो। पर्याप्त जन संख्या वाले भारत देश में कल-करखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक से अधिक कार्य लेना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी। स्नातक, युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है। कल-कारखानें और मशीनें भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं। वह तो कृषि -वागवानी, पशु -पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक खाद्य पदार्थाें का सेवन करने से प्राप्त होता है।
हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाए गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाए हुए, ताजा खाद्य पदार्थाें का, अपनी आवश्यकता अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए।
भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनानें में पहल करनी होगी। उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्त-कला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके। उनके द्वारा बनाए गए सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके। देश में कहीं पेयजल, कृषि भूमि और प्राण-वायु की कमी न रहे। इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है।
सितम्बर 2008
मातृवन्दना
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बलि का बकरा
आज तक हमने बकरों की बलि दिया जाना सुना था पर यह नहीं सुना था कि कहीं बस की सवारियों को भी बलि का बकरा बनाया जाता है। जी हां, ऐसा अब खुले आम हो रहा है। अगर हम अन्य स्थानों को छोड़ मात्र जम्मू से लखनपुर तक की बात करें तो राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बने ढाबों, भोजनालयों और चाय की दुकानों को कसाई घरों के रूप में देख सकते हैं। वहां प्रति चपाती पांच रुपए के साथ नाम मात्र की फराई दाल दस रुपए में और चाय का प्रति कप पांच रुपए के साथ एक कचौरी तीन रुपए के हिसाब से धड़ल्ले से बेची जाती है। वहां कहीं मुल्य सूचि दिखाई नहीं देती है। शायद उन्हें प्रशासन की ओर से पूछने वाला कोई नहीं है। क्या यह दुकानदार सरकारी मूल्य सूचि के अंतर्गत निर्धारित मूल्यानुसार सामान बेचते हैं? संबंधित विभाग पर्यटक वर्ग अथवा सवारी हित की अनदेखी क्यों कर रहा है?
राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारों पर ढाबों और चाय की दुकानों पर लम्बे रूट की बसें रुकती हैं। वहां पर चालक और परिचालकों को तो खाने-पीने के लिए मूल्यविहीन बढ़िया और उनका मनचाहा खाना-पीना मिल जाता है, मानों जमाई राजा अपने ससुराल में पधारे हों। पर बस की सवारियों को उनकी सेवा के बदले में दुकानदारों की मर्जी का शिकार होना पड़ता है। अन्तर मात्र इतना होता है कि कोई कटने वाला बकरा तो गर्दन से कटता है पर सवारियों की जेब दुकानदारों द्वारा बढ़ाई गई अपनी मंहगाई की तेज धार छुरी से काटी जाती है। कई बार सवारियों के पास गंतव्य तक पहुंचने के मात्र सीमित पैसे होते हैं। अगर रास्ते में भूख-प्यास लगने पर उन्हें कुछ खाना-पीना पड़ जाए तो वह खाने-पीने की वस्तुएं खरीद कर न तो कुछ खा सकती हैं और न पी सकती हैं। क्या लोकतन्त्र में उन्हें जीने का भी अधिकार शेष नहीं बचा है?
