धर्म अध्यात्म संस्कृति – 1
हमारे देश में ऐसे अनेकों धार्मिक व तीर्थ स्थल हैं जिनके साथ हमारी पवित्र आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l हम वहां अपनी किसी न किसी कामना सहित देव दर्शनार्थ जाते हैं और अपनी कामना पूरी होने पर उन्हें श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं l इससे हमें मानसिक शांति मिलती है l
पर दुर्भाग्य से इन्हीं धार्मिक व तीर्थ स्थलों पर समाज विरोधी तत्वों का साम्राज्य स्थापित हो गया है l मंदिर परिसरों में भारी भीड़, महिलाओं से छेड़-छाड़, दुर्व्यवहार, उनके कीमती जेवरों का छिना जाना और पुरुषों की जेब तक कट जाना प्रतिदिन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है l ऐसा व्रत-त्योहार व मेलों में होता है l
इस समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि मंदिर प्रशासन और मेला आयोजकों के कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित व अनुशासित बनाने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं को भी आगे आने का सुअवसर दिया जाये l उन्हें प्रशासन की ओर से पूर्ण सहयोग मिले ताकि हमारे मंदिर और तीर्थ स्थान आस्था के केंद्र बने रहें और श्रद्धालु, भक्त जनों को वहां सदा भय एवम् तनाव मुक्त वातावरण मिल सके l पंजाब से सीखना चाहिए कि इन स्थलों की शुचिता कैसे बनाये रखी जाती है l
प्रकाशित 1 जुलाई 2007 दैनिक जागरण
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आस्था की दहलीज पर
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सुख – शान्ति कैसे प्राप्त करें
हमारा जीवन जितना अल्पायु का है उससे कई गुणा बढ़कर कामनाओं की उसमें अधिकता रहती है l हमारा मन किसी न किसी इच्छा का शिकार बना रहता है l भले ही वह कोई नर हो या नारी उनके जीवन में कोई न कोई रोग, शोक या व्याधि देखने को अवश्य मिल जाती है l मनुष्य की अपनी समस्त इच्छाएं अपनी विविधताओं के कारण कभी पूरी नहीं होती हैं l उनके फल विभिन्न हैं l
प्राचीन आचार्यों के अनुसार – सुखी मानव जीवन के मुख्यतः चार फल हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष l इनसे मानव जीवन का गहरा संबंध है l भले ही यह सब मानव जाति का भला करने में सक्षम हैं पर आज के युग में वे नीरस और उपेक्षित हो गये हैं l कारण है – अज्ञानता, और भ्रष्टाचार की सर्वव्यापकता l धर्मयापन में बाधा साम्प्रदायिकता, गुटबंदी है तो अर्थ उपार्जन में बे - इमानी, काम में अविवेक है तो मोक्ष में मैं, मैंने की भावना l
सब नर – नारी सुख चाहते हैं l वह शांति पाना चाहते हैं l वे चाहते हैं कि उन्हें मिलने वाला सुख तथा शांति एक ही बार एक साथ मिल जाये l पर यह एक ऐसी अनहोनी अपूर्ण इच्छा और कामना भी है कि जिसे पूरा करने के लिए उनका जीवन बहुत छोटा पड़ जाता है l अनुचित ढंग से आयु भर प्रयत्न करने पर भी वह जो कुछ उन्हें प्राप्त होता है – वे कभी उससे तृप्त और संतुष्ट नहीं हो पाते हैं l उन्हें सदा अशांति और निराशा ही देखने को मिलती है l
परन्तु सृष्टि में कुछ ऐसे भी विवेकशील महानुभाव विद्यमान हैं, जिन्होंने सुख तथा शान्ति पाने के परम उद्देश्य की दृष्टि से प्रकृति को मुख्यता दो भागों - जड़ तथा चेतन में विभक्त कर दिया है l जड़ प्रकृति में भौतिक शरीर और चेतन प्रकृति में अमर आत्मा विद्यमान है l
