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श्रेणी: मानव जीवन दर्शन

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    आत्म-शान्ति पाने के उपाय

    आलेख - मानव जीवन दर्शन – कश्मीर टाइम्स 3.12.1996
    मानव जीवन में व्यक्ति की ओर से अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए उचित यह है कि उसके अपने अमूल्य जीवन का कोई ना कोई बड़ा उद्देश्य अवश्य हो l उससे भी अधिक जरुरी है, उसकी ओर से उस उद्देश्य को अपने दायित्व के साथ पूरा करने की चेष्टा करना l वह अपने प्रगतिशील मार्ग में आने वाले कष्टों को फूल और मृत्यु को जीवन समझे और अपना प्रयत्न तब तक जारी रखे जब तक वह उसे पूरा न कर ले l जीवन उद्देश्यों को मुख्यतः भागों में विभक्त किया जा सकता है – अध्यात्मिक और वैश्विक l 
    आत्म-कल्याण या आत्म-शांति की कामना करते हुए यहाँ जिन-जिन उपायों की चर्चा की जाएगी, वह हमारे लिए नये नहीं हैं क्योंकि प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, महात्माओं, आचार्यों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने प्रयासों और अनुभवों से देश, काल और पात्र देखकर उनका कई बार मन, कर्म और वचन से प्रचार-प्रसार किया है l यह उसी कड़ी को आगे बढ़ाने का एक छोटा सा प्रयास है l
    1. जिस प्रयास या चेष्टा से जीवन में उन्नति करने के लिए अपने मन से गुण और दोषों का परिचय मिलता है, सद्गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखकर दोषों को दूर किया जाता है, आत्म निरिक्षण कहलाता है l
    2. दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ) अपने-अपने गुणों के अनुकूल कर्म करती हैं l उनकी ओर से ऐसी कुचेष्टाएँ जो मन को अध्यात्मिन मार्ग से भटकाने में समर्थ हों, उनसे मन को बचाने के लिए समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित किया जाता है l इसके साथ-साथ आत्म-साक्षात्कार का प्रयास भी जारी रखा जाता है – आत्म संयमन कहलाता है l
    3. समस्त इन्द्रियों को संयमित एवं अनुशासित करके हृदय और मष्तिष्क को रोककर उसे ईश्वरीय भाव में टिकाकर, मन से प्रभु का ध्यान किया जाता है – आत्म-चिंतन कहलाता है l
    4. अपनी आत्मा को महाशक्ति मानकर नेक कमाई से अपना निर्वहन करने के साथ कर्तव्य समझकर यथा शक्ति दूसरों की सहायता की जाती है – आत्मावलंबन कहलाता है l
    5. अपने हृदय से कर्मफल का मोह छोड़कर, हर कार्य जिससे अपने जैसा दूसरों का भी भला होता हो, को करना कर्तव्य समझा जाता है – आत्मानुशासन कहलाता है l
    6. संयमित जीवन में बाहरी विरोद्ध होने पर भी अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ मन, वाणी और कर्म में दृढ़ आस्था राखी जाती है – आत्म सम्मान कहलाता है l
    7. अपनी आत्मा में ध्यान मग्न रहकर दूसरे प्राणियों में भी अपनी ही आत्मा के दिव्यदर्शन करके उनके साथ अपने जैसा व्यवहार किया जाता है – आत्मीय भावना कहलाती है l
    8. अपने अन्दर और बाहर एक जैसे भाव में आत्म स्वरूप का दर्शन करते हुए समाधि लगाई जाती है तथा श्रधालुओं व जिज्ञासुओं में आत्मज्ञान का अपेक्षित प्रसाद बांटा जाता है – आत्मज्ञान कहलाता है l
    9. निराभिमान द्वारा अपने मन को आत्मज्ञान में स्थिर रखकर, यथा संभव विश्व का कल्याण और आत्मचिंतन करते हुए समाधि में ही शरीर का त्याग किया जाता है – आत्म-मुक्ति कहलाता है l
    भले ही उपलिखित उपाय आत्म-कल्याण करने वाले या आत्म-शांति पाने वाले विभिन्न हैं पर इनका प्रभाव या परिणाम एक ही जैसा है l
    देखने में आया है कि हर मनुष्य का अपने जीवन में कोई न कोई उद्देश्य तो होता है पर जिन उद्देश्यों को हमने सबके सामने लाने का प्रयास किया है उनमें से किसी एक को अवश्य चुन लेना चाहिए l वह इसलिए कि जो उद्देश्य संसारिक दृष्टि से चुने जाते हैं, वह सब चंचल मन के किसी न किसी विकार से प्रेरित/ग्रसित और प्रभावित होकर क्षण-भान्गुरिक, अल्पायु, नाशवान सुख देने वाले ही होते हैं l कई बार हम उनका नाश भी अपने सामने होता देखते हैं l उन्हें देख हमें मानसिक दुखों के साथ-साथ और कई कष्ट सहन करने पड़ते हैं l
    पर अध्यात्मिक उद्देश्य अनश्वर, दीर्घायु, वाला अमरता की ओर ले जाने वाला एक साधन, उपाय या मार्ग है l जैसे बर्फ की सिल्ली का पिघला हुआ पानी पहाड़ी से ढलान की ओर बहकर नाला या नदी के मार्ग में अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए अंत में समुद्र से मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख में दुखी और सुख में प्रसन्न न हो l सुख दुःख दोनों मन के विकार हैं l उसे स्थित-प्रज्ञ या एक भाव में स्थिर होना आवश्यक है l इससे वह ईश्वर दर्शन कर सकता है l
    हम इसके बारे में कुछ अधिक न कहते हुए मात्र इतना ही कहेंगे कि हमें न केवल अपने नश्वर देह सुख के लिए अल्पकालिक सुख देने वाले उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उसके साथ-साथ आत्म-शांति देने या आत्म-कल्याण करने वाले उद्देश्य भी पुरे करने का प्रयत्न करना चाहिये l इससे हम स्वयं तो सुखी होंगे ही इसके साथ ही साथ दूसरों को भी सुख पहुंचा सकते हैं l

