मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: आलेख

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    अपने प्रति अपनी सजगता  

    मानव जीवन विकास – 1

    मानव का मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमयी ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है, आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, उसे पहचान लेता है और यह जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न होती है l  

    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकर नहीं होता है l कोई उसे जब चाहे जैसे बर्तन में डाले वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञान के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये l यह उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, करने में सक्षम है l  इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दुसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l  

    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढ़ियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवम् अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती हैं l ये तो उसके द्वारा विचार करने योग्य विषय है कि उसे किस सीढ़ि पर चढ़ना है और किस सीढ़ि पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख l 

    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l

    कुसंगत से दूर रहो, इसलिए नहीं की आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना साहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l उससे निकलने वाले परिणाम से, आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर, समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l  

    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने मन को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l  

    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग सुख का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया-अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया-अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना, आचरण किया गया हो – आनंद रहित है l जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सभी सुखों से परिपूर्ण हो जाता है l

    प्राचीनकाल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत होकर उच्च सन्यासी हो गये हैं या जिन्होंने तन, मन, और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थितप्रज्ञा की प्राप्ति अथवा आत्म-शांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके रास्ते भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l  

    वह ब्रह्मचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफ़ान में कभी अडिग न रह सके,  वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रह्मचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयम का पक्का होता है और दूसरा अपने प्रण का l

    अपमानित तो वह लोग होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बन सके

    प्रकाशित 1 अक्तूबर 1996 कश्मीर टाइम्स


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    विद्या मंदिर और उसकी भूमिका

    शिक्षा दर्पण

    अगस्त 2022  मातृवंदना

     माँ-बाप का सान्निध्य घर/परिवार बच्चे के लिए संस्कार, संस्कृति और सभ्यता निर्माण करने की पहली पाठशाला है l

    गुरु का सान्निध्य पाठशाला, विद्या मंदिर विद्यार्थी के लिए देश, सनातन धर्म-संस्कृति के प्रति जागरूक एवं सेवा हेतु तैयार करने वाली दूसरी पाठशाला है l

    शिक्षा नीति :–

    कोई भी भाषा सीखना बुरा नहीं है, जितना बुरा अन्य भाषा सीखकर मातृभाषा/राष्ट्रीय भाषा भूल जाना है l

    भारत एक राष्ट्र है l देशभर में एक शिक्षा नीति, एक पाठ्यक्रम और विभिन्न पुस्तकों का हर स्थान पर एक समान मूल्य निर्धारित करना अति आवश्यक है l

    मुफ्त में किसी को कुछ भी नहीं देना चाहिए l प्रत्येक विद्यार्थी को इस योग्य शिक्षा मिलनी चाहिए कि वो अपने गुण, ज्ञान स्वभावानुसार स्वयं के पैरों पर खड़ा होकर अपने घर/परिवार का उचित पालन–पोषण और रक्षा कर सके l

    चर्च के स्कूलों में अंग्रेजी, मस्जिदों के मदरसों में उर्दू पढ़ाया जा सकता है तो मंदिरों के गुरुकुलों में संस्कृत भी पढ़ाई जा सकती है l  

     विद्या तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मरण शक्ति, तत्परता और कार्यशीलता यह छ: गुण जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है l

    जिन अभिभावकों ने कान्वेंट स्कूल/मदरसे में शिक्षा पाई है, विशेषकर उनके बच्चों को देश, सनातन धर्म-संस्कृति की शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिए l

    धर्म क्या है ? रामायण से, धर्म की रक्षा कैसे की जाती है ? महाभारत से, दोनों को जानने हेतु उन्हें विद्यार्थियों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिए l

    रामायण चरित्र निर्माण करती है, गीता उचित कार्य करना सिखाती है – मानव जीवन में दोनों संस्कार अपेक्षित हैं, हर विद्यार्थी को मिलने चाहियें l

    शिक्षण-प्रशिक्षण :

    गुरु-शिष्य का वह संयुक्त प्रयास जिससे शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का विकास हो, उनमें दिव्य शक्तियों का संचार हो, शिक्षण-प्रशिक्षण कहलाता है l

    गुरुजन व्यक्ति/परिवार/समाज और विश्व हित में विद्यार्थियों को शास्त्र और देश हित में शस्त्र विद्याओं का शिक्षण-प्रशिक्षण देते थे, उन्हें ज्ञात था – आने वाले समय में विधर्मी किसी को चैन से नहीं जीने देंगे l