जड़ प्रकृति में धरती, आकाश, जल, वायु, अग्नि, बुद्धि और मैं या मैंने का भाव आते हैं जो प्रायः नश्वर हैं l इस प्रकृति में रोग, हर्ष, शोक, पीड़ा, भूख, प्यास, दुःख-सुख, लाभ और हानि जैसे अनेकों प्रकार के कष्ट पाये जाते हैं l अज्ञानी, भोगी, आलसी और निराशावादी ही नर-नारी इस प्रकृति से प्रभावित होते हैं l
परन्तु विवेकशील आशावादी नर-नारी अपने कठोर शरीर-श्रम, सन्तुलित भोजन, खेलकूद, भ्रमण, उचित लोक व्यवहार, स्वाध्याय, व्यायाम, योगाभ्यास, समय सदुपयोग, नियमित कार्य, ऋतू अनुसार वस्तु प्रयोग, कर्तव्य पालना, अनुशासन, सयंम और सादगी भरे सुव्यवस्थित जीवन से जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं l जड़ प्रकृति में होने वाली किसी भी घटना का उनके मन पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है l उनकी ज्ञान ज्योति निरंतर अचल और दीप्तमान बनी रहती है
मानव शरीर में चेतन तत्व का अस्तित्व है जिससे वह सजीव या प्राण वाला होता है तथा चलता-फिरता, देखता-सुनता, खाता-पीता और बातें भी करता है l चेतन तत्व सर्व सुखदायक और दैवी गुण सम्पन्न है जिनका वही नर-नारी साक्षात् कर सकते हैं जो वास्तविक सुख तथा शांति की खोज में साधनारत रहने का दृढ़ निश्चय किये हुए हैं l साधनारत रहने से साधक के मन से संसारिक विषयक वस्तुओं के प्रति भोग-सुख की इच्छा, चिंता समाप्त हो जाती है और उसका आत्मा परमात्मा से दूध में घी समान मिलने के लिए तड़प उठता है और उसकी समाधि भी लग जाती है l
जब मनुष्य में चेतना जागृत हो जाती है तो शरीर से आलस्य स्वयं ही भाग जाता है l उसमें एक अद्भुत सी स्फूर्ति आ जाती है l ऐसे महान पुरुषों का प्रत्येक कार्य दूसरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है l भोगी पुरुष उसे अवतारी पुरुष भी कहते हैं जो उनकी मंद बुद्धि और अज्ञानता की उपज होती है l सत्य तो यह है कि कोई भी साहसी और कर्मवीर पुरुष मात्र पुरुषार्थ करके वैसा बन सकता है l
समय या असमय पर इन्द्रियां, मन और बुद्धि भी संसारिक पदार्थों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती हैं जिन्हें भ्रष्ट-पथ से सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य को अभ्यास या वैराग्य के द्वारा आत्मशान्ति या वास्तविक सुख का मार्ग अपनाना होता है l उसे निरंतर साधना करनी होती है l इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का संसारिक विषयों में आसक्त हो जाने पर कोई भी आत्मा जड़ प्रकृति के अधीन कैदी के रूप में रहता है जो उसके अपने स्वभाव के विपरीत होता है l वह उस पराधीनता से मुक्त होने के लिए निरंतर सटपटाता रहता है l उसकी मुक्ति मात्र विवेकशील, कर्मनिष्ठ मनुष्य की निरंतर साधना और निराभिमान से संभव होती है l भोगी और आलसी तो हर प्रकार से क्षीण होकर संसारिक नश्वर शरीर में बार-बार जन्म और मृत्यु को ही प्राप्त होता है और कष्ट पाता है l
सृष्टि में बार-बार आवागमन को प्राप्त होना बुद्धिमानों का कार्य नहीं है और न ही यह उन्हें शोभा ही देता है l बुद्धिमान और साहसी तो वह है जिसकी इन्द्रियों में शक्ति है, मन पवित्र है, बुद्धि विलक्षण है और आत्मा भी उदार है l
