मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: शिक्षा दर्पण -आलेख

  • भारतीय गुरुकुल परंपरा
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    भारतीय गुरुकुल परंपरा

    प्रकृति में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान-विज्ञान प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। कोई जिज्ञासु-पुरुषार्थी विद्यार्थी ही नरेंद्र की तरह उसे जानने, समझने और पाने के लिए कृत संकल्प होता है और अपने सद्गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के सान्निध्य और गुरुकुल में रहकर निरंतर प्रयास एवं अभ्यास करके स्वामी विवेकानन्द बनता है। आत्मा ईश्वर का अंश है। जल की बुंद सागर से जलवाष्प बनकर आकाश में अन्य के साथ मिलकर बादल बन जाती है। उस बादल से पहाड़ों पर वर्षा होती है। उसका नीर नदी के जल में लम्बे समय तक बहने के पश्चात फिर से सागर के पानी में एकाकार हो जाता है। उसे अपना खोया हुआ सर्वस्व पुनः मिल जाता है। जल-बूंद की तरह किसी जिज्ञासु-पुरुषार्थी व्यक्ति की आत्मा भी दिव्य पुंज परमात्मा के साथ मिलने के लिए सदा व्यग्र रहती है। यह ज्ञान-विज्ञान परमात्मा से पुरुषार्थी आचार्य, गुरु, शिक्षक और अध्यापकों के द्वारा निज गुण, स्वभाव, आचरण, प्रयास, और अभ्यास से अर्जित किया जाता है। पुरुषार्थी व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है –
    ‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
    त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
    त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
    त्वमेव सर्व मम देवदेव।।’’
    वह प्रभु से यह भी प्रार्थना करता है –
    ‘‘हे प्रभु! मुझे असत्य से सत्य में ले जा,
    अंधेरे से उजाले में ले जा,
    मृत्यु से अमरता में ले जा।।’’
    आचार्य और ब्रह्म्रगुरु योग, ध्यान एवं प्राणायाम करके ‘‘ब्रह्मज्ञान’’अर्जित करते हैं । उनकी शरण में आने वाले श्रद्धालु, जिज्ञासु, विद्यार्थी और साधकों को उनके द्वारा संचालित ‘‘वेद विद्या मंदिरों’’से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। उनकेे हृदय में आचार्य और गुरुजनों के प्रति अपार श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास होता है। वे गुरु की स्तुति करते हुए कहते हैं –
    ‘‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु
    गुरुर्देवो महेश्वरः
    गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म,
    तस्मै श्रीगुरुवे नमः’’
    भौतिक ज्ञान-विज्ञान अर्जित करने के लिए राजगुरु,शिक्षक एवं अध्यापक अपने पुरुषार्थी शिष्य, शिक्षार्थियों के साथ मिल-बैठ कर ऐच्छिक एवं रूचिकर विषयक ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन का कार्य करतेे हैं। उनमें वे उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं। उस समय वे दोनों अपनी पवित्र भावना के अनुसार परमात्मा से प्रार्थना करते हैं –
    ‘‘हे परमात्मा! हम दोनों – गुरु, शिष्य की रक्षा करें। हम दोनों का उपयोग करें। हम दोनों एक साथ पुरुषार्थ करें। हमारी विद्या तेजस्वी हो। हम एक दूसरे का द्वेष न करें। ओउम शान्ति शान्ति शान्ति।’’
    पुरुषार्थी शिष्य ‘‘गुरुकुल’’ अथवा ‘‘ज्ञान-विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र’’से ब्रह्म्रगुरु और राजगुरु के सान्निध्य में रहकर तथा उनसे सहयोग पाकर विषयक ज्ञान-विज्ञान में शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। इस प्रकार वे उनके समरूप, उनकी इच्छाओं के अनुरूप समग्र जीव-प्राणी एवं जनहित में सृष्टि के कल्याणार्थ कार्य करने के योग्य बनते हैं। वे मानवता की सेवा को ईश्वर की पूजा मानते हैं और मनोयोग से अपना कार्य करने लगते हैं।