     हमें अपने बच्चों को ऐसे विद्यालय में प्रवेश अवश्य करवाना चाहिए जहाँ उन्हें प्राचीन व आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ देश, सनातन धर्म-संस्कृति से प्रेम का भी  शिक्षण-प्रशिक्षण मिल सके l

    विद्यालय में विद्यार्थियों को योग, आयुर्वेद, अध्यात्मिक शिक्षा, संस्कार तथा भारतीय इतिहास का शिक्षण-प्रशिक्षण अवश्य मिलना चाहिए l

    कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण देने से विद्यार्थी की योग्यता में निखार आता है l जीवन में निखार आ जाए तो उस कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण को चार चाँद लग सकते हैं l

    विद्यार्थी जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों का विकास करने के लिए उसे स्वयं में छिपी हुई किसी न किसी कला (पाक विद्या, बागवानी, सिलाई, बुनाई, कढाई, वादक-यंत्र वादन, नृत्य, संगीत, अभिनय, भाषण, साहित्य लेखन जैसी अन्य जो अनेकों कलाएँ हैं l) से प्रेम अवश्य करना चाहिए l विद्यार्थी के पास जीवन निर्वहन करने के साथ-साथ अपना जीवन संवारने हेतु इससे बढ़िया अन्य और संसाधन क्या हो सकता है !     

    अगर वर्तमान में वामपंथी/इस्लामी और सेक्युलर सोच या कट्टरता के विरुद्ध समय रहते बच्चों और विद्यार्थियों को शास्त्र-शस्त्र विद्याओं का शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं मिला तो बहुत देर हो जाएगी l


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    19 राम-राज्य कैसे हो साकार?

    राष्ट्रीय भावना

    मातृवन्दना मार्च-अप्रैल 2014

    प्राचीन काल से ही भारत भूमि ऋषि-मुनियों की तपो भूमि रही है। यह सब उन्हीं के तप का प्रतिफल है कि भारतवर्ष विश्व के मानचित्र पर आर्यवर्त के नाम से सर्व विख्यात हुआ। समय की मांग के अनुसार उसमें वेद, भाष्य, ऋचाएं, रामायण और गीता जैसे अन्य अनेकों धर्म-ग्रंथों की संरचनाएं हुईं और उनका शृंखलावद्ध प्रचार-प्रसार भी हुआ।

    भारत में अगर न्यायप्रिय राम-राज्य की स्थापना हुई थी तो उससे पूर्व राक्षस प्रवृत्ति एवं अन्याय के विरुद्ध राम का रावण के साथ भयंकर युद्ध भी हुआ था। कहते हैं रावण के यहां एक लाख पूत और सवा लाख नाती थे, पर अंतिम समय में, उसके घर दीपक जलाने वाला कोई भी शेष नहीं रहा था। कितना भयावह होता है, युद्ध-परिणाम! 

    जो राम-राज्य किसी ने देखा नहीं, वह हमें अब भी घर-घर में उपलब्ध जीवंत रामायण रूप में पढ़ने व विचार करने हेतु अवश्य मिल जाता है। रामावतार हुए युग बीत चुके हैं परन्तु श्रीराम जी के प्रति हमारी दृढ़ आस्था आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है, वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे। उन्होंने अपने जीवन काल में, हर कदम पर मर्यादाएं सुनिश्चित की थीं, जिनके अंतर्गत उनसे हमें प्रेरणा मिलती है। वह हमारे जन मानस पटल पर अंकित हैं।

    आज भारतवर्ष में राम-राज्य नहीं है, इसलिए उसकी पुनस्र्थापना हेतु हम सभी को आज ही से अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में सक्रिय हो कर कुछ प्रयास अवश्य करने होंगे।