    चेतन कौशल "नूरपुरी"

     
     

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    अपने प्रति अपनी सजगता

    आलेख - मानव जीवन दर्शन - कश्मीर टाइम्स 21.10.1996 
    मानव मन जो उसे नीच कर्म करने से रोकता है, विपदा आने से पूर्व सावधान भी करता है, वह स्वयं बड़े रहस्यमय ढंग से एक ऐसे आवरण में छुपा रहता है जिसके चारों ओर विषय, वासना और विकार रूपी एक के पश्चात् एक पहली, दूसरी तीसरी और चौथी परत के पश्चात् परत चढ़ी रहती है l जब मनुष्य अपनी निरंतर साधना, अभ्यास और वैराग्य के बल से उन सभी आवरणों को हटा देता है , आत्मा का साक्षात् कर लेता है उसे पहचान लेता है और ये जान लेता है कि वह स्वयं कौन है ? क्यों है ? तो वह समाज का सेवक बन जाता है l उसकी मानसिक स्थिति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है l 
    मनुष्य का मन उस जल के समान है जिसका अपना कोई रंग-रूप या आकार नहीं है l कोई उसे जब चाहे जैसे वर्तन में डाले, वह अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं को उसमें व्यवस्थित कर लेता है l ठीक यही स्थिति मनुष्य के मन की है l चाहे वह उसे अज्ञानता के गहरे गर्त में धकेल दे या ज्ञानता के उच्च शिखर पर ले जाये, ये उसके अधीन है l उसका मन दोनों कार्य कर सकता है, सक्षम है l इनमें अंतर मात्र ये है कि एक मार्ग से उसका पतन होता है और दूसरे से उत्थान l इन्हें मात्र सत्य पर आधारित शिक्षा से जाना जा सकता है l
    संसार में भोग और योग दो ऐसी सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य को भौतिक एवंम अध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है l यह तो उसके द्वारा विचार करने योग्य बात है कि उसे किस सीढ़ी पर चढ़ना है और किस सीढ़ी पर चढ़कर उसे दुःख मिलता है और किससे सुख ?
    महानुभावों का अपने जीवन में यह भली प्रकार विचार युक्त जाना-पहचाना दिव्य अनुभव रहा है कि बुराई संगत करने योग्य वस्तु नहीं है l भोग-चिंतन कुसंगति का बुलावा है l भोग-चितन करने से मनुष्य बुरी संगत में पड़ता है l बुरी संगत करने से बुरी भावना, बुरी भावना से बुरे विचार, बुरे विचारों से बुरे कर्म पैदा होते हैं जिनसे निकलने वाला फल भी बुरा ही होता है l
    बुराई से दूर रहो ! इसलिए नहीं कि आप उससे भयभीत हो l वह इसलिए कि दूर रहकर आप उससे संघर्ष करने का अपना सहस बढ़ा सको l मन को बलशाली बना सको l इन्द्रियों को अनुशासित कर सको l फिर देखो, बुराई से संघर्ष करके l इससे निकलने वाले परिणाम से आपको ही नहीं आपके परिवार, गाँव, शहर,समाज और राष्ट्र के साथ-साथ विश्व का भी कल्याण होगा l वास्तविक मानव जीवन यही है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना सम्भवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l
