मानवता

मानवता सेवा की गतिविधियाँ



श्रेणी: सामाजिक चेतना

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    और लम्बी होंगी बेरोजगार की शृंखलाएं



    आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2008

    भारत में औद्योगिक क्रांति आने के पश्चात्, कल-कारखानों और मशीनों के बढ़ते साम्राज्य से असंख्य स्नातक, बेरोजगार की श्रृंखलाओं में खड़े नजर आने लगे हैं l उनके हाथों का कार्य कल-कारखाने और मशीनें ले चुकीं हैं l वह कठोर शरीर-श्रम करने के स्थान पर भौतिक सुख व आराम की तलाश में कल-कारखानों तथा मशीनों की आढ़ में बेरोजगार हो रहे हैं l

    भारत में वह भी समय था, जब हर व्यक्ति के हाथ में कोई न कोई काम होता था l लोग कठिन से कठिन कार्य करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण किया करते थे l कोई कहीं चोरी नहीं करता था l वे भीख मांगने से पूर्व मर जाना श्रेष्ठ समझते थे l कोई भीख नहीं मांगता था l इस प्रकार देश की चारों दिशाओं में मात्र नैतिकता का साम्राज्य था, सुख-शांति थी l मैकाले ने भारत का भ्रमण करने के पश्चात् 2 अक्तूबर 1835 में ब्रिटिश सरकार को अपना गोपनीय प्रतिवेदन सौंपते हुए इस बात को स्वीकारा था  l

    वर्तमान काल भले ही विकासोन्मुख हुआ है, पर विकासशील समाज सयंम, शांति, संतोष, विनम्रता आदर सम्मान, सत्य, पवित्रता, निश्छलता एवं सेवा-भक्ति भाव जैसे मानवीय गुणों की परिभाषा और आचार-व्यवहार भूल ही नहीं रहा है बल्कि वह विपरीत गुणों का दास बनकर उनका भरपूर उपयोग भी कर रहा है l वह ऐसा करना श्रेष्ठ समझता है क्योंकि मानवीय गुणों से युक्त किये गए कार्यों से मिलने वाला फल उसे देर से और विपरीत गुणों से प्रेरित कर्मफल जल्दी प्राप्त होता है l इस समय समाज को महती आवश्यकता है दिशोन्मुख कुशल नेतृत्व और उसका सही मार्गदर्शन करने की l

    भारत में औद्योगिक क्रांति का आना बुरा नहीं है, बुरा तो उसका आवश्यकता से अधिक किया जाने वाला उपयोग है l हम दिन प्रतिदिन पूर्णतया कल-कारखानों और मशीनों पर आश्रित हो रहे हैं l यही हमारी मानसिकता बेकारी की जनक है l इजरायल जैसे किसी देश को ऐसी राष्ट्रीय नीति अवश्य अपनानी चाहिए जहाँ जनसंख्या कम हो l पर्याप्त जनसंख्या वाले भारत देश में कल-कारखानों और मशीनों से कम और स्नातक-युवाओं से अधिक कार्य लेना चाहिए l ऐसा करने से उन्हें रोजगार मिलेगा व बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी l स्नातक-युवा वर्ग को स्वयं शरीर-श्रम करना चाहिए जो उसे स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है l कल-कारखाने और मशीने भोग-विलास संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले संसाधन मात्र हैं, शारीरिक बल देने वाले नहीं l वह तो कृषि–बागवानी, पशु–पालन, स्वच्छ जलवायु और शुद्ध पर्यावरण से उत्पन्न पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन करने से प्राप्त होता है l

    हमें स्वस्थ रहने के लिए मशीनों द्वारा बनाये गए खाद्य पदार्थों के स्थान पर, स्वयं हाथ द्वारा बनाये हुए ताजा खाद्य पदार्थों का अपनी आवश्यकता अनुसार सेवन करने की आदत बनानी चाहिए l

    भारत सरकार व राज्य सरकारों को ऐसा वातावरण बनाने में पहल करनी होगी l उन्हें अपनी नीतियां बदलनी होंगी जो विदेशी हवा पर आधारित न होकर स्वदेशी जलवायु तथा वातावरण और संस्कृति के अनुकूल हो ताकि ग्रामाद्योग, हस्तकला उद्योग तथा पैतृक व्यवसायों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिल सके l उनके द्वारा बनाये गये सामान को उचित बाजार मिल सके और बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर नियंत्रण पाया जा सके l देश में कहीं पेयजल, कृषि भूमि और प्राणवायु की कमी न रहे l इसी में हमारे देश, समाज, परिवार और उसके हर जन साधारण का अपना हित है l 