    महऋषि मनु ने अपनी समृति में-

    धृतिक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

    धर्म के दस लक्षण बताए हैं। भगवान श्रीराम ने अपने जीवन काल में इन सभी का अनुपालन किया। महऋषि  वाल्मीकि के अनुसार वे धैर्य में हिमालय के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान थे। सत्य भषण में उनका वंश प्रसिद्ध ही था। रघुकुल रीति सदा चली आई। प्रान जाहि वरु वचन न जाई। उन्होंने विमाता की इच्छापूर्ति हेतु राज्य तक का त्याग कर दिया। उन्हें लेशमात्र लोभ नहीं था। वह इंद्रियों को अपने वश में किए हुए थे। व्यवहार में शुचिता थी। वे यज्ञों के रक्षक और स्वयं यज्ञ कत्र्ता थे। महऋषि विश्वामित्र जी के यज्ञ रक्षणार्थ राक्षसों से संघर्ष किया। भगवान श्रीराम ने धर्म के सभी लक्षणों का पालन करते हुए रामराज्य की स्थापना की। श्रीराम और राजगुरु महऋषि वशिष्ठ में एक लम्बा वार्तालाप हुआ था जिसका संपूर्ण वृतांत संस्कृत में निवद्ध ग्रंथ “योग-वशिष्ठ” में उपलब्ध है। उसमें योग वैराग्य की बहुत सी बातें हैं किंतु साथ ही “एक राजा का क्या कर्तव्य होना चाहिए?” इसका भी विशेष रूपेण उसमें उल्लेख किया गया है। राजा के उन्हीं कर्तव्यों का पालन करते हुए श्रीराम ने रामराज्य स्थापित किया। किंतु आज हम अपनी जड़ों से कट चुके हैं “योग-वशिष्ठ”, विदुर-नीति, अर्थ शास्त्र, दास बोध जैसे ग्रंथों का अध्ययन-मनन कौन करे? हमारे नैतिक पतन का कारण अगर है तो वह है धर्मविहीन राजनीति। आज देश की दुरावस्था देखिए, देशभर में आंतरिक और वाह्य संकटों के बादल मंडरा रहे हैं। देश के दुश्मन राष्ट्र को खंडित करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद से कृत संकल्प हैं। राष्ट्र को कदम-कदम पर भारी अपमान और विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। भारतवर्ष आज अंग्रेज शासित नहीं है, फिर भी सतासठ वर्ष बीत जाने के पश्चात् वह आज भी उनकी नीतियों, व्यवस्थाओं और प्रावधानों का बंधक बना हुआ है। देश की जनता जाति, धर्म, ऊंच-नीच, आपसी फूट, लिंगादि भेद-भावों से ग्रस्त है। संपूर्ण देश महंगाई, भ्रष्टाचार और नारी अपमान की ज्वलंत घटनाओं से प्रभावित हुआ है। परंतु भारतीय युवा वर्ग की अपनी लगन और कड़ी मेहनत से प्रायः सुप्त पड़ी तरुणाई फिर से अंगड़ाई लेने लगी है। उसमें ज्ञान, प्रेम, समर्पण, न्याय और धैर्य जैसे सद्गुणों का प्रादुर्भाव होने लगा है। समय आ गया है, अब बुराई के रावण का, युवा-वर्ग संहार अवश्य करेगा।

    आइए! हम सब मिलकर जन, परिवार, गांव और राष्ट्रहित के कार्य करके देश में सक्षम नेतृत्व का चयन कर राम-राज्य की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करें।


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    वैदिक वर्ण व्यवस्था का सत्य