    गुरुकुल में आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात मनोयोग से पुरुषार्थी नवयुवाओं के द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य सफल, श्रेष्ठ और सर्वहितकारी होता है। इसी आधार पर साहसी पुरुषार्थी व्यक्ति, निर्माता, अन्वेषक , विशिष्ट व्यक्ति, कलाकार, वास्तुकार, शिल्पकार, साहित्यकार, रचनाकार, कवि, विशेषज्ञ, दार्शनिक, साधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, योगी और सन्यासी अपने जीवन प्रयंत प्रयास एवं अभ्यास करते हैं। इससे उनके द्वारा मानवता की तो सेवा होती है, सबका कल्याण भी होता है।
    चिरकाल से विशाल प्रकृति अभिभावकों की तरह समस्त प्राणी जगत का पालन-पोषण करती आ रही है। गुरुकुल में विद्यार्थी सीखता है, असीमित जल, धरती, वायु भंडार तथा अग्नि और आकाश प्रकृति के महाभूत हैं। इनसे उत्पन्न ठोस, द्रव्य और गैसीय पदार्थ मानव समुदाय को प्राप्त होते हैं जिनका वह अपनी सुख-सुविधाओं के रूप में सदियोें से भरपूर उपयोग करता आ रहा हैै। इनसे जीव-प्राणियों को आहार तो मिलता है, निरोग्यता भी प्राप्त होती है। किसान, गौ-पालक, व्यापारी, दुकानदार, उत्पादक, निर्माता और श्रमिकों के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण को परंपरागत संतुलित, प्रदूषण एवं रोग-मुक्त तथा संरक्षित बनाए रखा जाता है। इसका अर्थ है, मानवता की सेवा करना। पुरुषार्थी विद्यार्थी, नागरिक ऐसा करने हेतु हर समय तैयार रहते हैं, अपना कर्तव्य समझते हैं और उसे कार्यरूप भी देते हैं।
    समर्थ विद्यार्थी एवं नागरिकों के द्वारा पुरुषार्थ करके मात्र धन अर्जित करना, अपने परिवार का पालन-पोषण करना और उसके लिए सुख-सुविधाएं जुटाना ही प्रयाप्त नहीं है बल्कि उनके द्वारा साहसी, वीर/वीरांगनां के रूप में निजी, सरकारी, गैर सरकारी संस्थान और कार्यक्षेत्र में भी जान-माल की रक्षा करना एवं सुरक्षा बनाए रखना नितांत आवश्यक है। गुरुकुल सिखाता है, व्यक्ति के द्वारा किसी समय की तनिक सी चूक से मानवता के शत्रु को मानवता पीड़ित करने, उसे कष्ट पहुंचने का अवसर मिलता है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और आक्रमण का सहारा लेता है। उसके द्वारा व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैेतिक और राष्ट्रीय हानि पहुंचाई जाती है। आर्यजन भली प्रकार जानते हैं, समाज में बिना भेदभाव के, आपस में सुसंगठित, सुरक्षित, सतर्क रहना और निरंतर सतर्कता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। ऐसा करना साहसी वीर, वीरांगनाओं का कर्तव्य है। वह हर चुनौति का सामना करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं और उचित समय आने पर वे उसका मुंह तोड़ उत्तर भी देते हैं। अगर यह सब गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की देन है तो आइए! हम राष्ट्र में प्रायः लुप्त हो चुकी इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का पुनः प्रयास करें ताकि आर्य समाज और राष्ट्र में तेजी से बढ़ रहे अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण और भ्रष्टाचार का जड़ से सफाया हो सके। राष्ट्र में फिर से आदर्श समाज की संरचना की जा सके
    12 अक्टूबर 2013 दिव्य हिमाचल

  • मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा-प्रणाली
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    मैकाले की सोच और भारतीय शिक्षा-प्रणाली

    हिमाचल की मासिक पत्रिका मातृवंदना अगस्त 2010 में पृष्ठ संख्या 19 पर प्रकाशित लेख “मैकाले की सोच-1835 ई0 में” के अनुसार यह एक वास्तविक लेख है। इसकी प्रति मद्रास हाईकोर्ट के अभिलेखों से प्राप्त हुई है। ब्रिटिश पार्लियामेंट के रिकाॅर्ड में सुरक्षित है। लाॅर्ड मैकाले को भारत में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लाॅर्ड विलियम वेंटिंग की कौंसिल का सदस्य नामजद कर भारत भेजा गया था। अपने भारत-भ्रमण के अनुभवों एवं अध्ययन के पश्चात उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह रिपोर्ट भेजी थी-