यह पर्यटक एवं सवारी वर्ग भी तो अपने ही समाज का एक अंग है जो हमारे साथ कहीं रहता है। स्वयं समाज सेवी और इससे संबंधित सरकारी संस्थाओं को प्रशासन के साथ इस ओर विशेष ध्यान देना होगा और सहयोग भी देना पड़ेगा। उसके हित में उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग तथा बस अड्डों पर खाने-पीने और अन्य आवश्यक सामान खरीदने हेतु उचित मूल्य की दुकानों व ठहरने या विश्राम करने के लिए सुख-सुविधा सम्पन्न सस्ती सरायों की व्यवस्था करनी होगी ताकि स्थानीय दुकानदारों द्वारा सवारियों और प्रयटकों से मनमाना मूल्य न वसूला जाए और कोई किसी के निहित स्वार्थ के लिए कभी बलि का बकरा न बन सके।
13 जुलाई 2008 कश्मीर टाइम्स
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पॉलीथिन का साम्राज्य
अगर विश्व में कहीं प्राकृतिक संकट पैदा होता है तो मनुष्य द्वारा साहस के साथ उसका सामना किया जा सकता है परन्तु मनुष्य ही कोई भयानक संकट पैदा कर ले तो उसका सामना कौन और कैसे करे? है न समस्या गम्भीर।
खुशनसीब है जम्मू क्षेत्र जो किसी प्राकृतिक आपदा से सुरक्षित है पर वह बडा़ बदनसीब है। वह स्थानीय लोगों के द्वारा स्वयं ही पैदा किए हुए संकट से संकट ग्रस्त है। भौतिकवाद की अंधी दौड़ में स्थानीय लोग पाॅलीथीन लिफाफों, प्लास्टिक बोतलों वनायलॉन और रबड़ की बनी जीवनोपयोगी वस्तुओं का तो धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं पर उन्हें अनुपयोगी हो जाने पर वह उनका उचित विसर्जन नहीं कर पा रहे हैं ताकि उन्हें तुरंत किसी अन्य उत्पाद में परिणत किया जा सके। जम्मू क्षेत्र में पाॅलीथीन लिफाफों का प्रचलन इस हद तक बढ़ चुका है कि उन्हें अब हर घर की नाली में और आस-पास के छोटे-बड़े नालों के किनारों पर पड़े देखा जाने लगा है।
लोगों को उनमें बाजार से किसी भी समय घरेलू सामान की खरीद करते हुए और घर ले जाते हुए देखा जा सकता है। ऐसा करना उन्हें जाने क्यों अच्छा लगता है, वे यह तो भली प्रकार जानते हैं कि उनके द्वारा उन्हें नाली में या सड़क पर फेंकने से कितने भयानक दुष्परिणाम निकलते हैं?
वर्तमानकाल में जम्मू क्षेत्र के किसी मुहल्ले या कालोनी की कोई नाली, सड़क या नालों के किनारे पर फेैले गन्दगी युक्त पाॅलीथीन लिफाफों, प्लास्टिक बोतलों और दुर्गन्ध युक्त कूड़ा-कचरा के अम्बार राह में चलते और जाने-अनजाने उन लोगों के लिए मुसीबत बने हुए हैं जो पास ही के रास्ते से निकलते हैं। उन्हें सांस तक लेना दूभर हो जाता है। शुद्ध वायु के शुद्ध वातावरण में जीना व रहना तो हर कोई चाहता है पर वैसा वातावरण बनाए रखना भी तो हमारा अपना ही कार्य है। अगर हम यह कार्य स्वयं नहीं करेगे तो और कौन करेगा। समस्त मानव जाति का मात्र एक सफाई वर्ग पर पूर्ण आश्रित हो जाने से तो काम नहीं चलेगा। उसके कार्य में हम सबको मिलकर सहयोग करना होगा। क्षेत्र का हरा- भरा और प्रदूषण व रोग मुक्त बनाए रखने हेतु जरूरी है स्थानीय लोगों द्वारा विभिन्न मुहल्लों में संबंधित समितियों का गठन किया जाना जो