    चेतन कौशल “नूरपुरी”


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    आतताई नहीं, मानवतावादी बनो



    आलेख – सामाजिक चेतना मातृवन्दना सितम्बर 2020

    “मनु व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप” लेख में डा० बीसी चौहान ने लिखा है l मनुस्मृति के अध्याय 3 के श्लोक 167 और 168 के अनुसार – चारों वर्णों के पितर वैदिक ऋषि थे l ब्राह्मण वर्ण के पितर भृगु ऋषि के पुत्र सोम थे l क्षत्रिय अंगीरा ऋषि के पुत्र हविष्मन्त थे l वैश्य वर्ण के पितर वर्ण के पितर पुलत्स्य ऋषि के पुत्र आज्यप थे l शूद्र वर्ण के पितर वशिष्ठ ऋषि के पुत्र सुकालिन थे l इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के रचनाकार जो ऋषि थे, उनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की संरचना जाति, पंथ, भाषा, व भूगोल को केन्द्रित कर नहीं हुई थी बल्कि समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर उनकी रचना की गई थी l

    विश्व में आखंड भारत से कौन अपरिचित है ? वेद अनुसार – विश्व में मात्र एक जाति मानव है, नर-नारी उसके दो रूप हैं l धर्म मानवता है l सत्य की पताका भगवा है l भाषा संस्कृत या देवनागरी है l राज्य सत्य, धर्म, न्याय और नीति के प्रति समर्पित हैं l सत्ता का राज्य के प्रति समर्पण आवश्यक है l राष्ट्र “अखंड भारत” है और विश्व “एक परिवार” है l  

    जिस काल में भारत सोने की चिड़िया के नाम से विश्व विख्यात हुआ था और विश्वगुरु बना था, वह वैदिक काल ही था l लोग प्रकृति से प्रेम किया करते थे l उनके हर हाथ कुछ करने के लिए कोई न कोई कार्य अवश्य मिलता था l लोग कला प्रेमी और मेहनती थे l वे कृषि-बागवानी किया करते थे l वे गौवंश को माता कहना अधिक पसंद करते थे और उसकी सेवा किया करते थे l धरती पर कहीं वर्षा या पीने के लिए जल की और खाने के लिए अन्न, दाल, सब्जी, तिलहन, कंदमूल और फलों की कोई कमी नहीं रहती थी l चारों ओर सुख समृद्धि दिखाई देती थी l 

    इतिहास साक्षी है कि हम शौर्यता-पराक्रम में भी किसी से कभी कम नहीं रहे l हमने किसी पर पहले कभी आक्रमण नहीं किया बल्कि हर बार आक्रमणकारी को मुंहतोड़ उत्तर दिया है l हमसे जब-जब जिसने लड़ने का दुस्साहस किया है, तब-तब उसने हमसे मुंह की खाई है l 

    प्रकृति परिवर्तनशील है l उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है l हम बहुत से लोगों का सोचने का ढंग बदल गया है l सेवा, त्याग की हमारी भावना स्वार्थ पूर्ण होती जा रही है l हमारे परमार्थ के कार्यों ने स्वार्थ का स्थान ले लिया है l पहले हमें परमार्थ कार्य करने में काफ़ी आनंद आता था l हम उसे करने में सदा प्रसन्न/उद्यत्त रहते थे, पर हमें अब स्वार्थ पूर्ण कार्य करने में अधिक आनंद आने लगा है l हम सत्य, न्याय, धर्म, सदाचार और परमार्थ को निरंतर भूलते जा रहे हैं l हम असत्य, अन्याय, अधर्म और अनीति की राह पर चल पड़े हैं l हम महत्वाकांक्षी लोगों ने समाज को अपनी-अपनी इच्छाओं के अनुरूप साम, दाम, दंड और भेद के बल पर वेद विरूद्ध बलात विभिन्न जाति, पंथ, भाषा, खगोल व भूगोल के नाम पर बाँट लिया है और हम उसे बांटने का यह कर्म परोक्ष या अपरोक्ष रूप में अनवरत जारी रखे हुए हैं l

