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समाज एवं राष्ट्र की सुरक्षा के मानदंड
1 मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
जनवरी 2014
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भारतीय गुरुकुल परंपरा
प्रकृति में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान-विज्ञान प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। कोई जिज्ञासु-पुरुषार्थी विद्यार्थी ही नरेंद्र की तरह उसे जानने, समझने और पाने के लिए कृत संकल्प होता है और अपने सद्गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के सान्निध्य और गुरुकुल में रहकर निरंतर प्रयास एवं अभ्यास करके स्वामी विवेकानन्द बनता है। आत्मा ईश्वर का अंश है। जल की बुंद सागर से जलवाष्प बनकर आकाश में अन्य के साथ मिलकर बादल बन जाती है। उस बादल से पहाड़ों पर वर्षा होती है। उसका नीर नदी के जल में लम्बे समय तक बहने के पश्चात फिर से सागर के पानी में एकाकार हो जाता है। उसे अपना खोया हुआ सर्वस्व पुनः मिल जाता है। जल-बूंद की तरह किसी जिज्ञासु-पुरुषार्थी व्यक्ति की आत्मा भी दिव्य पुंज परमात्मा के साथ मिलने के लिए सदा व्यग्र रहती है। यह ज्ञान-विज्ञान परमात्मा से पुरुषार्थी आचार्य, गुरु, शिक्षक और अध्यापकों के द्वारा निज गुण, स्वभाव, आचरण, प्रयास, और अभ्यास से अर्जित किया जाता है। पुरुषार्थी व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है –
‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्व मम देवदेव।।’’
वह प्रभु से यह भी प्रार्थना करता है –
‘‘हे प्रभु! मुझे असत्य से सत्य में ले जा,
अंधेरे से उजाले में ले जा,
मृत्यु से अमरता में ले जा।।’’
आचार्य और ब्रह्म्रगुरु योग, ध्यान एवं प्राणायाम करके ‘‘ब्रह्मज्ञान’’अर्जित करते हैं । उनकी शरण में आने वाले श्रद्धालु, जिज्ञासु, विद्यार्थी और साधकों को उनके द्वारा संचालित ‘‘वेद विद्या मंदिरों’’से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। उनकेे हृदय में आचार्य और गुरुजनों के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास होता है। वे गुरु की स्तुति करते हुए कहते हैं –
‘‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु
गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म,
तस्मै श्रीगुरुवे नमः’’
भौतिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए राजगुरु,शिक्षक एवं अध्यापक अपने पुरुषार्थी शिष्य, शिक्षार्थियों के साथ मिल-बैठ कर ऐच्छिक एवं रूचिकर विषयक ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन का कार्य करतेे हैं। उनमें वे उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं। उस समय वे दोनों अपनी पवित्र भावना के अनुसार परमात्मा से प्रार्थना करते हैं –
‘‘हे परमात्मा! हम दोनों – गुरु, शिष्य की रक्षा करें। हम दोनों का उपयोग करें। हम दोनों एक साथ पुरुषार्थ करें। हमारी विद्या तेजस्वी हो। हम एक दूसरे का द्वेष न करें। ओउम शान्ति शान्ति शान्ति।’’
पुरुषार्थी शिष्य ‘‘गुरुकुल’’ अथवा ‘‘ज्ञान-विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र’’से ब्रह्म्रगुरु और राजगुरु के सान्निध्य में रहकर तथा उनसे सहयोग पाकर विषयक ज्ञान-विज्ञान में शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। इस प्रकार वे उनके समरूप, उनकी इच्छाओं के अनुरूप समग्र जीव-प्राणी एवं जनहित में सृष्टि के कल्याणार्थ कार्य करने के योग्य बनते हैं। वे मानवता की सेवा को ईश्वर की पूजा मानते हैं और मनोयोग से अपना कार्य करने लगते हैं।
गुरुकुल में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात मनोयोग से पुरुषार्थी नवयुवाओं के द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य सफल, श्रेष्ठ और सर्वहितकारी होता है। इसी आधार पर साहसी पुरुषार्थी व्यक्ति, निर्माता, अन्वेषक , विशिष्ट व्यक्ति, कलाकार, वास्तुकार, शिल्पकार, साहित्यकार, रचनाकार, कवि, विशेषज्ञ, दार्शनिक, साधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, योगी और सन्यासी अपने जीवन प्रयंत प्रयास एवं अभ्यास करते हैं। इससे उनके द्वारा मानवता की तो सेवा होती है, सबका कल्याण भी होता है।