    “मैने पूरे भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है पर मुझे एक भी भिखारी नहीं मिला, जो चोर हो। ऐसे धनी देश के अपने ऊँचे सामाजिक मूल्य हैं। यहां लोगों के पास बड़ी दृढ़ शक्ति है। इस देश को हम कभी जीतने की सोच भी नहीं सकते। हम इसे तब तक नहीं जीत सकते, जब तक हम विरासत इस देश की रीढ, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक को नहीं तोड़ देते। इसलिए मै इसकी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा पद्धति को हटाने का सुझाव देता हूंँ। जब भारतीय सोचने लगेंगे कि विदेशि चीजें और अंग्रेजी भाषा अपने से अच्छी हैं, तब वे अपना आत्मसम्मान और अपनी संस्कृति को खो देंगे। उसे भूल जाएंगे और तब वे वैसे बन जाएंगे जैसा अधिपत्य राष्ट्र हम चाहते हैं।
    यह उसका एक ऐसा सुझाव था जो आगे चल कर भारतीय सभ्यता- सास्कृति, धर्म-संस्कार और परम्परागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के लिए महाघातक सिद्ध हुआ। मैकाले के उपरोक्त सुझाव के आधार पर अंग्रेजों ने सन् 1840 ई0 में कानून बनाकर भारत की जनोपयोगी गुरुकुल प्रधान शिक्षा-प्रणाली को हटा दिया, जो भारतीय छात्र-छात्राओं एवं साधकों में वैदिक धर्म, ज्ञान, कर्मनिष्ठां, शौर्यता और वीरता जैसे संस्कारों का संचार करने के कारण राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के रूप में उसकी रीढ़ थी। उसके स्थान पर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य हित की पोषक अंग्रेजीभाषी शिक्षा-प्रणाली लागू की, जो भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने में अत्यन्त कारगर सिद्ध हुई।
    स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सत्तासीन राजनेताओं को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने सशक्त भारत का निर्माण करना है और इसके लिए उन्हें जनप्रिय स्थानीय भाषा , हिंदी, अथवा संस्कृत के आधार पर गुरुकुलों की भी स्थापना करनी है। देखने में आ रहा है कि निहित स्वार्थ में डूबे हुए, देश को भीतर ही भीतर खोखला एवं खण्ड-खण्ड करने के कार्य में सक्रिय अमुक देशद्रोही, अंग्रेजी पिट्ठू प्रशासकों के द्वारा देश के गांव-गांव और शहर-शहर में मात्र मैकाले की सोच के आधार पर अंगे्रजीभाषी पाठशालाएँ, विद्यालय एवं महाविद्यालय ही खोले जा रहे हैं। उनके द्वारा राष्ट्रीय जनहित-अहित का विचार किए बिना उन्हें धड़ाधड़ सरकारी मान्यताएँ भी दी जा रही हैं । जबकि वे न कभी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अनुकूल रहे और न कभी हुए। उनमें गुरुकुलों जैसी कहीं कोई गरिमा भी नहीं दिखाई देती।
    युगों से सोने की चिड़िया – भारत की पहचान बनाए रखने में समर्थ रह चुके गुरुकुल उच्च संस्कारों के संरक्षक, पोषक, संवर्द्धक होने के साथ-साथ मानव जीवन की कार्यशालाओं के रूप में छात्र-छात्राओं एवं साधकों के नव जीवन निर्माता भी थे। नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला और उनके सहायक विद्यालय तथा महाविद्यालयों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति, धर्म-संस्कार और शिक्षा न केवल भली प्रकार से फूली-फली थी बल्कि उनसे जनित उसकी सुख-समृद्धि की महक विदेशों तक भी पहुंची थी। इस बात को कौन नहीं जानता है कि आतंक फैला कर आपार धन-संपदा लूटना, भारतीय सभ्यता-संस्कृति नष्ट करना और फूट डालकर सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य स्थापित करना ही अक्रांता ईस्ट-इंडिया कम्पनी का मूल उद्देश्य था।
    आज भारतीय राजनीतिज्ञ भारतीय संस्कृति की सुगन्ध की कामना तो करते हैं पर उनके पास उसकी जननी गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली उपलब्ध नहीं है। इसलिए हम सब जागरूक अभिभावकों, गुरुजनों, प्रशासकों और राजनेताओं को एक मंच पर एकत्र होकर होनहार बच्चों, छात्र-छात्राओं एवं साधकों के संग अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर जनोपयोगी एवं परंपरागत भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की पुनस्र्थापना करके उसे अपने जीवन में समझना और जांचना होगा क्योंकि बच्चों और शिक्षार्थियों के जीवन का नव निर्माण राजनीति, भाषण या उससे जुड़े ऐसे किसी अंदोलन से कभी नहीं हुआ है और न हो ही सकता है बल्कि एक सशक्त शिक्षा-प्रणाली के द्वारा ज्ञानार्जित करने से ही ऐसा होता रहा है और आगे होगा भी। इसकी पूर्ति करने में भारतीय परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली पूर्णत्या सक्षम और समर्थ रही है। इसका भारतीय इतिहास साक्षी है जिसे पढ़ कर जाना जा सकता है।