कर्मशील, कर्मयोगी पुरुष के लिए ज्ञान युक्त जड़ प्रकृति संसार से ज्ञान प्राप्त करके अपने मन द्वारा उसका त्याग करना अति आवश्यक है l जो नर-नारी जड़ प्रकृति का त्याग नहीं करते हैं, उसमें लिप्त रहते हैं, वास्तव में वह सुख व शान्ति पाने से विमुख रह जाते हैं l इसके पीछे उनके मन की संसार के प्रति बनी आसक्ति होती है l अगर इस स्थान पर वह संसारिक विषयक पदार्थों का भोग किये बिना मुक्ति-पथ पर चलना आरम्भ कर देते हैं तब भी उनकी यात्रा संदेहास्पद की रहती है l उसमें इस का भय बना रहता है कि कहीं कभी अचानक उनके मन में संसारिक पदार्थों के सुख के प्रति भोग की इच्छा न पैदा हो जाये l जब कभी इस त्रुटि पूर्ण जीवन को लिए हुए, कोई भी नर-नारी मुक्ति–मार्ग पर चलते हुए संसारिक पदार्थों के रसास्वादन हेतु लालायत हो जाते हैं l तभी वह विषयासक्त ढोंगी कहे जाते हैं l इसलिए आवश्यक है कि संसार की हर वस्तु का आयु और समयानुसार भोग करना तथा अनुभवी होकर पवित्र मन द्वारा अध्यात्मिक पुरुष हो जाना l इससे कोई भी साधक अपनी डगर से विचलित नहीं होगा l क्योंकि मानसिक लालसा–इच्छा का त्याग ही सब प्रकार के किये जाने वाले त्यागों में सर्व श्रेष्ठ त्याग है l
जड़-चेतन दो प्रकृतियों को मिलाने से एक नदी बनती है तो संसारिक तथा ईश्वरीय सुख उस नदी के दो किनारे भी हैं जिनके बीच में त्याग रूपी तीव्र धारा बहती है l आप एक समय में जिज्ञासु अथवा भोगी के नाते मात्र संसारिक सुख पा सकते हैं या मोक्ष ही प्राप्त कर सकते हैं संसारिक भोग करते हुए आप मोक्ष के बारे में मात्र सोच ही सकते हैं l आपके द्वारा उसे प्राप्त किया जाना तो तभी संभव हो सकता है जब आप अपने प्राणों की भी चिंता न करते हुए नाव रूपी निश्चय से नदी की त्याग रूपी तेज धारा में देह-मोह छोडकर कूद न जाये l अगर इस नाजुक समय में आपके हृदय में तनिक सी भी विषयासक्ति रह जाती है तो आप अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते l
वास्तव में ऐसे ही समय पर किसी मनुष्य के विवेक और सयंम की कड़ी परीक्षा होती है l इसलिए आवश्यक है कि वह पहले ही पूर्ण आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय के साथ उस परीक्षा में बैठे और उतीर्ण भी हो l
इन जड़ और चेतन प्रकृतियों में मनुष्य को दो स्वरूप देखने को मिलते हैं – नामधारी और निराकार l नामधारियों में राम, शाम, शीला, गीता आदि किसी देहधारी का नाम होता है जबकि निराकार स्वयं ज्योति स्वरूप आत्मा या परमात्मा ही होता है l
वास्तविक सुख तथा शांति के उद्देश्य को मद्द्ये नजर रखते हुए जड़ प्रकृति देह का सदुपयोग करना अति आवश्यक है l जिससे कि वह प्राकृतिक कष्टों, विपदाओं, वाधाओं ओर जीवन चुनौतियों से भयभीत न हो बल्कि उनसे डटकर सामना कर सकने की शक्ति संपन्न बने l इस कार्य को करने में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष साधन मात्र हैं l
विशेष प्रकार की क्रियाओं, साधनों, सदाचार पालन के द्वारा अपनी इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि का भी सयंमन करने के साथ-साथ आत्मा पर भी पूर्ण नियंत्रण करके स्वयं को ईश्वरीय तत्व में लीन करने की सारी क्रियाएं, धार्मिक हैं l धर्म व्यक्तिगत विषय है जो स्वयं को सुखी करने के साथ-साथ दूसरों को भी सुख प्रदान करता है l इससे इहलोक और परलोक दोनों का सुधार होता है l
ब्रह्मचर्य व्रत पालन के साथ-साथ संपूर्ण विद्या प्राप्त कर लेने के पश्चात् शुद्ध अर्थ उपार्जित करते हुए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके उतनी ही संतान उत्पन्न करना जिससे कि पारिवारिक, वंश, समाज, और राष्ट्र की रक्षा हो सके, शांति भंग न हो, सन्तान का भली प्रकार से लालन-पालन होने के साथ-साथ उसे उच्च शिक्षा भी मिले – वास्तविक अर्थों में “काम” है l