    मनुष्य द्वारा अपने मन को भोग से योग में लगाना संभवतः एक बहुत बड़ी तपस्या है – भौतिक सुख में लिप्त रहने वाले मनुष्य को वर्तमान काल में ऐसा करना बहुत कठिन लगता है l ये उसकी अपनी दुर्बलता है l जब तक वह अपने आप को बलशाली नहीं बना लेता, तब तक वह स्वयं ही बुराई का शिकार नहीं होगा बल्कि उससे उसका कोई अपना हितैषी बन्धु भी चैन की नींद नहीं सो सकता l
    मनुष्य भोग बिना योग और योग बिना भोग सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे भोग में योग और योग में भोग का व्यवहारिक अनुभव होना नितांत आवश्यक है l वह चाहे पढ़ाई से जाना गया हो या क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध किया गया हो l अगर जीवन में इन दोनों का मिला-जुला अनुभव हो जाये तो वह एक अति श्रेष्ठ अनुभव होगा l इसके लिए कोरी पढ़ाई जो आचरण में न लाई जाये, नीरस है और कोरा क्रिया अभ्यास जिसका पढ़ाई किये बिना आचरण किया गया हो - आनंद रहित है l
    जिस प्रकार साज और आवाज के मेल से किसी नर्तकी के पैर न चाहते हुए भी अपने आप थिरकने आरम्भ हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार अध्यन के साथ-साथ उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन भी स्वयं ही सस्भी सुखों से परिपूर्ण होता जाता है l
    प्राचीन काल में ही क्यों आज भी हमारे बीच में ऐसे कई महानुभाव विद्यमान हैं जो आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किये हुए हैं और दूसरे गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर उच्च सन्यासी हो गए हैं या जिन्होंने तन, मन और धन से वैराग्य ले लिया है l उनका ध्येय स्थित प्रज्ञ की प्राप्ति अथवा आत्मशांति प्राप्त करने के साथ-साथ सबका कल्याण करना होता है l इनके मार्ग भले ही अलग-अलग हों पर मंजिल एक ही है l
    वह ब्रहमचारी या सन्यासी जिसकी बुद्धि किसी इच्छा या वासना के तूफान में कभी अडिग न रह सके, वह न तो ब्रह्मचारी हो सकता है और न ही सन्यासी l उसे ढोंगी कहा जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा – क्योंकि ब्रहमचारी किसी रूप को देखकर कभी मोहित नहीं होता है और सन्यासी किसी का अहित अथवा नीच बात नहीं सोच सकता जिससे उसका या दूसरे का कोई अहित हो l इनमें एक अपने सयंम का पक्का होता है और दूसरा अपने पर्ण का l अपमानित तो वाही होते हैं जो इन दोनों बातों से अनभिज्ञ रहते हैं या वे उनकी उपेक्षा करते हैं l इसलिए समाज में कुछ करने के लिए आवश्यक है अपने प्रति अपनी निरंतर सजगता बनाये रखना और ऐसा प्रयत्न करते रहना जिससे जीवन आत्मोन्मुखी बना रहे l