    अगर मैकाले सन् 1840 ई0 में अपने संकल्प से भारत में परंपरागत गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली समाप्त करवा कर अंगे्रजी शिक्षा-प्रणाली जारी करवा सकता था तो हम भी सब मिलकर राष्ट्रीय जनहित न्यायालय तक अपनी संयुक्त आवाज पहुंचा सकते हैं। वहां से अध्यादेश पारित करवा कर भारतीय आशाओं के विपरीत अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली को निरस्त करवा सकते हैं। क्या हम इस योग्य भी नहीं रहे कि हम उसके स्थान पर फिर से भारतीय गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली को लागू करवा सकें? अतीत में हम सब सार्वजनिक रूप से सुसंगठित और जागरूक रहे हैं – अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे। विश्व में कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती। ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
    आइए! हम सब मिलकर प्रण करें और इस पुनीत कार्य को सफल करने का प्रयास करें। यह तो सत्य है कि बबूल के बीज से कभी आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती। हम पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली के बल पर भारत के पुरातन गौरव एवं सुख-समृद्धि की मनोकामना कैसे कर सकते हैं?……
    अगस्त 2010 मातृवंदना

  • भारतीय शिक्षा-प्रणाली
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    भारतीय शिक्षा-प्रणाली

    प्रिय होने के नाते आदि काल से ही भारतवर्ष  महान पुरुषों  का देश  रहा है। उनमें श्री राम, श्री कृष्ण , गुरु नानक देव, आदि गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द जी का नाम सर्वोपरि है।
    इन महान पुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन, चिन्तन-मनन करने से हमें अनेकों ऐसे दीप्त ज्ञान-स्तंभ दिखाई देते हैं जिनके प्रकाश  में समग्र मानव जाति का कल्याण होना निश्चित  है।
    इस समय आवश्यकता  इस बात की है कि पहले हम स्वयं उन दिव्य ज्ञान-स्तंभों की भली भांति पहचान कर लें और फिर उनके बारे में दूसरों को भी बताएं। अतः स्थानीय गुरु के सानिध्य में, गुरु व शिष्य  के मध्य मानवीय, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, साहित्यिक, ज्ञान-विज्ञान और कला-सांस्कृतिक विषयों  के बारे में कुछ सीखने-सिखाने की प्रकिया ही का दूसरा नाम शिक्षा है। इसके बारे में स्वामी जी रामतीर्थ का कथन है – ‘‘वास्तविक शिक्षा का आदर्श  यह है कि हम अपने भीतर से कितनी विद्या बाहर निकाल चुके हैं, यह नहीं कि बाहर से कितनी अन्दर डाल चुके हैं। सच्चा ज्ञान वही है जो सृष्टि  के कल्याण के लिए उपयोगी हो।
    आज के भारत को किस प्रकार की शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता  है? आइए! हम इस गहन-गम्भीर प्रश्न  का उत्तर पाने के लिए भारतीय महान पुरुषों  के द्वारा स्थापित किए गए उन दिव्य ज्ञान-स्तम्भों का अवलोकन करें जो वर्तमान राजनैतिक इच्छा-शक्ति न होने पर भी हमारा पग-पग पर मार्ग-दर्शन  कर रहे हैं।
    आध्यात्मवादी शिक्षा
    1 भेद-भाव रहित सबके लिए एक समान आध्यात्मिक शिक्षा ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, छूत-अछूत, छोटा-बड़ा, गोरा या काला की दीवारों और लिंग-भेद आदि से स्वयं सदैव अनभिज्ञ रहती है। आध्यात्मिक शिक्षा से समग्र मानव जाति का एक समान कल्याण होता है। इससे मानवात्माओं का परमात्मा से मिलन होता है। छात्र-छात्राओं के द्वारा गुरुजनों के सानिध्य में रह कर योग, ध्यान, प्राणायाम, संबंधी पुरुषार्थ  करने पर आत्म शांति  का मार्ग प्रप्रशस्त होता है।
    2 यथार्थवादी शिक्षा सत्य-असत्य में ज्ञान-अज्ञान का भाव रखती है। गुण-अवगुण में लाभ-हानि का अन्तर समझाती है।?
