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श्रेणी: राष्ट्रीय भावना

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    अनुच्छेद 370 तब और अब



    आलेख – राष्ट्रीय भावना – मातृवंदना
    सितम्बर 2019

    भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात 15 अगस्त 1947 को जम्मू-कश्मीर भी स्वतंत्र हो गया था l उस समय यहाँ के शासक महाराजा हरि सिंह अपने प्रान्त को स्वतंत्र राज्य बनाये रखना चाहते थे l लेकिन 20 अक्तूबर 1947 को कबालियों ने पकिस्तानी सेना के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण करके उसका बहित सा भाग छीन लिया था l इस परिस्थिति में महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर की रक्षा हेतु शेख अब्दुल्ला की सहमति से जवाहर लाल नेहरु के साथ मिलकर 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के अस्थाई विलय की घोषणा करके हस्ताक्षर किये थे l  इसके साथ ही भारत से तीन विषयों रक्षा, विदेशी मुद्दे और संचार के आधार पर अनुबंध किया गया कि जम्मू-कश्मीर के लोग अपने संविधान सभा के माध्यम से राज्य के आंतरिक संविधान का निर्माण करेंगे और जब तक राज्य की संविधान सभा शासन व्यवस्था और अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित नहीं कर लेती है तब तक भारत का संविधान केवल राज्य के बारे में एक अंतरिम व्यवस्था प्रदान कर सकता है l

    उस समय डा० अम्बेडकर देश के पहले कानून मंत्री थे l उन्होंने शेख अब्दुल्ला से कहा था – “तो आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की सुरक्षा करे, आपके यहाँ सड़कें बनवाये, आपको अनाज पहुंचाए, देश में बराबर का दर्जा भी दे लेकिन भारत की सरकार कश्मीर पर सीमित शक्ति रखे. भारत के लोगों का कश्मीर पर कोई अधिकार न हो ! इस तरह के प्रस्ताव पर भारत के हितों से धोखाधड़ी होगी l देश का कानून मंत्री होने के नाते मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता l” वर्ष 1951 में महिला सशक्तिकरण का हिन्दू संहिता विधेयक पारित करवाने के प्रयास में असफल रहने पर स्वतंत्र भारत के इस प्रथम कानून मंत्री ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था l देश का स्वरूप बिगाड़ने वाले इस प्रावधान का डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कड़ा विरोध किया था l 1952 में उन्होंने नेहरु से कहा था, “आप जो करने जा रहे हैं, वह एक नासूर बन जयेगा और किसी दिन देश को विखंडित कर देगा l वह प्रावधान उन लोगों को मजबूत करेगा, जो कहते हैं कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई राष्ट्रों का समूह है l” अनुच्छेद 370 को भारत के संविधान में इस मंशा के साथ मिलाया गया था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में प्रावधान केवल अस्थाई हैं l उसे 17 नवम्बर 1952 से लागु किया गया था l   

    डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी को यह सब स्वीकार्य नहीं था l वे जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत का अभिन्न अंग बनाना चाहते थे l उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य का अलग झंडा और अलग संविधान था l संसद में डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की जोरदार बकालत की थी l अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था “या तो मैं आपको भारत का संविधान प्राप्त करवाऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा l” वे जीवन प्रयन्त अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे l वे अपना संकल्प पूरा करने के लिए 1952 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े l वहां पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार करके नजरबंद कर दिया गया l वहां पर 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई l    

    अनुच्छेद 370 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का राज्य तो है लेकिन वह राज्य के लोगों को विशेष अधिकार और सुविधाएँ प्रदान करता है l जो अन्य राज्यों से अलग हैं l भारत पाक मध्य क्रमशः 1965, 1971, 1999 में कारगिल युद्ध हो चुके हैं और उसने हर बार मुंह की खाई है l इन सबके पीछे चाहे वह हिंसा, बालात्कार, आगजनी, घुसपैठ, आतंक, पत्थरवाजी ही क्यों न हो, उसकी मात्र एक यही मनसा रही है किसी न किसी तरह भारत को कमजोर करना है l

    जम्मू-कश्मीर में प्रयोजित आतंक का मुख्य कारण वहां के कुछ अलगाववादी नेताओं के निजी हित रहे हैं l वे अलगाववादी नेता पाकिस्तान के निर्देशों पर जम्मू-कश्मीर के गरीब नौजवानों को देश विरुद्ध भड़काते हैं और उन्हें आतंक का मार्ग चुनने को बाध्य करते हैं l जबकि वे नेता अपने लड़कों को विदेशों में पढ़ाते हैं l यह सिलसिला 5 जुलाई 2019 तक निरंतर चलता रहा है और प्रसन्नता की बात यह है कि इसके आगे प्रधान मंत्री श्री नरेंदर मोदी जी के अथक प्रयासों से  डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का संकल्प पूरा होने जा रहा है l मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र को 31 जुलाई 2019 को अलग से केंद्र शासित राज्य घोषित कर दिया है l समय की आवश्यकता है – कश्मीर के लोग इन अलगाववादी नेताओं के निजी हितों को समझें और भारत का लघु स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले इस प्रदेश में पुन: सुख-शांति की स्थापना हो l  