    चेतन कौशल “नूरपुरी”
     

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    साधक मन और साधना

    आलेख - मानव जीवन दर्शन कश्मीर टाइम्स 9 जुलाई 1996
    साधना-प्रगति के अंतिम बिंदु तक पहुँचने के लिए जो जिज्ञासु प्रयत्नशील रहता है, वह कभी थकने या रुकने का नाम नहीं लेता है – साधक कहलाता है l वह भली प्रकार जानता है कि साधना के मार्ग पर फूल कम और कांटे अधिक मिलते हैं l फिर भी जिज्ञासु साधक अपने अदम्य साहस के साथ उन काँटों को अपने पैरों तले रौन्दता हुआ मात्र फूलों को ही चुनता है और अपनी विकास–यात्रा जारी रखता है l इस प्रकार अविलंब प्रयत्न करते हुए एकाएक उसके जीवन में वह भी सुअवसर आ जाता है जब वह विभिन्न प्रकार के फूल एकत्रित करके उन्हें किसी एक मनोहारी माला का स्वरूप प्रदान कर देता  है l साधक की साधना साकार हो जाती है l उसे उसकी निश्चित मंजिल मिल जाती है l  
    साधना मार्ग में यह बात सुनिश्चित है कि साधक मन उस समय अपनी रचनात्मक साधना प्रगति–मार्ग से भ्रमित हो जाता है जब उसकी बुद्धि मन के अधीन विषयासक्त होकर उचित निर्णय लेने में असमर्थ हो जाती है l विषय भोगी चंचल मन इच्छा वश होकर इन्द्रिय विषय – शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का रसास्वादन करने हेतु दौड़ता है, ललायत रहता है l वह इन्द्रिय इच्छापूर्ति का माध्यम बनता है पर अल्पकालिक इन्द्रिय सुख उसके लिए दुःख का कारण बनता है l परिणाम स्वरूप बुद्धि का नाश होता है l साधक की साधना अवरुद्ध होने के कारण, आगे नहीं बढ़ पाती है l साधक पूर्णता प्राप्त करने से वंचित रह जाता है l इसी कारण इन्द्रिय विषय अल्पकालिक सुख देने वाले, साधना-मार्ग के शत्रु होते हैं l श्रीकृष्ण जी के कथनानुसार – “साधक को अपना मन अभ्यास या वैराग्य के द्वारा सयंत करके उसे सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय नीति के अंतर्गत रचनात्मक कार्यों में समर्पित करना चाहिए l”
    पांच ज्ञानेंद्रियाँ – त्वचा, रसना, आँख, कान और नाक स्पर्श करना, रस चखना, रूप देखना, शब्द सुनना, गंध सूंघना और पांच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, मुंह, उपस्थ, गुदा और पैर कर्म करना, भोजन करना, जनन, मल विच्छेदन, तथा चलना अपने स्वाभाविक गुणानुकुल कार्य करती हैं l इन्द्रियों का समयबद्ध अनुशासित और सयंत करके साधक पुरुष उन्हें बुद्धि द्वारा, अपने जीवन के प्रगति–पथ पर जीवन का निश्चित लक्ष्य पाने के लिए रचनात्मक कार्यों में लगाता है l इससे उसकी हर प्रकार की प्रगति होने के साथ-साथ उसे पूर्णता भी प्राप्त होती है