    भौतिक वादी शिक्षा
    1 स्थानीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति उत्तरदायी शिक्षा मानव जाति, मानव के खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार और परिवार के साथ-साथ स्थानीय भाषा , पहनावा, रीति-रिवाज तथा कला-संस्कृति की स्पष्ट  झलक दर्शाने  वाली है।
    2 मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा सदगुणों को बढ़ावा देती है। छोटों में बड़ों के प्रति श्रद्धा, प्रेम, भक्ति और विश्वास  जगाती है। बड़ों में छोटों के प्रति सुस्नेह का वर्धन करती है। समर्थवानों में दुखियों के प्रति करुणा, दया, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना उपजाती है।
    3 कलात्मक एवं व्यावसायिक शिक्षा से शिक्षार्थी कला अथवा व्यवसाय का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करता है जिससे वह अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करता है। इसी से वह समाज की यथा संभव तथा यथा शक्ति सेवा करता है।
    4 नैतिक एवं व्यावहारिक शिक्षा से छात्र-छात्राओं को स्वयं जीने और समाज में रहने की कलाओं का ज्ञान होता है। वे सीखते हैं कि समाज में उन्हें स्वयं कैसे रहना है? उन्हें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना है?
    5 महिला संबंधी जीवनोपयोगी शिक्षा से छात्राओं को अपने जीवन की उपयोगिता का ज्ञान होता है। इससे उन्हें अपने कर्तव्यों और अधिकारों की पहचान होती है। इससे वे आत्म-रक्षा करना सीखती हैं। शादी के पश्चात  ज्ञान के आधार पर ही वे अपने परिवार में, अपने बच्चों का भली-भांति पालन-पोषण  करती हैं और समाज के प्रति सजग भी रहती हैं।
    6 सहशिक्षा या छात्र-छात्राओं की संयुक्त शिक्षा से छात्र-छात्राओं को आपस में एक दूसरे से वार्तालाप करने और एक दूसरे को समझने का सुअवसर मिलता है। इससे उनका मानसिक, कार्मिक तथा वाचिक विकास तो होता है, साथ ही साथ उनमें विद्यमान संकोच की भावना भी नष्ट  हो जाती है। छात्र मित्र की भांति छात्रा मित्र भी लक्ष्य प्राप्ति में अधिक विश्वास  पात्र सिद्ध हो सकती है अगर वे दोनों अपने-अपने लक्ष्यों के प्रति जागरुक हों। वे दिव्य-पथ से भटक न पाएं इसलिए उनमें अपने-अपने लक्ष्य-वेधन के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति, शुद्ध भावना और कड़ी मेहनत के साथ-साथ ब्रहमचर्य जीवन का महत्व समझना तथा व्यावहारिक जीवन अपनाना अति आवश्यक  है। इस प्रकार वे विशेष  जीवनोपयोगी उर्जा संचित करते हुए पूर्ण स्नातक बनते हैं । इसी बल पर वे अपने होने वाले भावी गृहस्थ जीवन को सुखी बनाते हैं।
    7 मितव्ययी उच्चशिक्षा कभी किसी को कहीं मिलती नहीं है बल्कि उसकी व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके लिए सजग अभिभावकों, गुरुजनों, राजनीतिज्ञों और प्रशासकों  को मिल कर एक मंच बनाना होता है और उसके लिए उन्हें समर्पित भाव से कार्य करना पड़ता है ताकि देश  का कोई गरीब से गरीब होनहार प्रतिभाशाली अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करने से कभी वंचित न रह सके।
    8 स्वदेशी  शिक्षा किसी स्वदेशी  या विदेशी  प्रशासक के द्वारा स्वदेशी शिक्षार्थी पर थोपी या लादी जाने वाली वस्तु नहीं है बल्कि स्वदेशी  शिक्षक की अन्तरात्मा द्वारा उद्घोशित तथा आत्म स्वीकृत प्रतिभा का विषय  है जिसे एक अनुभवी प्रतिभावान स्वदेशी  शिक्षक ही उचित समय पर नवोदयी प्रतिभाशाली  शिक्षार्थी को अपना क्षणिक मात्र सहारा दे सकता है। वह प्रतिभाशील उसका सहारा पा कर स्वयं प्रकाशित हो जाता है।
    9 सशक्त  एवं समर्थ शिक्षा शिक्षार्थी जीवन को समर्थ बनाती है। इससे राष्ट्र सशक्त  एवं समर्थवान बनता है।
    10 प्रदूषण  मुक्त शैक्षिक वातावरण से मन, कर्म, वाणी के आचार-व्यवहार में शुद्धता आती है। व्यक्तित्व में निखार आता है और इससे प्रकृति एवं पर्यावरण को भी चार चांद लग जाते हैं।