गन्दगी फैलाने वालों पर कड़ी नजर रखेंगी। वह हर घर से निकलने वाले अनुपयोगी घरेलू सामान व कूड़ा-कचरा की उचित निकासी पौध-रोपण और सफाई के लिए लोगों का सही मार्ग दर्शन करेंगी। राज्य सरकार को चाहिए कि वह अपने पड़ोसी राज्य सरकारों की भांति जम्मू कश्मीर राज्य में भी पाॅलीथीन लिफाफों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दे और अधिक से अधिक पौधरोपण करवाए। वह अवहेलना करने वालों के विरुद्ध कड़ी से कड़ी कारर्वाई करे ताकि राज्य में व्याप्त पाॅलीथीन का साम्राज्य समाप्त हो सके। इस प्रकार जम्मू कश्मीर स्वच्छ और सुन्दर राज्य बन सकता है। उसके आकर्षण से आकर्षित होकर दुनियां का कोई भी पर्यटक वर्ग खुशी से उसकी ओर ज्यादा से ज्यादा की संख्या में आएगा और उसकी वादियों का मनचाहा आनन्द भी ले सकेगा।29 जून 2008 कश्मीर टाइम्स
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आओ पर्यावण स्वच्छ बनाएं
विश्व में हमारी दैनिक आवश्यकताएं बहुत हैं। वह इस समय इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उनसे हमें पल-पल सोचने ही के लिए नहीं बल्कि कुछ न कुछ करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है। हम जो भी कार्य करते हैं भले ही के लिए करते हैं परन्तु कभी-कभी यह भलाई के कार्य समाज हित के लिए वरदान सिद्ध होने के स्थान पर अभिशाप भी बन जाते हैं जिनसे हमें सतर्क रहना अति आवश्यक है। इस समय हमारी परंपरागत सर्वांगीण विकास करने वाली प्राचीन भारतीय संस्कृति पर काले बादल छा रहे हैं। अगर हमने समय रहते इस ओर तनिक ध्यान नही दिया तो वो दिन दूर नहीं कि वह हमें कहीं दिखाई नहीं देगी।
हमने किसी धातु, शीशा , गत्ता, कागज, प्लास्टिक, पाॅलीथीन, नायलान और रबड़ से निर्मित लेकिन अनुपयोगी हो चुके घरेलु सामान को इधर-उधर नहीं फैंकना है बल्कि उन्हें इकट्ठा करके गांव में आने वाले कबाड़ी को बेच देना है और उससे आर्थिक लाभ कमाना है।
हमने घर का हर रोज जलाने वाला कूड़ा-कचरा जला देना है तथा साग-सब्जी, फल के छिलकों को पालतु पशुओं को खिलाना है अथवा उसे भोजनालय के साथ लगती क्यारी में गड्ढा बनाकर उसमें दबा देना है ताकि वह वहां सड़-गल कर पौष्टिक खाद बन जाए और हम उसका खेती में उपयोग कर सकें।
हमनें प्रति दिन घर व गांव के आस-पास की नालियों और गलियों में कूड़ा-कचरा फैेंकने वालों पर कड़ी नजर रखनी है और जरूरत पड़ने पर हमने उन्हें गंदगी से फेैलने वाली बीमारियों से भी अवगत करवाना है ताकि वे साफ-सफाई रखने की ओर ध्यान देकर हमारा सहयोग कर सकें।
हमने लघुशंका व दीर्घशंका निवार्ण हेतु गांव के खेतों, गलियों, नालियों, नदियों और नालों का न तो स्वयं उपयोग करना है और न ही किसी को करने देना है। उसके स्थान पर हमने सदैव घरेलू व सार्वजनिक शौचालयों का ही प्रयोग करना है और दूसरों को करने के लिए कहना है ताकि मल-मूत्र सीवरेज व्यवस्था के अंतर्गत विसर्जित हो सके और कहीं पेयजल स्रोतों - बावड़ी, कूंआ, हैंडपंप और नलकूप का शुद्ध पानी दूषित न हो सके।