    कोई भी साधक पुरुष शरीर रूपी मकान को अंदर की अपेक्षा उसके बाहरी सौन्दर्य को निखारने में बिना कारण अपनी शारीरिक शक्ति, अमूल्य समय और धन कभी नष्ट नहीं करता है l वह दैवी गुणों से विमुख नहीं रहता है l वह नित गुरु की देख-रेख में, उनके मार्ग-दर्शन और आदेशानुसार अपने दैवी गुणों की सतत वृद्धि ही करता है l इनका सदुपयोग करने से उसका अपना तो भला होता है, साथ ही साथ दूसरों का भी भला होता है परन्तु दुरूपयोग करने से सबको पीड़ा और दुःख ही मिलते हैं l जो साधक पुरुष मान्यवर गुरु की उपेक्षा करते हैं, उनकी उन्नति पर ईर्ष्या करते हैं और उनसे अधिक स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं – वे अपने जीवन में विकास अथवा लाभ पाने के नाम पर पतन-हानि ही पाते हैं l कायर, आलसी, और चापलूस साधक पुरुष की साधना कभी साकार नहीं होती है l
    साधक पुरुष प्रायः सयंमित, शांत, त्यागी, समद्रष्टा, विनम्र और अनुशासित होता है l वह अध्यात्मिक तथा भौतिक प्रगति में संतुलन बनाये रखता है l वह मानसिक विकारों के वेगों के प्रति सदैव सचेत रहता है l वह जानता है कि मानसिक विकारों के वेग उसकी उन्नति में वाधक हैं l जो प्रगति की उंचाई की ओर बढ़ते हुए उसके क़दमों को लड़खड़ा देते हैं l परिणाम स्वरूप साधक का पतन होना आरम्भ हो जाता है l
    इसलिए पति-पत्नी के अतिरिक्त पराये नर-नारी का चिंतन-मनन, दर्शन और संग करना जैसे आचार-व्यवहारों से न केवल काम वासना जागृत होती है, बल्कि वह और अधिक बढ़ती है l इससे समाज में माँ, बहन, बहु, बेटी भरजाई और उनके समान अन्य की भी मान-मर्यादा नष्ट होती है l साधक पुरुष मान-मर्यादा के रक्षक होते हैं, भक्षक नहीं l वह ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जिनसे समाज में अपहरण, बलात्कार, देह प्रदर्शन, देह व्यपार, और गुंडागर्दी को बढ़ावा मिलता हो l वह स्वयं तो सयमित रहते हैं, समय समय पर दूसरों को भी सावधान करते रहते हैं l
    छोटी-छोटी बातों के पीछे बौखला जाना, अपशब्द कहना और लड़ाई-झगड़े करना जैसे आचार-व्यवहार क्रोध के ही विभिन्न रूप हैं l यह सब क्रोध को बढ़ावा देते हैं l विकराल रूप न धारण हो, इसी बात का ध्यान रखते हुए साधक पुरुषों के द्वारा शांतभाव में गंभीर से गंभीर समस्या का हल ढूँढना होता है l क्रोध किसी समस्या का हल नहीं है l साधक द्वारा क्रोध करने की आवश्यकता आ भी पड़े तो वह ज्ञान, कर्तव्य, नीति, और न्याय संगत होता है l इनके बिना किया गया क्रोध किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है l
    अपने लिए अपनी आवश्यकता से अधिक चल-अचल धन-संपदा, अन्न, वस्त्र का उत्पादन निर्माण, संग्रहण करना और उन पर मात्र अपना एकाधिकार जताना जैसे अचार-व्यवहार व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ ही के स्वरूप हैं l साधक पुरुष असंग्रही, बुद्धिमान, सदाचारी, न्यायप्रिय और कर्तव्य-परायण होते हैं l वह स्वयं उदाहरण बनकर, दूसरों को भी वैसा ही बनने का मार्ग प्रशस्त करते हैं l इससे चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सुख-समृद्धि देखने को मिलती है l