    11 आदर्श शिक्षा-प्रणाली की अपनी पहचान होती है। आदर्श शिक्षा-प्रणाली संसार में जन कल्याणकारी, रचनात्मक एवं व्यावहारिक ज्ञान का प्रकाश  फैलाती है। इससे मानसिक, कार्मिक, तथा वाचिक अज्ञान नष्ट  होता है।
    12 विकासशील राष्ट्रीय  प्रमाणिक पाठयक्रम पर आधारित शिक्षा से युवावर्ग की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसी से राष्ट्र  की अपनी पहचान और उसकी शक्ति का संवर्धन होता है। युवा वर्ग राष्ट्र  के प्रति सेवा एवं भक्ति भाव वाला होता है।
    13 राजनैतिक हस्तक्षेप मुक्त शैक्षिक प्रशासनिक और प्रबंधन से शिक्षा-तन्त्र ठोस, सुरक्षित, गतिशील रहता है। शैक्षिक प्रशासन और प्रबंधन से सतर्कता, तत्परता, पारदर्शिता और कार्यकुशलता का होना अति आवश्यक  है। इस आवश्यकता की पूर्ति सर्वदा राजनैतिक हस्तक्षेप मुक्त वरिष्ट  शिक्षाविदों के संरक्षण में मात्र स्वशासित राष्ट्रीय शैक्षनिक अनुसन्धान एवं[प्रशिक्षण  संस्थान ही कर सकती है।
    14 योग्य शिक्षक योग्य शिक्षार्थी का निर्माता होता है इसलिए शिक्षक का योग्य होना अनिवार्य है।
    15 योग्य शिक्षार्थी ही राष्ट्र  का योग्य नागरिक बनता है अतः शिक्षार्थी का योग्य होना अति आवश्यक  है।
    इससे स्पष्ट  हो जाता है कि भारत की आध्यात्मिक एवं भौतिकवादी संयुक्त शिक्षा-प्रणाली ही भारत का अपना मूल दर्पण है। अगर किसी जिज्ञासु को भारत-दर्शन करना है तो उसे मार्ग-दर्शन पाने हेतु पहले गुरुजनों के द्वारा संरक्षित भारत की गुरुकुल प्रधान भारतीय शिक्षा-प्रणाली का एक बार अवलोकनअवश्य  कर लेना चाहिए।
    28 जून 2009
    कष्मीर टाइम्स

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    ज्ञान उर्जा के चालीस स्रोत

    योग्य गुरु एवं योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है। अगर प्रयत्नशील द्वारा बार-बार प्रयत्न करने पर भी असफलता ही मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु अपनी सम्पूर्ण शक्ति और लग्नता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाए।
    1 लोक क भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है।
    2 साहित्य एवं सद्ग्रंथ पढ़ने से विषय वस्तु का बोध होता है।
    3 सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है।
    4 अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है।
    5 बड़ों का उचित सम्मान और उनसे विश्व व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है।
    6 आत्म चिन्तन करने से आत्म बोध होता है।
    7 सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है।
    8 लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है।
    9 आध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है।
    10 प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शान्ति प्राप्त होती है।
    11 सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगंधित बन जाता है।
    12 शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान-विज्ञान का विस्तार होता है।
    13 कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है।
    14 कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वाश बढ़ता है।
    15 दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है।
    16 समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमय हो जाता है।
    17 कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है।
    18 उच्च विचार अपनाने से जीवन मेें सुधार होता है।
    19 आत्म विश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है।
    20 मानवी उर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है।
    21 मन में शुद्ध भाव रखने से विश्वास बढ़ता है।