चिरकाल से विशाल प्रकृति अभिभावकों की तरह समस्त प्राणी जगत का पालन-पोषण करती आ रही है। गुरुकुल में विद्यार्थी सीखता है, असीमित जल, धरती, वायु भंडार तथा अग्नि और आकाश प्रकृति के महाभूत हैं। इनसे उत्पन्न ठोस, द्रव्य और गैसीय पदार्थ मानव समुदाय को प्राप्त होते हैं जिनका वह अपनी सुख-सुविधाओं के रूप में सदियोें से भरपूर उपयोग करता आ रहा हैै। इनसे जीव-प्राणियों को आहार तो मिलता है, निरोग्यता भी प्राप्त होती है। किसान, गौ-पालक, व्यापारी, दुकानदार, उत्पादक, निर्माता और श्रमिकों के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को परंपरागत संतुलित, प्रदूषण एवं रोग-मुक्त तथा संरक्षित बनाए रखा जाता है। इसका अर्थ है, मानवता की सेवा करना। पुरुषार्थी विद्यार्थी, नागरिक ऐसा करने हेतु हर समय तैयार रहते हैं, अपना कर्तव्य समझते हैं और उसे कार्यरूप भी देते हैं।
समर्थ विद्यार्थी एवं नागरिकों के द्वारा पुरुषार्थ करके मात्र धन अर्जित करना, अपने परिवार का पालन-पोषण करना और उसके लिए सुख-सुविधाएं जुटाना ही प्रयाप्त नहीं है बल्कि उनके द्वारा साहसी, वीर/वीरांगनां के रूप में निजी, सरकारी, गैर सरकारी संस्थान और कार्यक्षेत्र में भी जान-माल की रक्षा करना एवं सुरक्षा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। गुरुकुल सिखाता है, व्यक्ति के द्वारा किसी समय की तनिक सी चूक से मानवता के शत्रु को मानवता पीड़ित करने, उसे कष्ट पहुंचने का अवसर मिलता है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और आक्रमण का सहारा लेता है। उसके द्वारा व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैेतिक और राष्ट्रीय हानि पहुंचाई जाती है। आर्यजन भली प्रकार जानते हैं, समाज में बिना भेदभाव के, आपस में सुसंगठित, सुरक्षित, सतर्क रहना और निरंतर सतर्कता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। ऐसा करना साहसी वीर, वीरांगनाओं का कर्तव्य है। वह हर चुनौति का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं और उचित समय आने पर वे उसका मुंह तोड़ उत्तर भी देते हैं। अगर यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की देन है तो आइए! हम राष्ट्र में प्रायः लुप्त हो चुकी इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का पुनः प्रयास करें ताकि आर्य समाज और राष्ट्र में तेजी से बढ़ रहे अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया हो सके। राष्ट्र में फिर से आदर्श समाज की संरचना की जा सके12 अक्टूबर 2013 दिव्य हिमाचल
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युवा पीढ़ि और उसका दायित्व
ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्माण्ड बड़ा विचित्र है। सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का द्योतक है कि समस्त ब्रह्माण्ड में कोेेई भी अमुक वस्तु किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है।
युवाओं को जीवन के महान् उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण-संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं। प्रतिकूल गुण -संस्कारों से किसी भी महान् उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है। बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है। जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण-संस्कार युक्त युवाओं के कर्माें की छाप भी सम्पूर्ण जनमानस पटल परअवश्य अंकित होती है जो युग-युगांतरों तक उसके द्वारा भुलाए नहीं भुलाई जाती है। अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है। यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति के स्वामी हैं।
बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के आधार पर भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए। उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना। जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लगन, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराश कर उसे मन चाही एक सुन्दर आकृति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार प्रयत्नशील युवाओं को स्वयं में छुपी हुई प्रभावी विद्या, कला के रूप में दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में, आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो। उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी। देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुरूप देश – कार्य क्षेत्र, काल – समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्गदर्शक अवश्य मिल जाते हैं। उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है।
किसी प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगन्ध होना। सुगन्धित फूलों से मुग्ध होकर, फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण से प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने के लिए, उनके अनुयायी भी बनते हैं। इसलिए वे उनके साथ रह कर, वह अच्छा बनने के लिए अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं।
उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है। वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है। एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है। इसलिए दोनों की प्रकृतियां आपस में कभी एक समान हो नहीं सकतीं। वह एक दिशा सूचकयंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं। उन दोनों में द्वंद् भी होते हैं।
कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है। जब यह दोनों प्रकृतियां सुसंगठित होकर धर्म, अधर्म के दो बड़े अलग-अलग समूहों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद् न रहकर, युद्ध होते हैं जिनसे उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है।
समर्थ युवा वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थया एवं शक्ति रखता है। तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है। वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं। इसलिए युवा-शक्ति जन-शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है। अतः कहा जा सकता है कि –
एकता और शक्ति का मूल आधार,
जन, जन के उच्च गुण संस्कार।
जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोक कर, बांध बना लिया जाता है, उसी प्रकार युवाओं में कुछ कर सकने की जो अपार तीव्र इच्छाशक्ति होती है, उसे ठहराव दे कर दिशा देना अति आवश्यक है। इससे युवाओं की तरुण-शक्ति को नई दिशा मिल सकती है। उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं।अक्तूबर 2013
मातृवन्दना
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जंग अभी बाकी है
15 अगस्त 1947 के दिन स्वदेशी राजनेताओं ने भारत की राजनैतिक सत्ता की बागडोर अपने हाथ ले ली। इसके साथ ही साथ कभी न डूबने वाले अंग्रेजी साम्राज्य का सूर्य, भारत में सदा के लिए अस्त हो गया। भारत से गोरे अंग्रेज चले गए, चेहरे बदल गए। शेष रह गया, अंग्रेजी प्रशासनिक ढांचा, व्यवस्था, कानून, संधियां-समझौते, शिक्षा, चिकित्सा प्रणालियां, खाद, कृषि , उत्पादन, अंग्रेजी जीवन शैली और अंग्रेजी संस्कृति।
भारत में भारतीय संविधान बना। वह मौलिक अधिकार एवं निदेशक सिद्धांतों की लुभावनी विभिन्न धाराओं से सुसज्जित भी हुआ पर 65 वर्ष बीत गए, संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रीय भविष्य संवारने हेतु संविधान में जो सपना संजोया था, वह आज भी ज्यों का त्यों विद्यमान है।