    गीता के पहले अध्याय में 36 वें श्लोक की व्यख्या करते हुए स्वामी प्रभुपद जी महाराज कहते हैं – वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं – 1. विष देने वाला 2. घर में अग्नि लगाने वाला 3. घातक हथियार से आक्रमण करने वाला 4. धन लुटने वाला 5. दूसरों की भूमि हड़पने वाला तथा 6. पराई स्त्री का अपहरण करने वाला और इस कर्म में आधुनिक काल के तीन और आततायी जुड़ गए हैं 7. वाहन और सवारी को क्षति पहुँचाने वाला 8. भवन अथवा पुल को बम से उड़ाने वाला 9. तस्करी करने वाला l 

    आतंकवाद का कार्य आततायी ही करते हैं, सज्जन पुरुष नहीं l वे अनेकों रूप धारण कर चुके हैं l लगभग 1400 वर्षों से लेकर आजतक आततायियों ने सदैव अन्याय, असत्य, अधर्म और अनीति का ही सहारा लिया है और उससे मात्र सज्जन पुरुषों को ही निशाना बनाया है, उन्हें हर प्रकार से हानि पहुंचाई है, जबकि आर्य पुरुष न्याय, सत्य, नीति और धर्म प्रेमी रहे हैं और उन्होंने आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अधर्म और अनाचार के विरुद्ध किये जा रहे समस्त कार्यों का डटकर बड़ी वीरता से सामना किया है और अपनी विजय का परचंम लहराया है l

    हमें अपने आतीत को कभी नहीं भूलना चाहिए l हम सब ऋषियों की संतानें हैं l हम आर्य पुरुष न्याय, सत्य, सदाचार और धर्म प्रेमी वीर पुरुष थे, हैं और रहेंगे l वेदों के रचनाकार ऋषि थे l वैदिक ग्रन्थों की संरचना समस्त मानव जाति और विश्व के कल्याणार्थ ध्यान में रखकर की गई थी l यही हमारी विरासत है उसकी रक्षा करने के लिए लाख बाधाएं होते हुए भी हमें सत्य, न्याय, सदाचार, धर्म और परमार्थ की राह पर निरंतर चलना होगा ताकि विश्व स्तर पर आततायियों के द्वारा प्रायोजित अन्याय, असत्य, अनाचार एवंम अधर्म के विरुद्ध हम अनुशासित एवं संगठित हो सकें और वीरता के साथ डटकर उनका सामना कर सकें l


  • आदर्श समाज की कल्पना
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    आदर्श समाज की कल्पना