    मातृवंदना जुलाई 2017

    इस लेख का मुख्य प्रेरणा-स्रोेत लाला ज्ञान चंद आर्य द्वारा लिखित ”वर्ण व्यवस्था का वैदिक रूप“ पुस्तक है। यह पुस्तक उनका अपने आप में एक हृदय स्पर्शी और अनूठा प्रयास है।
    पुस्तक में दर्शाया गया है - मानव शरीर के अवयव मुख-ब्राह्मण, बाहु-क्षत्रिय, उदर-वैश्य और पैर-शूद्र हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर से चारों वर्णों का दैनिक कार्य करते हुए ही आर्य है। मानव जाति के पूर्वज आर्य थे। इसलिए समस्त मानव जाति मात्र आर्य पुत्र है। आर्य पुत्र जो कर्म करने के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं, कार्य करने के पश्चात वे स्वयं आर्य हो जाते हैं। शरीरिक कार्य कर लेने के पश्चात शरीर के अवयव पैर अछूत या घृणित नहीं हो जाते हैं और न ही उन्हें कभी शरीर से अलग ही किया जा सकता है। वैदिक शूद्र शिल्पकार या इंजिनियर भी अछूत या घृणित नहीं हो सकता। मुख, भुजा, पेट, या पैर में किसी एक अवयव की पीड़ा संपूर्ण शरीर के लिए कष्टदायी होती है। वर्ण व्यवस्था में किसी एक वर्ण का कष्ट समस्त समाज के लिए असहनीय है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कर्ममूलक हैं, जन्ममूलक नहीं। समाज में सभी आर्य एक समान हैं। उनमें कोई ऊँच-नीच अथवा छूत-अछूत नहीं है।
    आर्य वेद मानते हैं। वे अपने सब कार्य वेद सम्मत करते हैं। आर्य वही है जोे संकट काल में महिला, बच्चे, वृद्ध और असहाय की जान माल की रक्षा करते हैं, सुरक्षा बनाए रखते हैं। ब्राह्मण वर्ण शेष तीनों वर्णों का पथ प्रदर्शक गुरु और शिक्षक है। वह उन्हेें ज्ञान प्रदान करता है। क्षत्रिय वर्ण शेष तीनों वर्णों की रक्षा करके उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है। वैश्य वर्ण शेष तीनों वर्णों का कृषि-बागवानी, गौपालन, व्यापार से पालन-पोषण करता है। शुद्र वर्ण शेष तीनों वर्णों के लिए श्रमसाध्य शिल्पविद्या, हस्तकला द्वारा भांति-भांति की वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन करके सुख सुविधा प्रदान करता है।
    समाज मेें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्मगत चार प्रमुख वर्ण हैं। वर्ण व्यवस्था में मनुष्य की जाति मानव है। जैसे गाय जाति को भैंस या भैंस जाति को कभी बकरी नहीं बनाया जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य जाति को किसी अन्य जाति का नहीं कहा जा सकता।
    वर्ण व्यवस्था में एक व्यसक लड़की को अपना मनपसंद का वर चुनने का पूर्ण अधिकार है। जो उसे पसंद होने के साथ-साथ उसके योग्य होता है। लोभ से ग्रस्त, भ्रष्टचित होकर विपरीत वर्ण में विवाह करने से वर्णसंकर पैदा होते हैं, हो रहे हैं। जिससे सनातन कुल, वर्ण-धर्म का नाश होता है, हो रहा है। आत्मपतन होने के साथ-साथ समाज में पापाचार और व्यभिचार बढ़ता है, बढ़ रहा है।
    वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन के कल्यााणार्थ चार प्रमुख आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम। वर्ण व्यवस्था के चारों आश्रमों मेें वेद सम्मत कार्य किए जाते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु विद्यार्थी को वैदिक शिक्षा प्रदान करता है। गृहस्थाश्रम में विवाह, संतानोत्पति, संतान का पालन-पोषण, शिक्षा और व्यवसाय आदि कार्य होते हैं। वानप्रस्थाश्रम में आत्मसुधार तथा ईश्वरीय तत्व का चिंतन मनन होता है और सन्यासाश्रम में जन कल्याणार्थ हितोपदेश दिया जाता है।
    ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी किसी गृहस्थाश्रम में जाकर अपने खाने के लिए भीक्षाटन करते हैं, न कि वे खाने के लिए जीते हैं। वे गृहस्थ के कल्याणार्थ गृहस्थियों को उपदेश देते हैं।
    ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी का जीवन सदाचारी, सयंमी, जप, तप, ध्यान करने वाला होने के कारण गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहता है। वे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिससे गृहस्थी को किसी प्रकार का कष्ट या उसकी कोई हानि हो।