हमने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सन् 1857 में क्रांति का जो शंखनाद किया था, उसका उद्देश्य क्या था? यह हम स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भूल गए। क्या हम कभी संगठित रहे हैं? इसे कौन नहीं जानता? उस समय राष्ट्रीय नेतृत्व का लोहा, विदेशियों ने भी माना था। वे हमसे सीधे दो-दो हाथ करने से घबराते थे। हम सादा जीवन, उच्च विचार और सुसंस्कारों के कारण सदैव धर्मपरायणता, ज्ञान एवं कलानिष्ठा , धैर्यशीलता और शूरवीरता जैसे गुणों से किसी भी आंतरिक या वाह्य चुनौती का सामना करने के लिए हर समय सुसज्जित एवं तैयार रहते थे। यह गुण हमें वेदों से प्राप्त होते थे। वेद दिव्य गुणों के स्रोत , सनातन हैं। सनातन सत्य है। सत्य अखण्ड ब्रह्म है। ब्रह्म वायु समान अकाट्य सर्वव्यापक कण-कण में विद्यमान है। ईश्वर सबका मालिक, एक है। इसलिए वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात विश्व एक परिवार है। भारत ने कहा है।
सनातन प्रेमी तथा धर्म परायण माता-पिता की गोद में पनपने और पोषित होने वाली संतान सदैव सदाचार की सहचरी रही है। बच्चों और विद्यार्थियों में माता-पिता व गुरु जनों के प्रति श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वाश जैसे सदगुण हर समय विद्यमान रहते थे। यही कारण है कि वे उनका आदर-सम्मान करने में कभी कहीं कोई चूक या संकोच भी नहीं करते थे।
युगों से भारत कृषि प्रधान देश रहा है। उसकी 80% जनता गांवों में रहती है। वहां जल, जंगल, जमीन और वायु पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने के कारण, उत्पादन से समाज का भरण, पालन-पोषण सहज होता है। इसलिए गांवों में चिरकाल से गो-पालन, कृषि , बागवानी, व्यापार, हस्तकला, लघु एवं कुटीर उद्योग अपनाए जाते हैं।
राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात , राष्ट्र की आशा के अनुरूप, भारत का नव निर्माण करने हेतु, देश के सशक्त प्रधान मंत्री के नेतृत्व में देश की परंपरागत स्वदेशी , नैतिक, आध्यात्मिक, कलात्मक, वितरण, सांस्कृतिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और न्यायिक व्यवस्था को सुदृढ़, सशक्त एवं सुचारु बनाया जाना चाहिए था। मगर दुर्भाग्यवश आज तक ऐसा हुआ नहीं – देश को बार-बार मात्र पाश्चात्य शिक्षा से ही प्रेरित प्रधान मंत्री मिलते रहे हैं।
फूट डालो और राज करो। पहले ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक , भारत में अंग्रेजी नीति रही। अब भ्रष्टतन्त्र के पोषक , समाज विरोधी तत्व और देश के षड्यंत्रकारियों के द्वारा निजहित में, भारतीय समाज को खण्ड-खण्ड करने और उसे पूर्णत्या खोखला बनाने हेेतु भान्ति- भान्ति के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। देश भर में क्षेत्रवाद से लेकर भाषा , जाति, धर्म, संप्रदाय, धर्मांतरण, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, रंग, वर्ण, मत, पंथ, आरक्षण, अल्प-बहुसंख्यक, और लिंगादि भेद भावों को बढा़वा देकर उसे बांटा जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के आधार पर राष्ट्र का विकास माना जाता है जबकि भ्रष्टाचार, काला धन, गबन, घोटालों के रूप में वास्तविकता कुछ और ही होती है। इससे राष्ट्र हित में राष्ट्रीय संगठन शक्ति को भारी आघात पहुंचा है और इससे भारत का संघीय ढांचा कमजोर हुआ है।
बच्चों और विद्यार्थियों में माता-पिता व गुरुजनों के प्रति सेवा, आदर सम्मान में निरंतर आ रही कमी, एक बड़ा दुःखदायी विषय है। अज्ञानतावश बहुत से अभिभावक अपने बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पा रहेे हैं। जिन बच्चों को उनसे अच्छे संस्कार मिलते हैं, परंपरागत गुरुकुलों के अभाव में उन्हें भली प्रकार फलने-फूलने हेतु, गुरुजनों का अपेक्षित योगदान और सहयोग भी नहीं मिल रहा। राजनेेता, प्रशासक, अधिकारी और कर्मचारी वर्ग एक दूसरे से प्रेम आदर.सम्मान व सहयोग पाने के स्थान पर उपेक्षा का शिकार होते हैं। प्रशासनिक कार्य में विसंगतियां आती हैं। राष्ट्रीय विकास प्रभावित होता है। इसी तरह वरिष्ठ नागरिकों का युवा वर्ग द्वारा स्थान-स्थान पर तिरस्कार और निरादर होता है। उनके सम्मान में निरंतर शिथिलता एवं गिरावट आ रही है। इसका कारण क्या है? क्या धन, पद, ज्ञान, आयु और बल-पराक्रम में बड़ों के द्वारा असमर्थ, असहाय, अल्पायु, अपंग, निर्धन और निर्बल जैसे छोटों के प्रति उनके आचरण में दोष आ रहे हैं? क्या बड़ों का आचरण संदिग्ध हो रहा है?