योग प्राणायाम से आत्म संयमन करते हुए संसारिक मोह ममता, भोग इच्छा, धन संग्रह या लोभ की भावना से रहित ईश्वरीय तत्व का ध्यान करते हुए, लोक मार्गदर्शन करना और बिना कष्ट के अपने प्राणों का समाधि ही में त्याग करना उत्तम मोक्ष है l
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सही अर्थ समझ लें और उसके अनुकूल अपना जीवन यापन करें तो निःसंदेह हम वास्तविक सुख तथा शांति प्राप्त कर सकते हैं l
प्रकाशित 14 नवम्बर 1996 कश्मीर टाइम्समानव जीवन विकास – 13
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साधक मन और साधना
मानव जीवन विकास – 12
साधना-प्रगति के अंतिम बिंदु तक पहुँचने के लिए जो जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है, वह कभी थकने या रुकने का नाम नहीं लेता है – साधक कहलाता है l वह भली प्रकार जानता है कि साधना के मार्ग पर फूल कम और कांटे अधिक मिलते हैं l फिर भी जिज्ञासु साधक अपने अदम्य साहस के साथ उन काँटों को अपने पैरों तले रौन्दता हुआ मात्र फूलों को ही चुनता है और अपनी विकास–यात्रा जारी रखता है l इस प्रकार अविलंब प्रयत्न करते हुए एकाएक उसके जीवन में वह भी सुअवसर आ जाता है जब वह विभिन्न प्रकार के फूल एकत्रित करके उन्हें किसी एक मनोहारी माला का स्वरूप प्रदान कर देता है l साधक की साधना साकार हो जाती है l उसे उसकी निश्चित मंजिल मिल जाती है l
साधना मार्ग में यह बात सुनिश्चित है कि साधक मन उस समय अपनी रचनात्मक साधना प्रगति–मार्ग से भ्रमित हो जाता है जब उसकी बुद्धि मन के अधीन विषयासक्त होकर उचित निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती है l विषय भोगी चंचल मन इच्छा वश होकर इन्द्रिय विषय – शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का रसास्वादन करने हेतु दौड़ता है, ललायत रहता है l वह इन्द्रिय इच्छापूर्ति का माध्यम बनता है पर अल्पकालिक इन्द्रिय सुख उसके लिए दुःख का कारण बनता है l परिणाम स्वरूप बुद्धि का नाश होता है l साधक की साधना अवरुद्ध होने के कारण, आगे नहीं बढ़ पाती है l साधक पूर्णता प्राप्त करने से वंचित रह जाता है l इसी कारण इन्द्रिय विषय अल्पकालिक सुख देने वाले, साधना-मार्ग के शत्रु होते हैं l श्रीकृष्ण जी के कथनानुसार – “साधक को अपना मन अभ्यास या वैराग्य के द्वारा सयंत करके उसे सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के अंतर्गत रचनात्मक कार्यों में समर्पित करना चाहिए l”
पांच ज्ञानेंद्रियाँ – त्वचा, रसना, आँख, कान और नाक स्पर्श करना, रस चखना, रूप देखना, शब्द सुनना, गंध सूंघना और पांच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर कर्म करना, भोजन करना, जनन, मल विच्छेदन, तथा चलना अपने स्वाभाविक गुणानुकुल कार्य करती हैं l इन्द्रियों का समयबद्ध अनुशासित और सयंत करके साधक पुरुष उन्हें बुद्धि द्वारा, अपने जीवन के प्रगति–पथ पर जीवन का निश्चित लक्ष्य पाने के लिए रचनात्मक कार्यों में लगाता है l इससे उसकी हर प्रकार की प्रगति होने के साथ-साथ उसे पूर्णता भी प्राप्त होती है