    22 कर्म निष्ठ रहने से अनुभव एवं कार्य कुशलता बढ़ती है।
    23 दृढ़ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है।
    24 लोक परंपराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है
    25 स्थानीय लोक सेवी संस्थांओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का समय मिलता है।
    26 संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवं अखंडता प्रदर्शित होती है।
    27 मानव धर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है।
    28 प्रिय नीतिवान एवं न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है।
    29 शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतियों का सामना किया जाता है।
    30 निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है।
    31 दुःख में भी प्रसन्न रहने से कष्ट दूर हो जाते हैं।
    32 निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है।
    33 परंपरागत पैतृक व्यवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है।
    34 तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है।
    35 तन, मन और धन से कार्य करने से प्रसंशकों और मित्रों की वृद्धि होती है।
    36 किसी भी प्रकार का अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है।
    37 सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है।
    38 अनुशासित जीवनयापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है।
    39 कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है।
    40 निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है।
    16 नवंबर 2008 कश्मीर टाइम्स

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    सुखदायक सत्य कड़वा होता है

    योग्य गुरु द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान सुपात्र का प्रदान किया जाता है, कुपात्र को नहीं। सुपात्र उसका सदुपयोग करता है जबकि कुपात्र दुरुपयोग। वही विद्यार्थी गुरु का मान बढ़ाता है और स्वयं महान बनता है जो गुरु के निर्देशानुसार जन सेवा एवं जग कल्याण के कार्य करता है।
    1 प्रकृति का अनुभव प्राप्त किए बिना व्यक्ति की अपनी आत्मा का भली प्रकार पोषण नहीं होता है।
    2 व्यक्ति द्वारा सत्य जान लेने से असत्य की परिभाषा बदल जाती है।
    3 आपसी झगडों व तनाव से परिवारों को हानि पहुंचती है जबकि दुश्मन को लाभ होता है।
    4 पारिवारिक झगड़ों से समाज कमजोर होता हैं।
    5 पारिवारिक मतभेदों को परिवार में ही समाप्त कर लेना बुद्धिमानी का कार्य है।
    6 किसी परिवार का अपमानित किया हुआ तनाव ग्रस्त, क्षुब्ध व्यक्ति आने वाले समय में अपने या पराए विरुद्ध कुछ भी कर सकता है।
    7 व्यक्ति, समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र का अहित एवं अनिष्ट करने वाले भ्रमित, उपद्रवी एवं स्वार्थी लोग क्रोध व हिंसा बढ़ाकर उग्रवाद को जन्म देते हैं।
    8 क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म, रंग, लिंग, मत भेदभाव पूर्ण बातों को साम्प्रदायिक रंग देने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और सद्भावना का दुश्मन होता है।
    9 दुश्मन कभी कमजोर नहीं होता है।
    10 अलगाव एवं अफवाहों का शिकार होने पर व्यक्ति, परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र संकट ग्रस्त हो जाते हैं।
    11 अगर समाज,क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र में मंहगाई, अभाव, जमा व मुनाफाखोरी और आर्थिक संकट-घोटाला के साथ-साथ अन्य समस्याएं पैदा हों तो समझो वहां अव्यवस्था, दुराचार, अनीति और अधर्म विद्यमान है।
    12 इतिहास साक्षी है कि कपर्यु, आंसू गैस लाठी और गोली प्रहार से जनांदोलन कुचलने वालों को कभी सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