मत भूलो ! कि समाज में पनपने वाली हर बुराई का जन्म किसी व्यक्ति मात्र से होता है। व्यक्ति का जब-जब आत्म-पतन होता है, तब-तब वह मनव तरह-तरह के अनेकों दुव्र्यसनों में लिप्त होकर अपराध और षड्यंत्रों का भी शिकार हो जाता है। इस तरह एक सदाचारी भी अपना लक्ष्य भूलकर दुराचारी बन जाता है। इससे वह स्वयं अपना, परिवार, गांव, समाज, राज्य, राष्ट्र और विश्व का शत्रु बन जाता है। उसकी कोई भी एक छोटी सी भूल, दुसरों के लिए कभी भी बड़ी चुनौती बन सकती है जो किसी का नाश या सर्वविनाश करने में पर्याप्त होती है।
इन दिनों समस्त युवावर्ग में असंतोष की लहर पनप रही है। वह स्नातक होकर बेरोजगार रहने के लिए विवश है। वह डिग्री, डिप्लोमा प्राप्त करता है। उसका खर्च उसके माता-पिता वहन करते है ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके। वह बुढ़ापे में उनका सहारा बन सके। उसे रोजगार न मिलने के कारण पूरा परिवार परेशानियोें का शिकार बनता है। उसे महंगाई और निराशा की मार भी झेलनी पड़ती है।
आज संपूर्ण राष्ट्र ; राज्य, समाज, गांव, परिवार और हर नागरिक अपनी आंतरिक एवं वाह्य रक्षा-सुरक्षा और विकास चाहता है। ऐसा संभव कैसे होगा? इसके लिए सर्वप्रथम हम सबको परंपरागत संगठित, अनुशासित, चरित्रवान, और अपने कार्य में पारंगत होना होगा, तभी हम देश की आंतरिक एवं वाह्य चुनौतियों का डटकर सामना कर सकेंगे। छोटों को बड़ों की आज्ञा-पालना करनी होगी। उनके द्वारा उन्हें पूरा सम्मान देना होगा, तभी वे अपनी सफलता हेतु उनकी कृपा के पात्र बनेंगे और वे उनसे कुछ सीख सकेंगे। बड़ों के द्वारा अपने जीवन में मन, कर्म और वाणी में सदाचार का पालन करना होगा, तभी वे छोटों के लिए कोई उच्च आदर्श स्थापित कर सकेंगे। युवाओं को स्वयं करने का कोई न कोई मनभावन कार्य अवश्य चुनना होगा जिसमें उनकी अपनी रुचि हो। बदले में कार्यकुशलता बढ़ेगी। अपनी रुचि से किया गया हर कार्य आत्म संतुष्टि प्रदान करता है और विकास में महत्व पूर्ण योगदान देता है।
अंत में हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार गाड़ी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने में उसके चार बढ़िया चक्कों का महा योगदान रहता है ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सुख-शांति एवं समृद्धि को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए राष्ट्र में सशक्त राष्ट्रीय संगठन, कठोर अनुशासन, सदाचार और कार्य-कौशल भी नितांत आवश्यक है।सितम्बर 2012
मातृवन्दना
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दस्तक – संपूर्ण क्रांति की
इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है कि युगों-यगों से भारतीय सनातन गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली ने विश्व की विशाल धरती पर समस्त मानव समाज, संस्कृत स्थानीय भाषा , विद्या-कला, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति तथा वैदिक साहित्य – दर्शन , शास्त्र आदि का सृजन, पोषण , रक्षा और उसका विकास किया। समस्या व्यक्तित्व विकास की रही हो या आर्थिक, सामाजिक रही हो या राजनैतिक, सभ्यता – कला-सांस्कृतिक रही हो या आध्यात्मिक – गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को हर क्षे़त्र में मिली पूर्ण सफलता उसके अपने अस्तित्व का प्रमाण है। वह अपने आप में पूर्ण थी, सक्षम थी और समर्थ भी।