कोई भी साधक पुरुष शरीर रूपी मकान को अंदर की अपेक्षा उसके बाहरी सौन्दर्य को निखारने में बिना कारण अपनी शारीरिक शक्ति, अमूल्य समय और धन कभी नष्ट नहीं करता है l वह दैवी गुणों से विमुख नहीं रहता है l वह नित गुरु की देख-रेख में, उनके मार्ग-दर्शन और आदेशानुसार अपने दैवी गुणों की सतत वृद्धि ही करता है l इनका सदुपयोग करने से उसका अपना तो भला होता है, साथ ही साथ दूसरों का भी भला होता है परन्तु दुरूपयोग करने से सबको पीड़ा और दुःख ही मिलते हैं l जो साधक पुरुष मान्यवर गुरु की उपेक्षा करते हैं, उनकी उन्नति पर ईर्ष्या करते हैं और उनसे अधिक स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं – वे अपने जीवन में विकास अथवा लाभ पाने के नाम पर पतन-हानि ही पाते हैं l कायर, आलसी, और चापलूस साधक पुरुष की साधना कभी साकार नहीं होती है l
साधक पुरुष प्रायः सयंमित, शांत, त्यागी, समद्रष्टा, विनम्र और अनुशासित होता है l वह अध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति में संतुलन बनाये रखता है l वह मानसिक विकारों के वेगों के प्रति सदैव सचेत रहता है l वह जानता है कि मानसिक विकारों के वेग उसकी उन्नति में वाधक हैं l जो प्रगति की उंचाई की ओर बढ़ते हुए उसके क़दमों को लड़खड़ा देते हैं l परिणाम स्वरूप साधक का पतन होना आरम्भ हो जाता है l
इसलिए पति-पत्नी के अतिरिक्त पराये नर-नारी का चिंतन-मनन, दर्शन और संग करना जैसे आचार-व्यवहारों से न केवल काम वासना जागृत होती है, बल्कि वह और अधिक बढ़ती है l इससे समाज में माँ, बहन, बहु, बेटी भरजाई और उनके समान अन्य की भी मान-मर्यादा नष्ट होती है l साधक पुरुष मान-मर्यादा के रक्षक होते हैं, भक्षक नहीं l वह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिनसे समाज में अपहरण, बलात्कार, देह प्रदर्शन, देह व्यपार, और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता हो l वह स्वयं तो सयमित रहते हैं, समय-समय पर दूसरों को भी सावधान करते रहते हैं l
छोटी-छोटी बातों के पीछे बौखला जाना, अपशब्द कहना और लड़ाई-झगड़े करना जैसे आचार-व्यवहार क्रोध के ही विभिन्न रूप हैं l यह सब क्रोध को बढ़ावा देते हैं l विकराल रूप न धारण हो, इसी बात का ध्यान रखते हुए साधक पुरुषों के द्वारा शांतभाव में गंभीर से गंभीर समस्या का हल ढूँढना होता है l क्रोध किसी समस्या का हल नहीं है l साधक द्वारा क्रोध करने की आवश्यकता आ भी पड़े तो वह ज्ञान, कर्तव्य, नीति, और न्याय संगत होता है l इनके बिना किया गया क्रोध किसी को लाभा न्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है l
अपने लिए अपनी आवश्यकता से अधिक चल-अचल धन-संपदा, अन्न, वस्त्र का उत्पादन निर्माण, संग्रहण करना और उन पर मात्र अपना एकाधिकार जताना जैसे अचार-व्यवहार व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ ही के स्वरूप हैं l साधक पुरुष असंग्रही, बुद्धिमान, सदाचारी, न्यायप्रिय और कर्तव्य-परायण होते हैं l वह स्वयं उदाहरण बनकर, दूसरों को भी वैसा ही बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं l इससे चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सुख-समृद्धि देखने को मिलती है l
नशा–धुम्रपान जान-बुझकर मौत के कुएं में छलांग लगाने के समान है l इससे तन, मन, धन, और स्वयं का नाश होता है l तन के जर-जर हो जाने पर, उसे कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है l नशा–धुम्रपान करने वाले पुरुष की बुद्धि का नाश हो जाता है l उसकी विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाती है l उसे आर्थिक संकट घेर लेता है l साधक पुरुष ऐसा करने से दूर रहते हैं और दूसरों को इस संकट से सावधान भी करते हैं l