    वर्ण व्यवस्था में सबके लिए कार्य करना, सबका अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहना, आपस में मेल मिलाप रखना, आपसी हित-चिंतन, आवश्यकता पूर्ति, पालन-पोषण, रक्षण, एक दूसरे का सम्मान करना, प्रेम स्नेह रखना, महत्व समझना, ऊँँच-नीच रहित स्वरूप, अधिकार, कर्तव्य और सहयोग को बढ़ावा देना अनिवार्य है। वेद सम्मत किया जाने वाला कोई भी कार्य जन कल्याणकारी होता है। उससे लोक भलाई होती है।
    वर्ण व्यवस्था गृहस्थाश्रम के लिए उपयोगी है। वह उसकी हर आवश्यकता पूरी करती है। वर्णों के कर्म गुण, संस्कार और स्वभाव अनुसार विभिन्न होते हैं। ब्राह्मण सहनशील और ज्ञानवान होेेेता है तो क्षत्रिय विवेकशील तथा शूरवीर। वैश्य धनवान, मृदुभाषी और बुद्धिमान होता है तो शूद्र विद्वान शिल्पकार और कर्मशील। एक वर्ण ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे दूसरे वर्ण को कष्ट अथवा उसकी किसी प्रकार की हानि हो। वर्णों का मूलाधार कर्मगत उनका अपना कार्यकौशल और सदाचार है। चारों वर्ण अपने-अपने गुण संस्कार और स्वभाव से जाने जाते हैं। ब्राह्मण तात्विक ज्ञान से जाना जाता है तो क्षत्रिय बल-पराक्रम से। वैश्य धर्म कर्तव्य-परायणता से जाना जाता है तो शूद्र शिल्प-कला और कार्य-कौशल से। वर्णों में किसी एक वर्ण का दुःख तीनों वर्णों के लिए अपना दुःख होता है। मानों पैर में कोई कांटा लगा हो और हृदय, मष्तिष्क तथा हाथ उसे निकालने के लिए व्याकुल एवं तत्पर हो गए हों। समाज में मां-बाप तथा गुरु का स्थान सर्वोपरि है, वंदनीय है। जो बच्चे या विद्यार्थी उनका अपमान, निरादर या तिरस्कार करते हैं - वे दंडनीय हैं।
    शिल्पकार शूद्र वर्ण भी उतना ही अधिक आदरणीय है जितना कि ज्ञानदाता ब्राह्मण वर्ण। शिल्पकार शूद्र वर्ण, ब्राह्मण वर्ण की तरह अपने कार्य में विद्वान होता है। समाज मेें मानव जाति को जाति, धर्म, लिंग, ऊँच-नीच भेदभाव उत्पन्न करके बांटना वेद विरुद्ध अपराध है। यज्ञ - श्रेष्ठ कार्य से हीन, मनन पूर्वक कार्य न करने वाला, व्रतों - अहिंसा, सत्य आदि मर्यादाओं के अनुष्ठान से पृथक रहने वाला, जिसमें मनुष्यत्व न हो, वह दस्यु, अपराधी है। दस्यु व अपराधी भी आर्य बन जाते हैं, जब वे वेद मानते हैं और वेद सम्मत कार्य करते हैं। आर्य भी दस्यु या अपराधी बन जाते हैं, जब वे वेद मानना भूल जाते हैं और वेद सम्मत कार्य नहीं करते हैं। दस्यु या अपराधी - वेद नहीं मानते हैं। वे वेद विरुद्ध कार्य करते हैं। समाज में जातियां उपजातियां उन लोगों की देन है जो वेद नहीं मानते थे। जो दम्भी, स्वार्थी एवं अहंकारी थे और जो इस समय उनका अनुसरण भी कर रहे हैं।
    पूर्व में स्थित हिमालय और उससे उत्पन्न गंगा, जमुना, कृष्णा, सरस्वती, नर्वदा, कावेरी, गोदावरी और सिंधु जिस भू भाग से होकर बहती हैं, वह क्षेत्र आर्यवर्त है। जिस देश में नारी को नर की शक्ति, उसकी अद्र्धांगिनी और जग जननी मां मानने के साथ-साथ उसे पूर्ण सम्मान भी दिया जाता है, उस राष्ट्र को आर्यवर्त कहते हैं।
    आचार्य चाणक्य के अनुसार - ”जिसके पास विद्या नहीं है, न तप है, न कभी उसने दान ही किया है, न उसमें कोई गुण है और न धर्म, न उसके पास शीतलता ही है - वह मनुष्य इस मृत्युलोक में उस मृग के समान भार मात्र है जो पूरा दिन घास खाने के अतिरिंक्त और कुछ नही करता है।“


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    भारतीय इतिहास

    भारतीय इतिहास को आजतलक भारत में जनित, संस्कारित एक भारतीय ने जितना अच्छा जाना हैै, विपरीत सभ्यता, संस्कृति में जनित, संस्कारित किसी विदेशी ने नहीं। उसने तो भारतीय इतिहास को कभी जानने का प्रयास ही नही किया, उसका मात्र एक यही उद्देश्य रहा है कि  किस तरह भारत की संगठित शक्ति एवं सुख समृद्धि को नष्ट करके उसे क्षीण, हीन बनाया जा सकता है?