    आलेख - सामाजिक चेतना कश्मीर टाइम्स 6 सितम्बर 2009  
    आओ हम ऊँच नीच का भेद मिटाएं
    सब समान हैं, चहुं ओर  संदेश  फैलाएं
    भारतीय समाज में कोई जाति से बड़ा है तो कोई धर्म से, कोई पद से ऊँचा है तो कोई धनबल से। प्रश्न  उठता है कि क्या ऐसा पहले भी होता था? हां, होता था! पर अब उसमें अंतर आ गया है। पहले हमारी सोच विकसित थी, हम हृदय से विशाल थे, हम संसार का हित चाहते थे परंतु वर्तमान में हमारी सोच बदल गई है। हमारा हृदय बदल गया है, हम निजहित चाहने लगे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि हम अध्यात्मिक जीवन त्यागकर निरंतर संसारिक भोग विलास की ओर अग्रसर हुए हैं। हमने योग मूल्य भुला दिए हैं जिनसे हमें सुख के स्थान पर दुख ही दुख प्राप्त हो रहे हैं।
    देखा जाए तो यह बड़प्पन या ऊँचापन मिथ्या है। पर जो लोग इसे सच मानते हैं अगर उनमें से किसी एक बड़े को उसके माता-पिता के सामने ले जाकर यह पूछा जाए कि वह कितना बड़ा बन गया है तो उनसे हमें यही उत्तर मिलेगा – वह अभी बच्चा है। उसके जीवनानुभवों की उसके माता-पिता  के जीवनानुभवों से कभी तुलना नहीं की जा सकती। माता पिता की निष्काम  भावना की तरह उसकी सोच का भी जन कल्याणकारी होना अति आवश्यक  है। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में उसे बड़ा या ऊँचा स्थान कदाचित नहीं मिल सकता।
    हमारा समाज मिथ्याचारी बड़प्पन और ऊँचेपन की दलदल में धंसा हुआ है। वह तरह-तरह के शोषण,  अत्याचार, जातिवाद, छुआछूत, अमीर-गरीब और बाहुबली व्यक्तियों के द्वारा बल के दुरुपयोग से पीड़ित है, जो अत्याधिक चिंता का विषय  है।
    वास्विकता तो यह है कि हम सब एक ही ईश्वर  की संतान हैं, उसका दिव्यांश  हैं। वह कण-कण में समाया हुआ है। प्राणियों में मानव हमारी जाति है। भले ही हमारे कार्य विभिन्न हैं पर हमारा धर्म मानवता है। इसलिए वश्विक  भोग्य सम्पदा पर हम सबका अपनी-अपनी योग्यता एवं गुणों के अनुसार अधिकार होना चाहिए। किसान और मजदूर खेतों में कार्य करते हैं तो विद्वान उनका मार्गदर्शन भी करते हैं। जिस व्यक्ति का जितना ऊँचा स्थान होता है उसके अनुसार उसकी उतनी बड़ी जिम्मेदारी भी होती है। उसे पूरा करना उसका कर्तव्य होता है। उससे वह भ्रष्टाचार, किसी का शोषण, किसी पर अत्याचार करने हेतु कभी स्वतंत्र नहीं होता है। बलशाली मनुष्य द्वारा उसके बल-पराक्रम का वहीं प्रयोग करना उचित है जहां समाज विरोधी तत्व सक्रिय हों या अनियंत्रित हों।
    मनुष्य का बड़प्पन या ऊँचापन उसके कार्य से दिखता है न कि उसके जन्म या खानदान से। मनुष्य को चाहिए कि वह मानव जाति के नाते सब प्राणियों के साथ मनुष्यता  ही का व्यवहार करे। उससे न तो किसी का शोषण  होता है न किसी से अन्याय, न किसी पर अत्याचार होता है और न किसी का अपमान। सबमें बिना भेदभाव के समानता बनी रहती है। वैश्विक  संपदा पर यथायोग्यता अनुसार स्वतः अधिकार बना रहता है। प्रशासनिक व्यवस्था सबके अनुकूल होती है। लोग उसका आदर करते हैं। इससे लोक संस्कृति की संरचना, संरक्षण और संवर्धन होता है।
    मनुष्य जाति में पाया जाने वाला अंतर मात्र मनुष्य  द्वारा किए जाने वाले कर्मों व उसके गुणों के अनुसार होता है। सद्गुण किसी में कम तो किसी में अधिक होते हैं। वे आपस में कभी एक समान नहीं होते हैं। इसलिए हमें एक दूसरे का सदा सम्मान करना चाहिए।
    इससे हम छुआछूत, सामाजिक, आर्थिक एवं न्यायिक असमानता को बड़ी सुगमता से दूर कर सकते हैं। हमारा हर कदम राम-राज्य की ओर बढ़ता हुआ एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार कर सकता है।
     
