मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: स्व रचित रचनाएँ

  • श्रेणी:

    ज्ञान चालीसा

    आलेख - शिक्षा दर्पण कश्मीर टाइम्स 16.11.2008
    योग्य गुरु एवंम योग्य विद्यार्थी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त विद्या से विद्यार्थी का  हृदय और मस्तिष्क प्रकाशित होता है l अगर विद्या प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील द्वारा बार-बार  प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले तो उसे कभी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए बल्कि ज्ञान संचयन हेतु पूर्ण लगनता के साथ और अधिक श्रम करना चाहिए ताकि उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रह जाये l 
    1. लोक भ्रमण करने से विषय वस्तु को भली प्रकार समझा जाता है l
    2. साहित्य एवंम सदग्रंथ पड़ने से विषय वस्तु का बोध होता है l
    3. सुसंगत करने से विषयक ज्ञान-विज्ञान का पता चलता है l
    4. अधिक से अधिक जिज्ञासा रखने से ज्ञान-विज्ञान जाना जाता है l
    5. बड़ों का उचित सम्मान और उनसे शिष्ट व्यवहार करने से उचित मार्गदर्शन मिलता है l
    6. आत्म चिंतन करने से आत्मबोध होता है l
    7. सत्य निष्ठ रहने से संसार का ज्ञान होता है l
    8. लेखन-अभ्यास करने से आत्मदर्शन होता है l
    9. अध्यात्मिक दृष्टि अपनाने से समस्त संसार एक परिवार दिखाई देता है l
    10. प्राकृतिक दर्शन करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है l
    11. सामाजिक मान-मर्यादाओं की पालना करने से जीवन सुगन्धित बनता है l
    12. शैक्षणिक वातावरण बनाने से ज्ञान विज्ञान का विस्तार होता है l
    13. कलात्मक अभिनय करने से दूसरों को ज्ञान मिलता है l
    14. कलात्मक प्रतियोगिताओं में भाग लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है l
    15. दैनिक लोक घटित घटनाओं पर दृष्टि रखने से स्वयं को जागृत किया जाता है l
    16. समय का सदुपयोग करने से भविष्य प्रकाशमान हो जाता है l
    17. कलात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण लेने से योग्यता में निखार आता है l
    18. उच्च विचार अपनाने से जीवन में सुधार होता है l
    19. आत्मविश्वास युक्त कठोर श्रम करने से जीवन विकास होता है l
    20. मानवी ऊर्जा ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लेने और उसे व्यवहार में लाने से कार्य क्षमता बढ़ती है l
    21. मन में शुद्धभाव रखने से आत्म विश्वास बढ़ता है l
    22. कर्मनिष्ठ रहने से अनुभव एवंम कार्य कुशलता बढ़ती है l
    23. दृढ निश्चय करने से मन में उत्साह भरता है l
    24. लोक परम्पराओं का निर्वहन करने से कर्तव्य पालन होता है l
    25. स्थानीय लोक सेवी संस्थाओं में भाग लेने से समाज सेवा करने का अवसर मिलता है l
    26. संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पर्व मनाने से राष्ट्र की एकता एवंम अखंडता प्रदर्शित होती है l
    27. स्वधर्म निभाने से संसार में अपनी पहचान बनती है l
    28. प्रिय नीतिवान एवंम न्याय प्रिय बनने से सबको न्याय मिलता है l
    29. स्वभाव से विनम्र एवंम शांत मगर शूरवीर बनने से जीवन चुनौतिओं का सामना किया जाता है l
    30. निडर और धैर्यशील रहने से जीवन का हर संकट दूर होता है l
    31. दुःख में प्रसन्न रहना ही शौर्यता है l वीर पुरुष दुःख में भी प्रसन्न रहते है l
    32. निरंतर प्रयत्नशील रहने से कार्य में सफलता मिलती है l
    33. परंपरागत पैत्रिक व्ययवसाय अपनाने से घर पर ही रोजगार मिल जाता है l
    34. तर्क संगत वाद-विवाद करने से एक दूसरे की विचारधारा जानी जाती है l
    35. तन, मन, और धन लगाकर कार्य करने से प्रशंसकों और मित्रों की वृद्धि होती है l
    36. किसी भी प्रकार अभिमान न करने से लोकप्रियता बढ़ती है l
    37. सदा सत्य परन्तु प्रिय बोलने से लोक सम्मान प्राप्त होता है l
    38. अनुशासित जीवन यापन करने से भोग सुख का अधिकार मिलता है l
    39. कलात्मक व्यवसायिक परिवेश बनाने से भोग सुख और यश प्राप्त होता है l
    40. निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से वास्तविक सुख व आनंद मिलता है l