स्थानीय प्रदूषण एवं रोग प्रतिरोधक, रोग विनाशक तथा औषधीय गुण सम्पन्न पेड़-पौधे, झाड़, जड़ी-बूटियों और कंदमूलों को संरक्षित करके हमने जीव प्राणों की रक्षा हेतु उनकी सतत वृद्धि करनी है ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम उनका भरपूर उपयोग कर सकें।
हमने गांव में सामाजिक, धार्मिक, विवाह और पार्टियों के शुभ अवसरों पर होने वाले हवन-यज्ञ, भंडारा, भोज या लंगर से प्रसाद अथवा खाना खाने के लिए पत्तों की बनी पतलों व डुन्नों का ही उपयोग करना है। वहां से अपने घर प्रसाद या खाना ले जाने के लिए थाली अथवा टिफन का प्रयोग करना है ना कि पाॅलीथीन लिफाफों का। इनसे अनाज की बर्बादी होती है और प्रदुषण फेैलता है।
हमने ऐसी सब सुख-सुविधाओं का सर्वदा के लिए परित्याग कर देना है अथवा उनका दुरुपयोग नहीं करना है जिनसे जल, थल, वायु, अग्नि, आकाश, शब्द, वाणी, कार्य, विचार, चरित्र, हृदय और वातावरण दूषित होते हों।
गांव के मृत पशुओं को खुले में फैेंकने से सतही जल, भूजल और वायुमंडल दूषित न हो इसलिए हमने किसी भी मृत पशु को ऐसी जगह फैेंकवाना है जहां उसे मांसाहारी पशु-पक्षी तुरंत और आसानी से खा जाएं।
ग्राहक सेवा में गांव का कोई भी दुकानदार अपनी दुकान से बेचा हुआ सामान सदैव अखवार के ही बनाए हुए लिफाफों में डालकर देगा और ग्राहक किसी दुकान से पाॅलीथीन लिफाफों में डाला हुआ सामान नहीं लेगा। वह बाजार जाते हुए अपने साथ घर से कपड़े का बना हुआ थैला अवश्य लेकर जाएगा ताकि सामान लाने में उसे कोई कठिनाई न हो।
कोई भी दुकानदार अपनी दुकान अथवा गोदाम के कूड़े-कचरे को सड़क पर, नाली में या कहीं आस-पास नहीं फैेंकेगा। वह उसे कूड़ादान में डालेगा जिसकी नियमित सफाई होगी। वह उसे जला देगा या फिर कबाड़ी को बेच देगा। इससे बाजार देखने में अच्छा और सुंदर लगेगा।
दूषित जल विसर्जित करने वाले कल-कारखानों, अस्पताल और बूचड़खानों के स्वामी यह सुनिश्चित करेंगे कि उनकी ओर से प्रवाहित होने वाला दूषित जल - शुद्ध भूजल, सतही जल और वायु मण्डल को कभी दूषित नहीं करेगा। वह कोई रोग नहीं फेैलाएगा। वहां से निकलने वाला कचरा धरती की उपजाऊ गुणवत्ता को नष्ट नहीं करेगा।
धूल, जहरीली गैसें और धूंआ उगलने वाले मिल - कारखानों के स्वामी और वाहन मालिक सुनिश्चित करेंगे कि उनसे उत्सर्जित धूल, गैसें व धुंआ स्वच्छ एवं रोग मुक्त पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुंचाएगा क्योंकि जीवन की सुरक्षा सुख सुविधा से कहीं अधिक जरूरी है।
प्रौद्योगिकी इकाइयां विभिन्न प्रकार से प्रदूषण एवं रोगों से मुक्ति दिलाने वाली जीवनोपयोगी सामग्री, वस्तुओं और उत्पादों का उत्पादन, निर्माण और उनकी सतत वृद्धि करेंगी ताकि प्राणियों का जीवन सुरक्षित एवं रोग मुक्त रह सके।
उपरोक्त परंपरागत प्राचीन भारतीय संस्कृति हमारी जीवनशैली रही है। आइए! हम सब मिलकर इसे और अधिक समृद्ध प्रभावशाली एवं सफल बनाने का अपना दायित्व निभाने हेतु प्रयत्नशील सरकार तथा स्वयं सेवी संस्थानों को सहयोग दें और सफल बनाएं।
जून 2008
मातृवंदना