    चेतन कौशल “नूरपुरी “


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    आइये ! राष्ट्रभाव की जोत जगाएं

    आलेख – राष्ट्रीय
    भावना मातृवंदना मार्च अप्रैल 2019
    हम भारतवासी भारत के नागरिक हैं तो हमारा यह भी दायित्व बन जाता है कि हम देशहित में ही कार्य करें l हम जो भी कार्य कर रहे हैं, देश हित में कर रहे हैं l इस सोच के साथ हर कार्य करने से देश का विकास होना निश्चित है l हम अपने घर को अच्छा बना सकते हैं तो अपने देश भारत को क्यों नहीं ? अगर देश और समाज में कहीं अशांति हो तो हम शांति से कैसे रह सकते हैं ? भारतीय होने का दम भरने वाले ही किसी कारगर रणनीति के अंतर्गत भारत विरोधी शक्तियों को अलग-थलग कर सकते हैं l 
    राष्ट्रीय भावना हर व्यक्ति के हृदय में जन्म से ही विद्यमान होती है l उसे आवश्यकता होती है तो मात्र सही मार्ग दर्शन की l ताकि उसे किसी ढंग से सही दिशा का ज्ञान हो सके l सही दिशा-बोध होने पर ही वह व्यक्ति अपने जीवन में अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक हो पता है l ऐसे में एक सजग नागरिक का हृदय कह सकता है l
    हमारा उन माताओं को शत-शत नमन है जो राष्ट्रहित सोचती हैं और अपनी संतानों को राष्ट्रहित के कार्य करने के योग्य बनती हैं l गुरुओं को हमारा कोटि-कोटि नमन जो विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भाव जागृत करते हैं और उन्हें जीवन की हर चुनौति का सामना करने में सक्षम बनाते हैं l उन नेताओं को हमारे शत-शत प्रणाम जो क्षेत्र, राज्य और राष्ट्र को अपना समझते हैं और और जनता के साथ बिना भेद-भाव, एक समान व्यवहार करते हैं l हम उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं जो मातृभूमि की रक्षा हेतु अपना शीश न्योछावर करते हैं l किसान देश का अन्नदाता है, उसको शत-शत नमन l विविध क्षेत्रों में कार्यरत एवं कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ देशवासियों को नमन जो राष्ट्र के विकास में सतत क्रियाशील हैं तथा ज्ञात-अज्ञात सभी शहीदों और सीमा की रक्षा में तत्पर शत्रुओं के दांत खट्टे करने में सक्षम वीर सैनिकों को शत-शत नमन l
    देश के प्रति दुर्भावना  :-
    दुर्भाग्य से देश भर में कुछ धर्म और जातियों के ठेकेदारों के द्वारा देश को धर्म और जातियों में विभक्त करने का षड्यंत्र जारी है l वे देश को बाँटने के नित नये-नये हथकंडे व बहाने ढूंढ रहे हैं l उन्हें धर्म और जातियों की आढ़ में उनका उद्देश्य लोगों को एक दुसरे के विरुद्ध भडकाना है, देश को खंडित करना है l वे भूल गए हैं कि हमने जो आजादी प्राप्त की है उसकी हमें कितनी कीमत चुकानी पड़ी है ? कोई व्यक्ति जिस थाली में खा रहा हो, अगर वह उसी थाली में छेड़ करना शुरू कर दे तो उसे देश का शत्रु नहीं तो और क्या कहें ? जिनके मुंह से कभी “जयहिंद”, “वन्दे मातरम्”, “भारत माता की जय”नहीं निकलता – वे देश के हितैषी कैसे हो सकते हैं ?
    शत्रु छोटा हो या बड़ा, भीतर हो या बाहर उसे कभी कम नहीं आंका जा सकता l तुम हमारे संग “भारत माता की जय“, “जय भारत”, “जयहिंद”, “वन्दे मातरम्” बोलकर दिखाओ, हम मान जायेंगे कि तुम भी भारतीय हो l देश ने आजादी वीर/वीरांगनाओं का खून देकर पाई है l किसी के द्वारा देश को धर्म या जातियों में बांटना अब हमें स्वीकार नहीं है l
    आजादी मिलने के पश्चात् देश भर में जहाँ राष्ट्रीय भावना में वृद्धि होनी चाहिए थी, वहां उसमें भारी गिरावट देखी जा रही है l स्थिति गंभीर ही नहीं, अति चिंतनीय है l अब तो देश के समझदार एवं सजग नागरिकों के मन में अनेकों प्रश्न पैदा होने लगे हैं जिनका उन्हें किसी से सन्तोष जनक उत्तर नहीं मिल रहा l देशहित की भावना देशभक्तों में नहीं होगी तो क्या गद्दारों में होगी ? व्यक्ति परिवार के बिना, परिवार समाज के बिना और समाज सुव्यवस्था के बिना सुखी नहीं रह सकते l
    तिनका-तिनका जोड़ने से घोंसला बनता है तो राष्ट्रहित में देशवासियों द्वारा दिया गया योगदान राष्ट्र निर्माण में सहायक होगा l शिक्षित एवं सभ्य अभिभावक बच्चों को संस्कारवान बना सकते हैं तो भावी नागरिकों को “जिम्मेदार नागरिक” देश की एक सशक्त शिक्षा–प्रणाली क्यों नहीं ? भवन का निर्माण ईंटों के बिना, राष्ट्र का विकास जन सहयोग के बिना संभव किस हो सकता है ? धर्म व  जाति के नाम पर समाज को क्षति पहुँचाने वाले, क्या कभी रष्ट्र के हितैषी बन सकते हैं ? देश की सीमाएं सजग सेना के बिना और समाज आत्मरक्षा किये बिना सुरक्षित कैसे रह सकता है ?
    आवश्यकता है पुनः विचार करने की  :-
    हर युग में राम आते हैं, रावण होते हैं l वही लोग अपने जीवन में एक नया इतिहास रच जाते हैं जो इतिहास रचने की क्षमता रखते हैं l सक्षम बनो, अक्षम नहीं l समाज में शांति बनाये रखना भी धर्म का ही कार्य है, उसकी रक्षा हेतु हम सबको हरपल तैयार रहना चाहिए l वीर पुरुष शेर की तरह जिया करते हैं l वे शहीद हो जाते हैं या फिर एक नया इतिहास रच देते हैं l जुड़ा हुआ है जो निज काम से, उम्मीद है देश को उसी से l  हमेशा सजग रहो और स्वयं सुरक्षित रहो l सक्षम लोग ही अक्षमों को सक्षम बना सकते हैं l समाज की आपसी एकता ही उसके राष्ट्र की अखंडता होती है l राष्ट्र है तो हम हैं, राष्ट्र नहीं तो हम नहीं, तुम भी नहीं l
    आइये ! राष्ट्रीय भावना की अखंड जोत जगायें, असामाजिक तत्वों को दूर भगाएं l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”