    चेतन कौशल “नूरपुरी”
     

  • श्रेणी:

    भूजल भंडार करे उद्धार

    दिव्य हिमाचल 23 दिसम्बर 2004

    नभ से बूंदाबांदी होती टिप टिप टिप
    धरा पर इधर उधर गिरती पड़ती टिप टिप टिप
    सांए सांए करती जलधारा बन कर
    नाली नाला नदी रूप बन कर
    पहाड़ से जंगल और मैदान की ओर
    जलधारा बढ़ती जलाश्य की ओर
    उसे बहना है वह बहती जाती है
    पहाड़ से चलती सागर से मिल जाती है
    वर्षा जल आता आंधी बन कर
    बढ़ जाता आगे तूफान बन कर
    भूजल धरती को नहीं मिल पाता है
    कष्ट सहती धरती ज्यादा नहीं सहा जाता है
    गर्म सीना धरती का जलता जा रहा
    भूमि का जल स्तर घटता जा रहा
    मनवा प्यासी धरती करे पुकार
    सुरक्षित भूजल भंडार सबका करे उद्धार


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    जल संकट नहीं होने देंगे

    दिव्य हिमाचल 7 दिसम्बर 2004

    जल की हर बूंद है अनमोल
    जल से जीवन का है मोल
    बूंदबूंद से भर जाता है घड़ा
    पगपग पर जल करना है खड़ा
    बावड़ी बना कर कूप बना कर
    तालाब बना कर जलाशय बना कर
    बावड़ी यहां पर कूप वहां पर
    तालाब यहां पर जलाशय वहां पर
    भूजल का स्तर बढ़ाना है
    नमीदार पेड़ जंगल उगाना है
    नदियों को स्वच्छ बनाना है
    पर्यावरण का प्रदूषण हटाना है
    मनवा अब हम कोई बूंद व्यर्थ नही होने देंगे
    यहां वहां कल का जल संकट नही होने देंगे


    चेतन कौशल "नूरपुरी"

  • श्रेणी:

    भूजल जीवन आधार

    23 सितम्बर 2004 दिव्य हिमाचल

    वर्षा जल छत पर आए
    टिप-टिप-टिप,
    जल परनाला कूप पर ले जाए
    टिप-टिप-टिप,
    शुद्ध जल सबने पीना है,
    भूजल से सबने जीना है,
    चेतन यह भूजल है
    जीवन का आधार,
    मात्र शुद्ध भूजल है,
    जीवन का आधार,


    चेतन कौशल "नूरपुरी"


  • श्रेणी:

    आत्म-शान्ति पाने के उपाय

    आलेख - मानव जीवन दर्शन – कश्मीर टाइम्स 3.12.1996
    मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l 
    आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l
    1. जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l
    2. दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिन मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l
    3. समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l
    4. अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l
    5. अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है – आत्मानुशासन कहलाता है l
    6. संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था राखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l
    7. अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l
    8. अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रधालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l
    9. निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l
    भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l
    देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट सहन करने पड़ते हैं l
    पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l
    हम इसके बारे में कुछ अधिक न कहते हुए मात्र इतना ही कहेंगे कि हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य भी पुरे करने का प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"