    नशा–धुम्रपान जान-बुझकर मौत के कुएं में छलांग लगाने के समान है l इससे तन, मन, धन, और स्वयं का नाश होता है l तन के जर-जर हो जाने पर, उसे कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है l नशा–धुम्रपान करने वाले पुरुष की बुद्धि का नाश हो जाता है l उसकी विचार करने की शक्ति नष्ट हो जाती है l उसे आर्थिक संकट घेर लेता है l साधक पुरुष ऐसा करने से दूर रहते हैं और दूसरों को इस संकट से सावधान भी करते हैं l
    साधक पुरुष सृष्टि में – पति-पत्नी, संतान, धन-संपदा, सुख-सुविधा, पद, वेतन, सत्ता सुख को ही अपना सब कुछ नहीं मानते हैं l यह सब उन्हें भौतिक सुख तो दे सकते हैं पर आत्मिक शांति नहीं l साधक पुरुष को भौतिक सुख के साथ-साथ अध्यात्मिक सुख की भी आवश्यकता होती है l साधक पुरुष ऐसे आचार-व्यवहार जिनसे अशांति होने का भय या संदेह हो, उनमें अपने मन से कभी आसक्त नहीं होते हैं बल्कि निज मन को अभ्यास और वैराग्य के अंतर्गत उसे अध्यात्मिक उन्नति की साधना में व्यस्त रखते हैं l इससे उन्हें आत्मिक सुख और आनंद मिलता है l
    मैं और मैंने शब्दों का बात-बात पर उच्चारण, व्यवहार में प्रदर्शन करना ही अहंकारी पुरुष का अहंकार है l उसमें अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना का आभाव रहता है l वह छोटों के प्रति अप्रिय होता है l साधक पुरुष विनम्र होते हैं l विनम्रता के कारण वह सबको प्रिय होते हैं l विनम्रता ही मैं और मैने के के अहंकारी भावों का अस्तित्व मिटाती है l उससे आत्मसमर्पण का भाव जागृत होता है तथा आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है जिससे साधक पुरुष के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है l
    साधक पुरुष साधना में मग्न रहकर मानवता ही की सेवा करते हैं और समय-समय पर वे समाज तथा प्रशासन के द्वारा सम्मानित भी होते हैं l साधक पुरुषों का सुख-दुःख सबका अपना सुख-दुःख बन जाता है l साधक साधना से दूसरों को अपना बना लेते हैं l उनकी चिंता सभी करते हैं l वह हर मन प्यारे बन जाते हैं l सारा संसार उनका अपना घर होता है और वे होते हैं, विश्व परिवार के सदस्य – विश्व बंधू l
    साधक पुरुष सबको एक ही परमात्मा की संतान मानते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं और सबके लिए प्रिय ही कार्य कार्य करते हैं l उनका जीवन चिंता मुक्त होता है l वास्तव में चिंता मुक्त विकसित चिंतनशील मन ही साधक पुरुष के जीवन को सार्थक, पूर्ण, साकार, सफल, आत्मज्ञानी और सुखी-समृद्ध बनाने के साथ-साथ उसे मुक्ति भी प्रदान करता है l
    काश ! ऐसी प्रभु कृपा सभी पर हो l