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    जय भारत देश महान

    आलेख - राष्ट्रीय भावना दैनिक जागरण 18 अगस्त 2007 
    वह भारत का स्वर्णयुग ही था जब देश का कोई भी नौजवान अपने बल, साहस, सुझबुझ और विद्या-ज्ञान आदि गुणों से सदैव परिपूर्ण रहता था l इसी कारण वह स्थानीय क्षेत्र से बढ़कर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और समस्त विश्व स्तर पर भी पहुँच जाता था l वहां वह अपनी अद्भुत प्रतिभा और अपार प्रभावी क्षमताओं के कारण जाना-पहचाना जाता था l  
    उसका अपेक्षित संकल्प पूजनीय माता-पिता व् गुरु को कभी शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट पहुँचाने वाला नहीं होता था l उसकी अपनी कोई भी स्वार्थपूर्ण भावना प्यारे बहन भाई को बलात पीड़ा अथवा क्षति पहुँचाने वाली नहीं होती थी l उसका कोई भी विचार किसी व्यक्ति, जाति, वंश, मत, पंथ, सम्प्रदाय का ही नहीं बल्कि किसी भाषा, स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र के लिए भी कल्याणकारी होता था l वह सदैव वाद-विवाद से ऊँचा उठकर स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता बनाये रखने में सहायक होता था l उसकी वाणी से कदाचित दूसरों का मन आहत और व्यथित नहीं होता था l वह किसी की उन्नति से घृणा, अथवा द्वेष नहीं करता था बल्कि उससे प्रेरणा और सहयोग लेकर अपने सन्मार्ग पर आगे बढ़ने का निरंतर प्रयास किया करता था l उसका अपना हर आचार-व्यवहार सर्व सुख-शांति प्रदाता होता था l वह वन सम्पदा, समस्त जीव जंतुओं और प्राकृतिक सौन्दर्य से भी उतना ही अधिक प्रेम किया करता था जितना कि अपने परिवार से l उसके दोनों हाथ सदैव किसी असहाय, पीड़ित, अपाहिज, बाल, वृद्ध रोगी, नर-नारी की निस्वार्थ सेवा सुश्रुसा और सहायता हेतु हर समय तत्पर रहते थे l उसका आहार सदैव बलवर्धक और पौष्टिकता से भरपूर रहता था l उसके पराक्रमी साहस के समक्ष स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र विरोधी तत्व भूलकर भी कोई अपराध करने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे l इसी कारण स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में सब ओर सुख-शांति और समृद्धि होने से भारत विश्व में सोने की चिड़िया के नाम से सर्व विख्यात हुआ था l
    आइये ! हम सब मिलकर आज कुछ ऐसा कर दिखाएँ कि जिससे भारत को उसका पुरातन खोया हुआ हुआ गौरव फिर से प्राप्त हो सके और विश्वभर में ये प्यारा संगीत सदा अनवरत, अविरल चहुँ ओर गूंजता रहे ---- “जय भारत देश महान , ऊँची तेरी शान----- ऊँची तेरी शान l”

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    लोक विकास – समस्या और समाधान

    आलेख - राष्ट्रीय भावना असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996 
    इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l 
    विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l
    साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l
    जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l
    भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है
    सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l
    भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l
    जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l
    ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l
    आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?
    ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l
    कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”