प्रमाणिकता के अनुसार भारतीय इतिहास उन महान् विभूतियों के अदम्य साहस, पराक्रम, न्याय प्रियता, दूरदर्शिता , सद्चरित्रता, धीरता, वीरता, त्याग सेवा-भाव, बलिदान, परोपकार, सादगी, सत्य, प्रेम, भक्ति, जप, तप, ध्यान, और योग-साधना की पवित्र गाथाओं से भरा हुआ है। इनका गुण-गान करती कलम कभी रुकती नहीं है। वाणी कहते, कान श्रवण करते थकते नहीं हैं और आंखें सोना भूल जाती हैं। यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की ही देन थी जिसके बल पर भारत विश्व में सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ।
सारी धरती गोपाल की है। धरती पर रहने वाले सभी प्राणियों का स्वामी मात्र एक है।विश्व एक परिवार है। कहने वाला अगर संसार में कोई राष्ट्र है तो वह भारत वर्ष ही है। इससे उसके सत्य, ज्ञान, सर्वोदयी भावना और शुद्ध संकल्प का भान होता है। ऐसा विश्व ने माना है।
बात सर्व विदित है कि किसी घर की कमजोरी का लाभ कोई बुद्धिमान, महा चतुर, कूटनीतिज्ञ शत्रु ही उठाता है। वह पहले उस घर में फूट डालता है और फिर उसका आनन्द लेता है। समय या असमय पर भारत वर्ष के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है।
सन् 1835 ई0 में मैकाले ने भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करने के पश्चात भली प्रकार जान लिया था कि जिस प्रकार उसके अपने राष्ट्र में सुख-समृद्धि के लिए लोक प्रिय सरकार और उसे दीर्घकाल तक अपने अस्तित्व में बने रहने के लिए उसका स्वच्छ, पारदर्शी एवं कुश ल प्रशासन अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार शान्ति प्रिय ज्ञान-विज्ञान, अपार वैभव एवं अतुल संपदा से सम्पन्न भारत वर्ष को हर प्रकार से क्षीण, हीन, खोखला करने और उसे लूटने के लिए भी ऐसी भौतिकवादी शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है जो भारत की ब्रह्मविद्या, कला, संस्कार, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, साहित्य और सभ्यता का समूल विनाश कर दे। वह फिर कभी पनपे भी तो वह मात्र ब्रिटिश साम्राज्य के ही हित में समर्पित हो।
उपरोक्त भारत विरोधी भावना के साथ दो अक्तूबर 1835 के दिन मैकाले गोरों के द्वारा, गोरों के लिए आयोजित भारत के किसी अमुक भू-भाग पर गुप्त सम्मेलन में उपस्थित हुआ। वहां उसने अध्यक्षीय भाषण में गोरों को संबोधित करते हुए कहा था कि हमने भारत में शिक्षा के द्वारा एक ऐसा नया वर्ग तैयार करना है जो हाड मांस और रक्त से भले ही भारतीय हो परंतु वह हृदय और मस्तिष्क से अंग्रेज जैसा अवश्य होगा।
मैकाले भारत में सुलभ, सस्ते और चिर टिकाऊ स्थानीय काले अंग्रेजों का निर्माण करना चाहता था ताकि उनके सहारे भारत में ब्रिटिश राज अधिक से अधिक काल तक स्थिर रह सकेे। मैकाले के द्वारा ब्रिटिश पार्लियामैंट में दिए गए वक्तव्य के आधार पर वहां की सरकार के द्वारा भारतीयों पर जबरन थोपी गई शिक्षा-प्रणाली स्थानीय काले अंग्रेजों का निर्माण करने में एक सफल कार्यशाला सिद्ध हुई।
15 अगस्त 1947 के दिन भारत स्वतंत्र हुआ, हमें धरोहर रूप में पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली मिली। भारतीय सनातन जीवन पद्धति के अनुसार आवश्यक था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् भारतीय जन, समाज और राष्ट्र हित में हम पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली को निरस्त कर देते और उसके स्थान पर फिर से गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली अपना लेते परंतु ऐसा किया नहीं। इसकी हमने आवश्यकता ही नहीं समझी। लम्बे समय तक पराधीन रहे भाारतवासियों में से अधिकांश आज भी अपने हृदय और मस्तिष्क से भारतीय कहलानेे के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें पाश्चात्य संस्कृति से प्रेम है। उससे उनका मोह भंग नहीं हुआ है।