    चेतन कौशल “नूरपुरी”

     
     

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    सद्गुण-संस्कार और हमारा दायित्व

    आलेख - मानव जीवन दर्शन कश्मीर टाइम्स 5 मई 1996 

    ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति में पृथ्वी और उसके चारों ओर ब्रह्मांड बड़ा विचित्र है l सूर्य में ताप, चन्द्रमा में चांदनी, वायु में सरसराहट और नदियों में कल-कल के मधुर संगीत का मिश्रण इस बात का का द्योतक है कि समस्त ब्रह्मांड में जो भी अमुक वस्तु विद्यमान है, वह अपने किसी न किसी गुण विशेष के लिए अपना महत्व अवश्य रखती है l

    बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मयूर का मस्त होकर नाचना और भोर के समय पक्षियों का चहचहाना किसी शुभ समाचार की ओर इंगित करता है l अगर ऐसा है तो प्राणियों में सर्व श्रेष्ठ, विवेकशील मनुष्य का जीवन नीरस और अंधकारमय कदाचित हो नहीं सकता l जब उसका जन्म होता है जो उसके जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य भी होता है l बिना उद्देश्य के उसे जन्म नहीं मिल सकता है l यह प्रकृति का नियम है l गुण और संस्कारों का जीवन के साथ जन्म-जन्मों का संबंध रहता है l जीवन उद्देश का उसने अपने इसी जीवन में पूरा अवश्य करना है जिसके लिए वह संघर्षरत है l ध्यान और सूक्षम दृष्टि से उसका अध्ययन करने की आवश्यकता रहती है l उसके भीतर लावा समान दबा और छुपा हुआ भंडार दिव्य गुण और संस्कारों के रूप में उसके जीवन का उद्देश्य पूरा करने में पर्याप्त होते हैं l वह समय पर बड़े और कठिन से कठिन भी कार्य कर सकने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं l आवश्यकता मात्र है तो नवयुवाओं को गुण और संस्कारों के आधार पर सुसंगठित करने की l उन्हें उचित दिशा निर्देशन की, सहयोग की और उनका उत्साह वर्धन करने की l


    युवा बहन-भाइयों को उनके जीवन के महान उद्देश्य तभी प्राप्त होते हैं जब उनके गुण – संस्कार जीवन उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं l प्रतिकूल गुणों से किसी भी महान जीवन उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है l बबुल का पेड़ कभी आम का फल नहीं देता है l जैसे किसी मीठे आम का एक बार रसास्वादन कर लेने के पश्चात् उससे संबंधित पेड़ देखने और वैसे ही मीठे आम दुबारा पाने की मन में बार-बार इच्छा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अच्छे या बुरे गुण–संस्कार युक्त बहन-भाइयों के कर्मों की छाप भी संपूर्ण जनमानस पटल पर अवश्य अंकित होती है जो युग-युगान्तरों तक उसके द्वारा भुलाये नहीं भुलाई जाती है l अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही संसार उन्हें याद करता है l यह बात उन पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकृति से संबंधित है l


    बुरा बनने से कहीं अच्छा है कि भला ही कार्य करके अच्छा बना जाए l उसके लिए आवश्यक है कोई एक निपुण शिल्पकार होना l जिस प्रकार एक शिल्पी बड़ी लग्न, कड़ी मेहनत और समर्पित भाव से दिन-रात एक करके किसी एक बड़ी चट्टान को काट-छांट और तराशकर उसे मनचाही एक सुंदर आकृति और आकर्षक मूर्ति का स्वरूप प्रदान कर देता है, ठीक इसी प्रकार किसी भी प्रयत्नशील बहन-भाई को स्वयं में छुपी हुई किसी प्रभावी विद्या, कला तथा दैवी गुणों को भी जागृत और उन्हें प्रकट करने के कार्य में आज से ही जुट जाना चाहिए जिनमें उनकी अपनी अभिरुचि हो l उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी l देखने में आया है कि जैसा पात्र होता है उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल देश - कार्य क्षेत्र, काल - समय, परिस्थिति तथा पात्र – सहयोगी और मार्ग दर्शक अवश्य मिल जाते हैं l उनसे उनका काम सहज होना निश्चित हो जाता है और वह वही बन जाता है जो वह अपने जीवन में बनना चाहता है l
    प्रयत्नशील को अपने जीवन में महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसके अनुकूल गुणों का अपने जीवन में चरित्रार्थ करना उतना ही आवश्यक है जितना फूलों में सुगंध होना l फूलों में सुगंध से मुग्ध होकर फूलों पर असंख्य भंवर मंडराते हैं तो जन साधारण लोग गुणवानों के आचरण का अनुसरण करने के लिए उनके अनुयायी ही बनते हैं l उनके साथ रहकर अच्छा बनने के लिए वह अच्छे गुणों का अपने जीवन में प्रतिपादन करते हैं l