    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    जन हित विरोधी मानसिकता

    आलेख - सामाजिक चेतना – मातृवंदना नवंबर 2007 
    “भारत देश महान” जैसी बातें अब नीरस और खोखली लगने लगी हैं l मन्दिर समान पवित्र घर और विद्यालयों में जहाँ कभी ज्ञान, श्रद्धा, प्रेम-भक्ति और विश्वास पाया जाता था, वहां पर अज्ञान, अश्रद्धा, अवज्ञा, अविश्वास होने के साथ-साथ अवैध संबंध, भ्रूण हत्याएं, बात-बात पर वाद-विवाद, मार-पीट, मन-मुटाव, अपमान, घृणा, द्वेष, आत्म तिरस्कार और आत्म हत्याएं होती हैं l   
    अध्यात्म प्रिय होने के कारण देश के अधिकांश परिवार प्रकृति प्रेमी होते थे l परन्तु वह भौतिकवादी हो जाने से जीवन देने वाले पर्यावरण के ही शत्रु बन गए हैं l इस कारण भौतिकवाद की अंधी दौड़ में वन-संपदा, प्राकृतिक सौन्दर्य और समस्त जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ लुप्तप्रायः होती जा रही हैं l मात्र मनुष्य जाति की भीड़ और उसका कंकरीट का जंगल ही बढ़ रहा है l पेयजल और कृषि योग्य भूमि का अस्तित्व संकट में है और प्राद्योगिकी प्रदूषण के साथ-साथ धरती का ताप भी बढ़ रहा है जिससे हिमनद और ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं l
    धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिए लगनशील, उद्यमी युवा-वर्ग में बल, बुद्धि, विद्या, वीर्य और सद्गुणों का सृजन, संवर्धन और संरक्षण करने के स्थान पर नशा-धुम्रपान करने, क्लब, वैश्यालय एवम् नृत्यशालाओं में जाने का प्रचलन बढ़ गया है l अध्यात्मिक उपेक्षा करने से वह एड्स जैसे भयानक रोगों का शिकार हो रहा है l
    समाज में अज्ञानता, अपराध, अपहरण, यौन शोषण, बलात्कार, अन्याय, बाल-श्रम, बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी, अत्याचार, हत्यायें, अग्निकांड, उग्रवाद, अशांति, अराजकता होती है l स्थानीय क्षेत्र, समाज और राष्ट्र में जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र के नाम पर वाद-विवाद खड़ा करके आपसी फुट डाली जाती है और उन्हें स्वार्थ सिद्धि के लिए आपस में भी बांटा जाता है l
    देश के सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों में आर्थिक भ्रष्टाचार, गबन, घोटाले होकर वे अग्निकांड के द्वारा अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं l न्यायिक प्रणाली अधिक महंगी, दीर्घ प्रक्रियाओं में से निकलने वाली, दूरस्थ, दैनिक वेतन भोगी, कम वेतन मान पाने वाले एवं निर्धनों की पहुँच से दूर, आमिर-गरीब में असमानता रखने वाली और मात्र किताबी कानून तक अव्यवहारिक होने के कारण – राष्ट्रीय न्यायलयों से जन साधारण का विश्वास दिन-प्रतिदिन उठता जा रहा है l इस प्रकार परिवार, विद्यालय, समाज और राष्ट्र के प्रति जन साधारण में आस्था, विश्वास, प्रेम और जनहित का आभाव दिखाई देने लगा है जो एक विचारणीय विषय है l हमें इस ज्वलंत समस्या का समाधान निकालने के लिए ध्यान देने के साथ-साथ विचार अवश्य करना चाहिए l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

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    समाज के प्रति सजगता

    आलेख - सामाजिक चेतना कश्मीर टाइम्स 21.11.1996 
    नैतिक शक्ति से व्यक्तित्व निर्माण होता है जबकि अनुशासन से जन शक्ति, ग्राम शक्ति एवं राष्ट्र शक्ति का l इसी प्रकार कुशल नेतृत्व में अनुशासित संगठन शक्ति द्वारा संचालित जो शासन भेदभाव रहित सबके हित के लिए एक समान न्याय करता है, वह सुशासन होता है l 
    जन्म लेने के पश्चात् जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है उसे सबसे पहले माँ का परिचय मिलता है फिर बाप का l उसे पता चलता है कि उसकी माँ कौन है और बाप कौन ? उसके माता-पिता उसे हर कदम पर उचित कार्य करने और गलत कार्य न करने के लिए उसका साथ देते हैं l इससे वह सीखता है कि उसे क्या अच्छा करना है और क्या बुरा नहीं ?
    यही कारण है कि जब बालक बचपन छोड़कर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तो वह अपने घर के लिए अच्छे या बुर कार्यों को भली प्रकार समझने लगता है l वह जान जाता है कि घर की संपत्ति पूरे परिवार की संपत्ति होती है l वह तब ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता है जिससे उसका अपना या अपने घर का कोई अहित हो l
    जब वह रोजगार हेतु सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है तब वह अपने घर में मिली उस बहुमूल्य शिक्षा को भूल जाता है कि जिस प्रकार माँ-बाप द्वारा बनाई गई सारी संपत्ति पूरे परिवार की अपनी संपत्ति होती है उसी प्रकार सरकारी या गैर सरकारी संस्थान की भी पूरे समाज या राष्ट्र की अपनी संपत्ति होती है तथा वह स्वयं उस संपत्ति का रक्षक होता है l