साधक पुरुष सृष्टि में – पति-पत्नी, संतान, धन-संपदा, सुख-सुविधा, पद, वेतन, सत्ता सुख को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं l यह सब उन्हें भौतिक सुख तो दे सकते हैं पर आत्मिक शांति नहीं l साधक पुरुष को भौतिक सुख के साथ-साथ अध्यात्मिक सुख की भी आवश्यकता होती है l साधक पुरुष ऐसे आचार-व्यवहार जिनसे अशांति होने का भय या संदेह हो, उनमें अपने मन से कभी आसक्त नहीं होते हैं बल्कि निज मन को अभ्यास और वैराग्य के अंतर्गत उसे अध्यात्मिक उन्नति की साधना में व्यस्त रखते हैं l इससे उन्हें आत्मिक सुख और आनंद मिलता है l
मैं और मैंने शब्दों का बात-बात पर उच्चारण, व्यवहार में प्रदर्शन करना ही अहंकारी पुरुष का अहंकार है l उसमें अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना का आभाव रहता है l वह छोटों के प्रति अप्रिय होता है l साधक पुरुष विनम्र होते हैं l विनम्रता के कारण वह सबको प्रिय होते हैं l विनम्रता ही मैं और मैने के अहंकारी भावों का अस्तित्व मिटाती है l उससे आत्मसमर्पण का भाव जागृत होता है तथा आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है जिससे साधक पुरुष के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है l
साधक पुरुष साधना में मग्न रहकर मानवता ही की सेवा करते हैं और समय-समय पर वे समाज तथा प्रशासन के द्वारा सम्मानित भी होते हैं l साधक पुरुषों का सुख-दुःख सबका अपना सुख-दुःख बन जाता है l साधक साधना से दूसरों को अपना बना लेते हैं l उनकी चिंता सभी करते हैं l वह हर मन प्यारे बन जाते हैं l सारा संसार उनका अपना घर होता है और वे होते हैं, विश्व परिवार के सदस्य – विश्व बंधू l
साधक पुरुष सबको एक ही परमात्मा की संतान मानते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं और सबके लिए प्रिय ही कार्य करते हैं l उनका जीवन चिंता मुक्त होता है l वास्तव में चिंता मुक्त विकसित चिंतनशील मन ही साधक पुरुष के जीवन को सार्थक, पूर्ण, साकार, सफल, आत्मज्ञानी और सुखी-समृद्ध बनाने के साथ-साथ उसे मुक्ति भी प्रदान करता है l
काश ! ऐसी प्रभु कृपा सभी पर हो l
प्रकाशित 9 जुलाई 1996 कश्मीर टाइम्स
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सनातन जीवन में धन की उपयोगिता
मानव जीवन विकास – 11
भारत ऋषि-मुनियों का देश है l भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को 100 वर्ष तक मुख्यतः चार आश्रमों में विभक्त किया था l उनमें प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, 25 से 50 वर्ष गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थ और 75 से 100 वर्ष तक सन्यास आश्रम प्रमुख थे l उनके अपने विशेष सिद्धांत थे, उच्च आदर्श थे जिनके अनुसार मनुष्य अपना सार्थक एवं समर्थ जीवन यापन करता था l इससे वह दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियों का स्वामी बनता था l भारत की नैतीकता, अध्यात्मिकता और संस्कृति महान थी l
प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या ग्रहण, 25 से 50 वर्ष गृहस्थाश्रम में संसारिक कार्य, 50 से 75 वर्ष वानप्रस्थाश्रम में आत्म चिंतन–मनन करते हुए आत्म साक्षात्कार और 75 से 100 वर्ष तक सन्यासाश्रम में जन कल्याण करने का सुनियोजित कार्य किया जाता था l इनके अंतर्गत सनातन समाज को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, और धार्मिक दृष्टि से विश्व भर में सर्वोन्नत श्रेणी में सम्पन्न ही नहीं गिना जाने लगा था बल्कि विश्व ने उसकी आर्थिक सम्पन्नता देखते हुए उसे सोने की चिड़िया के नाम से भी विभूषित किया था l