    उच्च गुण सम्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रभावशाली जीवन होता है l वह स्वयं जैसा होता है, दूसरों को भी अपने जैसा देखना चाहता है, बनाना चाहता है l एक सदाचारी सदैव सदाचार की बात करता है, भलाई के कार्य करता है जबकि दुराचारी, दुराचार की बात करना अपनी शान समझता है, दुराचार के कार्य करता है l इसलिए दोनों की प्रकृतियाँ आपस में कभी एक समान हो नहीं सकती l वह एक दिशा सूचक यंत्र की तरह सदैव विपरीत दिशा में रहती हैं l उन दोनों में द्वंद्व भी होते हैं l कभी सदाचार, दुराचार का दमन करता है तो कभी दुराचार, सदाचार को असहनीय कष्ट और पीड़ा ही पहुंचाता है l जब यह दोनों प्रकृतियाँ सुसंगठित होकर किन्हीं बड़े-बड़े संगठनों का रूप धारण कर लेती हैं तब उनमें द्वंद्व न रहकर युद्ध ही होते हैं जिनमें उन दोनों पक्षों को महाभारत युद्ध की तरह अपने प्रिय बंधुओं और अपार धन-सम्पदा से भी विमुख होना पड़ता है l
    समर्थ तरुणाई वह है जो अपने जीवन में कुछ कर सकने की सामर्थ्या, शक्ति रखती है l तरुण के लिए उसकी मानवीय शक्तियों का उजागर होना अति आवश्यक है l वह शक्तियां उसके द्वारा उच्च गुण-संस्कारों का अपने जीवन में आचरण करते हुए स्वयं प्रकट होती हैं l इसलिए तरुण–शक्ति जन शक्ति के रूप में लोक शक्ति बन जाती है l अतः कहा जा सकता है कि :-


    लोक शक्ति का मूल आधार,
    जन-जन के उच्च गुण संस्कार l


    जिस प्रकार किसी एक बड़ी नदी के तीव्र बहाव को रोककर बांध बना लिया जाता है, युवाओं में कुछ कर सकने की जो तीव्र इच्छा-शक्ति होती है, उसे अवरुद्ध करना अति आवश्यक है l आवश्यकता पड़ने पर जलाशय के जल को कम या अधिक मात्र में नहरों के माध्यम द्वारा दूर खेत, खालिहान, गाँव-शहर तक पहुंचाया जाता है, उनसे खेती-बागवानी, साग-सब्जी की फसल में पानी लगाया जाता है और उससे अन्य आवश्यकताएं भी पूरी की जाती हैं - ठीक उसी प्रकार युवाओं की अद्भुत कार्य क्षमता को उनकी अभिरुचि अनुसार छोटी-बड़ी टोलियों में सुसंगठित करके उनसे लोक विकास संबंधी कार्य करवाए जा सकते हैं l युवा बहन–भाइयों की तरुण शक्ति को नई दिशा मिल सकती है l उससे गुणात्मक और रचनात्मक कार्य लिए जा सकते हैं l किसी परिवार, गाँव, तहसील, जिला, और राज्य से लेकर राष्ट्र तक का भी विकास किया जा सकता है l तरुण–शक्ति का मार्गदर्शन अवश्य किया जाना चाहिए l क्या हम ऐसा कर रहे हैं ? यह हमारा दायित्व नहीं है क्या ?


    चेतन कौशल “नूरपुरी”