हम पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली की उसी प्रकार पालना कर रहे हैं जैसा कि अंग्रेज किया करते थे। पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति के संस्कार बोने वाली पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली का आज भारत में चहुं ओर बोलवाला हैे। वे शिक्षक हों या अभिभावक, राजनीतिज्ञ हों या प्रशासक – वे आत्म कल्याण, भारतीय जन, समाज और राष्ट्र हित भूलकर यहां-तहां पाश्चात्य शिक्षा -प्रणाली पर आधारित स्थान-स्थान पर अंग्रेजी माध्यम की पाठशालाएं, विद्यालय, महा विद्यालय और विश्व विद्यालय खोल रहे हैं। उनमें भारतीय बच्चों को स्वदेशी , सनातन संस्कार देने के स्थान पर पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति के संस्कार दे रहे हैं। उन्हें अंग्रेज बना रहे हैं । उनके द्वारा सनातनी, स्वदेशी भावनाओं को कुचला जा रहा है। भारतीय बच्चों का खाना-पीना, पहनना, बातचीत, आचार-व्यवहार सब कुछ अंग्रेजों जैसा हो रहा है। कौन हैं? यह लोग किसका हित कर रहे हैं?
वर्तमान शिक्षा पूरी होने के पश्चात सनातक के हाथ में लिखित डिप्लोमा या डिग्री दे दी जाती है जो उसकी योग्यता का प्रमाण पत्र होेेता है। वह उसके पास अव्यवहारिक भौतिकवादी, पुस्तकीय सीमित ज्ञान होेता है जबकि सनातन जीवन पर आधारित गुरुकुल से निकला सनातक स्वाभाविक रूप में संस्कारवान, व्यावहारिक एवं सर्वगुण संपन्न स्वदेशी , ब्रह्मज्ञान-विज्ञान, विद्या और कला का स्वामी एवं स्वाभिमानी होता था। वह निज सुख-दुःख भूलकर राष्ट्रीय जन, समाज, और स्वदेश से प्रेम करने वाला होता था। वह स्वदेश के मान-सम्मान के लिए कार्य करता था। वह जीता था तो देश के लिए और मरता था तो भी देश के लिए ही मरता था, कभी निज हित या स्वार्थ के लिए नहीं।
आदिकाल से भारतीय समाज में नारी मां, बहन, बहु, बेटी, पत्नी, भाभी के रूप में जानी और पहचानी जाती है परंतु वर्तमान समय ने उसे कालगर्ल, लवर, नाइट बाइफ, बना दिया है। उसे क्लब, कैबरा, होटलों में पहुंचा दिया जाता है। वहां वह नृत्य करके अपना देह-प्रदर्शन ही नहीं करती है बल्कि देह-व्यापार भी करती है। इसी प्रकार आजकल नारी-अपहरण, बलात्कार, भ्रूण हत्याएं, आत्म-दाह की घटनाओं में भारी वृद्धि देखने, सुनने और पढ़ने को मिल रही हैं। वह समाचार पत्र, दूरदर्शन, वीडियो, रेड़ियो, दूरभाष , स्टिकर, चलचित्र, विज्ञापन, इस्तिहार चाहे कुछ भी हों – उन पर नारी को अश्लील चित्रों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। क्या भारत में नारी जाति का कभी इस प्रकार निरादर होता था? यह कितनी लज्जा की बात है कि जिस देश में नारी जाति को देव कन्या, ज्ञानदेवी और मां कह कर उसकी पूजा की जाती हो, वहां उसे नंगा करके सबके सामने प्रदर्शित किया जाता है। उसके यौवन को वेश्यालय की गंदी और घृणित वस्तु बना दिया जाता है। उसे घर में अकेला रहना, घर से बाहर निकलना, वाहन पर यात्रा करना और उसे अपनी लाज तक बचाए रखना, कठिन हो गया है। इन्हें बढ़ावा देने वाला कौन है?