सनातन समाज की इस आर्थिक सम्पन्नता और उन्नति के पीछे जिस महान शक्ति का योगदान रहा हैं, वह शक्ति थी, योगियों की योग साधना और कर्मयोग l श्रीकृष्ण जी उनके महान आदर्श रहे हैं l उन्होंने संसार में रहते हुए भी कभी संसार से प्रेम नहीं किया l उन्होंने पल भर के लिए भी योग को स्वयं से कभी अलग नहीं किया l वे संसार में कभी लिप्त नहीं हुए l यही कारण है कि हम आज भी उन्हें अपना नायक, और सत्सनातन सत्पुरुष मानते हैं और वे हमारे सबके हृदयों में विराजमान रहते हैं l
यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में 1/3 % को छोड़कर 3/4% सनातन समाज भौतिक सुख सुविधाओं से आभाव ग्रत था और उस समय प्राकृतिक शोषण न के समान था l इसका मुख्य कारण यह रहा है कि पहले सनातन समाज सादगी पसंद अध्यात्म प्रिय और प्राकृतिक प्रेमी था जबकि आज वही समाज वैसा होने का मात्र ढोंग कर रहा है l वह प्रकृति के विरुद्ध अनेकों कार्य करते हुए, उससे शत्रुता बढ़ा रहा है l इस तरह वह कल आने वाली महाप्रलय को, आज ही आमंत्रित कर रहा है l
प्रकृति की परिवर्तनशीलता के प्रभाव से सत्सनातन समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक और धार्मिक क्षेत्रों में परिवर्तन होना निश्चित था, परिवर्तन हुआ l यह समस्त भूखंड जिस पर कभी मात्र आर्य लोगों का “वसुधैव कुटुम्बकम” दृष्टि से अपना अधिपत्य था, वह धीरे-धीरे कई राष्ट्रों के रूपों में परिणत हो गया l उस भूखंड पर अनेकों देश जिनमें वर्तमान भारतवर्ष भी है, वह अपने-अपने अस्तित्व में आने से पूर्व कई छोट-छोटे राज्यों में विभक्त लेकिन उन्नत एवं समृद्ध भी था l वह विदेशी व्यापारी कम्पनियों, आक्रान्ता एवं लुटेरों की कुदृष्टि से बच न सका l जहाँ भारत के सम्राट साहसी और परमवीर थे, वहां वे अहंकार में चूर और विलासी भी कम नहीं थे l परिणाम स्वरूप वे विदेशी व्यापारी कम्पनियों, आक्रान्ता एवं लुटेरों की छल विद्या एवं बांटो और राज करो, की नीति को समझ न सके l अतः उन्हें उनसे हर स्थान पर मुंह की खानी पड़ी l
आज भारतीय सेक्युलर समाज में उसका हर मार्गदर्शक, अभिभावक, गुरु, नेता, प्रशासक, सेवक और नौजवान योग-साधना से विमुख हो गया है और होता जा रहा है जो एक बड़ी चिंता का विषय है l उन्हें पाश्चात्य देशों की तरह मात्र अच्छा फ़ास्ट खाना, गाड़ी, बंगला, अपार धन और सर्व सुख सुविधाएँ ही चाहियें, भले ही वह घोटाला, करके, चोरी से, रिश्वत घूस लेकर या फर्जिबाड़े से ही क्यों न जुटाई गई हों या जुटानी पड़े l इसमें उनकी धन लोलुपता अत्यंत घातक सिद्ध हुई है और बढ़ती जा रही है l उन्हें राष्ट्रहित से कुछ भी नहीं है लेना, देना l
वह भारतीय दिव्य ब्रह्मज्ञान जो विदेशों तक कभी अज्ञान का अँधेरा दूर किया करता था, वह उत्पादन और हस्तकला कौशल का जीवट जादू जो उनके सिर पर चढ़कर बोला करता था, को ग्रहण लग गया है l भारत आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर, भीतर ही भीतर खोखला होता जा रहा है l देश के सामने आर्थिक चुनौतियां उभर आई हैं l उसमें आये दिन नये-नये घोटाले हो रहे हैं l लोगों का सफेद धन बे – रोक टोक, तेजी से कालाधन बनकर, विदेशी बैंकों की तिजोरियों में समाय जा रहा है फिर भी सरकारों के द्वारा राष्ट्रीय विकास का ढोल पीटा जा रहा है और वह उस विकास की पोल भी खोल रहा है l चोरी करना, घूस और रिश्वत लेने-देने का प्रचलन जोरों पर है l भ्रष्टाचार की सदाबहार बेल निर्भय होकर हर तरफ विष उगल रही है l