    इसका कारण यह है कि उसे मिली शिक्षा अभी अधूरी है क्योंकि कभी-कभी वह अपने कार्य क्षेत्र में तरह-तरह के फेरबदल, हेराफेरी और गबन इतिआदि कार्य करने से ही नहीं हिचकचाता या डरता बल्कि अपने से नीचे कार्यरत कर्मचारियों का तन, मन, धन संबंधी शोषण और उन पर तरह-तरह के अत्याचार भी करता है, मानों वे उसके गुलाम हों l लालच उसकी नश-नश में भरा हुआ होता है l
    मनुष्य की आवश्यकता है – संपूर्ण जीवन विकास l जीवन का विकास मात्र ब्रह्म विद्या कर सकती है l वह सिखाती है कि निष्काम भाव से कार्य कैसे करें और अपनी अभिलाषाएं कैसे कम करें ? जब हमारी इच्छायें कम होंगी तब हम और हमारा समाज सुखी अवश्य होगा l
    वन्य संपदा में पेड़-पौधे, जंगल दिन प्रतिदिन कम हो रहे हैं l उनकी कमी होने से जंगली पशु-पक्षियों व जड़ी-बूटियों का आभाव हो रहा है l भूमि कटाव बढ़ रहा है l बाढ़ का प्रकोप सूरसा माई की तरह अपना मुंह निरंतर फैलाये जा रही है l वन्य संपदा के आभाव, धरती कटाव और बाढ़ रोकने के लिए आवश्यक है जंगलों का संरक्षण किया जाना l वन्य पशु-पक्षियों को मारने पर प्रतिबंध लगाना l जड़ी-बूटियों को चोरी से उखाड़ने वालों से कड़ाई से निपटा जाना l यह सब रचनात्मक कार्य ग्राम जन शक्ति से किये जा सकते हैं l
    वर्तमान समय में विभिन्न राष्ट्रों के आपसी राजनैतिक मतभेद और संघर्षों के कारण हर राष्ट्र और राष्ट्रवादी दुखी व निराश है l जब भी युद्ध होते हैं, निर्दोष जीव व प्राणी मारे जाते हैं l राष्ट्रों का आपसी विरोध व शत्रुता कम होने के स्थान पर और अधिक बढ़ जाती है l ऐसे संघर्ष रोकने के लिए सारी धरती गोपाल की, भावना का विस्तार करना आवश्यक है l अगर हममें आपसी भाईचारा व बन्धुत्व भाव होगा तो हम अपना दुःख-सुख आपस में बाँटकर कम कर सकते हैं l
    संसार में जहाँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण के हिसाब से लाखों में जनसंख्या बढ़ रही है तो पौष्टिक पदार्थों के कम होने के साथ-साथ धरती भी सिकुड़ती जा रही है l कारखाने, सड़क, बाँध, भवन बनते जा रहे हैं l युवावर्ग में शारीरिक दुर्बलता, विषय-वासनाओं के प्रति मानसिक दासता बढ़ रही है l हमें चाहिए कि सयंम रहित जनन क्रिया को सामाजिक समस्या समझा जाये l समाज की समस्या परिवार की और परिवार की समस्या अपनी समस्या होती है या वह समस्या बन जाती है l इसलिए परिवार का सीमित होना अति आवश्यक है l
    कोई भी रोग किसी को हो सकता है l उसकी दवाई होती है या दवाई बना ली जाती है l रोगोपचार के लिए रोगी को दवाई दी जाती है l उसका उपचार किया जाता है और वह एक दिन रोग-मुक्त भी हो जाता है l विशाल समाज ऐसे विभिन्न रोगों से रोगग्रस्त हो गया है l सब रोगों की एक ही दवाई है ब्रह्म विद्या, जो मात्र सरस्वती विद्या मंदिरों के माध्यम से संस्कारों के रूप में. रोग निदान हेतु वितरित की जा सकती है l आइये ! हम विस्तृत समाज में ब्रह्म विद्या के सरस्वती विद्या मंदिरों की स्थापना करके इस पुनीत कार्य को संपूर्ण करें l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"