    13 कमजोर युवाओं से समाज कभी सुरक्षित नहीं रहता है।
    14 वही विवेकशील नौजवान अपने समाज, क्षेत्र, राज्य, और राष्ट्र को सुरक्षित रखते हैं जो अपनी रक्षा-सुरक्षा आप करतेे हैं।
    15 वासना, विकार, नशा, आलस्य, निद्रा और व्यभिचार में आसक्त नौजवानों का विनाश होना सुनिश्चित है।
    16 नीति-धर्म का मर्म समझने वाले नौजवान के लिए अधर्म कभी बाधक नहीं होता है।
    17 आत्म विश्वास से कार्य करने पर नौजवान को उसके कार्य में सफलता अवश्य मिलती है।
    18 आवेश में आकर युवा बंद, चक्काजाम, और हड़ताल का आह्वान करके भूल जाते हैं कि इससे जन साधारण, समाज, क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र की कितनी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
    19 वही युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है जो सुसंगठित, अनुशासित, चरित्रवान और कार्य कुशल है।
    20 मैदान में आए बिना रण की बातें करने से कभी कोई दिग्विजयी नहीं बन जाता है।
    21 समाज में वीरों को उनके कार्य कौशल, तत्वज्ञान, पराक्रम और कर्तव्य परायणता से जाना जाता है।
    22 वास्तव में वीरों की परीक्षा रणक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र, कार्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में होती है।
    23 गीदड़ों के झुण्ड में शेर की दहाड़ अलग ही सुनाई देती है।
    24 मानव समाज सदैव वीरों की पूजा करता है, कायरों की नहीं।
    25 कर्मवीर अपने कर्म से, ज्ञानवीर ज्ञान से, रणवीर पराक्रम से और धर्मवीर कर्तव्य पालन करके आसामाजिक तत्वों का मुंहतोड़ उत्तर देते हैं।
    26 सच्चे रणवीर, कर्मवीर, धर्मवीर और ज्ञानवीर – शब्द, रूप, रस गंध और स्पर्ष रूपी कांटों को पैरों तले रौंद कर मात्र उच्च लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
    27 संकट या अफवाहों के रहते वीर घबराते नहीं हैं बल्कि संगठित रहकर उनका डटकर सामना करते हैं।
    28 ज्ञान, विवेक और वैराग्य से सुसज्जित वीर राष्ट्र, राज्य, क्षेत्र, समाज और जन साधारण की रक्षा एवं सुरक्षा करने में समर्थ होते हैं।
    29 आत्म-हत्या कायर करते हैं, वीर नहीं।
    30 सच्चे वीरों का गर्म खून और शीतल मस्तिष्क सदैव सर्वहितकारी और धार्मिक कार्यो में सक्रिय और तत्पर रहता है।
    31 राष्ट्रहित में – सच्चे वीर रणक्षेत्र में अपना रण-कौशल दिखाते हुए दिग्विजयी होते हैं या फिर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करते हैं।
    32 सच्चे वीर स्वतन्त्रता पूर्वक धरती का सुख भोगते हेैे जबकि कायर पराधीन हो कर दुख प्राप्त करते हैं।
    33 दुश्मन को कमजोर समझने वाला वीर अपनी कमजोरी के कारण जल्दी परास्त हो जाता है।
    34 संकट या अफवाहों में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की वास्तविक परख होती है।
    35 लोगों का शांत और मर्यादित जुलूस सोए हुए प्रशासन को जगाने का अचूक रामबाण है।
    36 स्पष्ट रूप से परिभाषित किए हुए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित जनांदोलन के प्रयास से लोगों को अपने उद्देष्य में सफलता अवश्य मिलती है।
    37 राष्ट्र, राज्य, क्षेत्र, समाज, परिवार और जनहित की सद्भावना से प्रेरित बातों के समक्ष अलगाव की भावना निष्प्राण होती है।
    38 राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता प्रदर्शित करने वाले नारों से जनता में देश प्रेम की उर्जा का संचार होता है।
    39 गाय का दूध, ब्राह्मण हितोपदेश, गीता ज्ञान और शुद्ध पर्यावरण का प्रभाव सदैव सर्वहितकारी होता है।
    40 राष्ट्रीय सुख-समृद्धि की रक्षा हेतु समाज विरोधी अधर्म, दुराचार, असत्य और अन्याय के विरुद्ध उचित कार्रवाई करने वाला प्रशासन सर्वहितकारी होता है।
    14 सितम्बर 2008 कश्मीर टाइम्स