ब्रह्मचर्य जीवन में ज्ञानार्जित करना, गृहस्थ जीवन में संसारिक कार्य करना सुख सुविधाएँ जुटाना और उनका भोग करना, वानप्रस्थ जीवन में आत्मचिंतन, आत्म साक्षात्कार करना तथा सन्यास जीवन में समाज का मार्गदर्शन करना मानव जीवन का परम उद्देश्य रहा है l उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना अनिवार्य था l इसलिए भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के चार आश्रमों की कल्पना को साकार करने हेतु कार्यान्वित किया था l
“वीर भोग्य वसुन्धरा” अर्थात वीर पुरुष ही धरती का सुख भोगते हैं l वीर वे हैं जो अपने अदम्य साहस के साथ जीवन की हर चुनौति का सामना करते हुए अपने परम जीवनोद्देश्य को सफलता पूर्वक पूरा करते हैं l इसी आधार पर गृहस्थाश्रम में संसारिक सुख का भोग किया जाता था और शेष तीनों आश्रमवासी गृहस्थाश्रम पर निर्भर रहकर अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपना-अपना कार्य किया करते थे l
विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर विद्या अर्जित करते थे l पराक्रमी राजा वन गमन – एकांत वास करने, वानप्रस्थी बनने से पूर्व, स्वेच्छा से भोग्य वस्तुओं को अपने योग्य उत्तराधिकारी को सौंप देते थे और सन्यासी – बहते जल की तरह कभी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे l वे भ्रमण करते हुए लोक मार्गदर्शन करते थे l इस प्रकार भोग सुख की सभी सुख सुविधाएँ मात्र गृहस्थाश्रम वासियों की सम्पदा होती थी l यही भारतीय संस्कृति है l इसी कारण भारत में संग्रहित अपार सम्पदा, विदेशियों के लिए आकर्षण, सोने की चिड़िया, उनकी आँख की किरकिरी बनी और उन्होंने उसे पाने व लुटने/हथियाने के लिए साम, दाम, दंड, और भेद नीतियों का भरपूर प्रयोग किया l
हमारी इसी अपार धन – संपदा को पहले विदेशियों ने लुटा था और अब उसे अपने ही लोग अपने दोनों हाथों से दिन-रात लुट रहे हैं l इस तरह न जाने कब थमेगा, लुटने का यह सिलसिला ! हम चाहें तो इस लुट को नियंत्रित कर सकते हैं l यह कार्य भारतीय सनातन जीवन पद्दति पर आधारित मानव जीवन शैली आश्रम व्यवस्था अपनाने से संभव हो सकता है l इस भयावह आर्थिक चुनौति के विरुद्ध, समाज हित में, हम सबकी सकारात्मक एवं रचनात्मक इच्छा-शक्ति और कार्य क्षमता अवश्य होनी चाहिए l
प्रकाशित 2013 मातृवंदना
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सद्गुण संस्कार और हमारा दायित्व
मानव जीवन विकास – 10
ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l
बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l
युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l
बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश – कार्य क्षेत्र, काल – समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l
उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक-शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि
लोक शक्ति का मूल आधार,
जन-जन के उच्च गुण, संस्कार l
जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्रा में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं – ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण-शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?
प्रकाशित 5 मई 1996 कश्मीर टाइम्स