अध्यात्मप्रिय भारत में ब्रह्मज्ञान-विज्ञान, विद्या, कला और संस्कार जिन्हें कभी विश्व भर में जाना और पहचाना जाता था – का विकास करने के स्थान पर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान पर आधारित मात्र भौतिकवाद को बढा़वा दिया जा रहा है। देश में अंधाधुध मिल कारखाने लगाए जा रहे हैं। युवाओं में असंतोष की लहर पनप रही है। बेरोेजगारी बढ़ रही है। धरती पर पेड़- जंगल कम होते जा रहे हैं। जल, थल और नभचर जीव-जंतुओं की संख्या कम होती जा रही है। जन संख्या निरंतर बढ़ रही है। कंकरीट पत्थरों के शहर बढ़ रहे हैं। उपजाऊ धरती सिकुड़ती जा रही है। पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है। देश की अपार धन-संपदा का मनमाना दुरुपयोग किया जा रहा है। काला धन विदेशों में जमा किया जा रहा है। भ्रष्टाचार जोरों पर है। कुछ ही लोगों का जीवन सुखमय है। आज समाज का छोटा या बड़ा हर वर्ग भौतिक सुख की अंधी दौड़ में सामिल है। मानव जीवन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी फल प्रायः लुप्त हो रहे हैं। आज इन सबका उत्तरदायी कौन है?
अध्यात्मप्रिय भारत में जहां तीव्रता से भौतिकवाद बढ़ा है उसके साथ ही साथ मानवीय इच्छाएं भी बहुत बढ़ी हैं। उन्हें पूरा करने के लिए हमारे पास धन, समय, स्थान की निरंतर कमी हो रही है। दिन-प्रतिदिन अपराध बढ़ रहे हैं। अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। समाज विकृत हो रहा है। संस्कार, ब्रह्मज्ञान-विज्ञान, विद्या और कला से ओतप्रोत भारतीय सभ्यता-संस्कृति तो कभी ऐसी नहीं थी। फिर हम दिन-प्रतिदिन निर्बल क्यों हो रहे हैं? हमारी विवशता क्या है?
ऐसा क्यों लगता है? स्वतंत्र भारत में आज भी ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें मजबूत और हरी-भरी हैं । कहीं हम उनकी नीतियों का पालन तो नहीं कर रहे? नहीं तो देश में भ्रष्टाचार क्यों फैल रहा है? काला धन क्यों बढ़ रहा है? असमर्थ, निर्धन और बे-सहारा लोगोें का षोषण क्यों हो रहा है? निर्दोश भयभीत क्यों हैं? निर्दोशों को दंड क्यों मिलता है? दोषी एवं अपराधी अभय होकर क्यों घूमते है? भौतिकवादी शिक्षा-प्रणाली जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक रही हो और जिसने भारत का हर प्रकार से शोषण किया हो वह सनातनी जन, समाज और भारत की प्रगति के लिए कारगर सिद्ध कैसे हो सकती है?लार्ड मैकाले के द्वारा लिया गया सनातनी जन, समाज और भारत विरोधी एवं विनाशकारी संकल्प क्या हमने यों ही शिरोधार्य करके रखना है? क्या हम आज भी अपने हृदय और मस्तिष्क से गोरों के अधीन हैं? अगर हम मैकाले के ही अनुगामी हैं तो हम भारतवासी भी नहीं रहे। यह हमारा स्वदेश के प्रति किया जाने वाला सबसे बड़ा विश्वासघात है – देश सेवा या देश भक्ति कदाचित नहीं है। वह दिन दूर नहीं है अगर अध्यात्मप्रिय सनातनी भारतवासियों के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली नहीं अपनाई गई तो भारत में सक्रिय लार्ड मैकाले के अनुयायी एक न एक दिन भारत को अवश्य ही ध्वस्त कर देंगे और वह फिर से पराधीन हो जाएगा।
कहीं हम ऐसा करके अध्यात्मप्रिय भारत के लिए एक और स्वतंत्रता-संग्राम की तैयारी तो नहीं कर रहे?
सितम्बर 2012
मातृवन्दना