आलेख - सामाजिक चेतना मातृवन्दना नवंबर 2007
जून 2007 अंक में पृष्ठ संख्या 8 आवरण आलेखानुसार “कुछ वर्ष पूर्व “नासा” द्वारा उपग्रह के माध्यम से प्राप्त चित्रों और सामग्रियों से यह ज्ञात हुआ है कि श्रीलंका और श्रीरामेश्वरम के बीच 48 किलोमीटर लम्बा तथा लगभग 2 किलोमीटर चौड़ा सेतु पानी में डूबा हुआ है और यह रेत तथा पत्थर का मानव निर्मित सेतु है l भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु का जलयान मार्ग हेतु भारत और श्रीलंका के बीच अवरोध मानकर “सेतु समुद्रम-शिपिंग-केनल प्रोजेक्ट” को भारत सरकार ने 2500 करोड़ रूपये के अनुबंध पर तोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी है” यह भारतीय संस्कृति की धरोहर पर होने वाला सीधा कुठाराघात ही तो है जिसे जनांदोलन द्वारा तत्काल नियंत्रित किया जाना अनिवार्य है l
जुलाई 2007 मातृवन्दना अंक के पृष्ठ संख्या 11 धरोहर आलेख “वैज्ञानिक तर्क” के अनुसार “धनुषकोटि” के समीप जलयान मार्ग के लिए वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध हो सकता है l” इस सुझाव पर विचार किया जा सकता है परन्तु इसकी अनदेखी की जा रही है l एक तरफ भारत की विदेश नीति पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान, चीन, बंगलादेश, भूटान आदि के साथ आपसी संबंध सुधारने की रही है l उन्हें सड़कों के माध्यम द्वारा आपस में जोड़कर उनमें आपसी दूरियां मिटाई जा रही हैं तो दूसरी ओर भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित इस प्राचीनतम सेतु को तोड़ा जा रहा है l इसे वर्तमान सरकार का जन भावना विरोधी उठाया गया कदम कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि इसके साथ देश-विदेश के असंख्य श्रद्धालुओं की अपार धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हुई हैं l इससे उन्हें आघात पहुँच रहा है l
कितना अच्छा होता ! अगर श्रीराम युग की इस बहुमूल्य धरोहर रामसेतु का एक वार जीर्णोद्वार अवश्य हो जाता l उसे नया स्वरूप प्रदान किया जाता l इसके लिए श्रीलंका और भारत सरकार मिलकर प्रयास कर सकती हैं l दोनों देशों के संबंध और अधिक प्रगाढ़ और मधुर हो सकते हैं l इस भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की किसी भी मूल्य पर रक्षा अवश्य की जानी चाहिए l
चेतन कौशल “नूरपुरी”
श्रेणी: विभिन्न आलेख
-
श्रेणी:विभिन्न आलेख
जन मानस विरोधी कदम
-
श्रेणी:विभिन्न आलेख
लोक विकास – समस्या और समाधान
आलेख - राष्ट्रीय भावना असहाय समाज वर्ग जनवरी जून 1996
इस सृष्टि की संरचना कब हुई ? कहना कठिन है l सृष्टि के रचयिता ने जहाँ प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए आहार की व्यवस्था की है, वहां मनुष्य के जीवन से संबंधित हर पक्ष के साथ एक विपरीत पहलू भी जोड़ा है l जहाँ सुख है, वहां दुःख भी है l रात है तो दिन भी है l इसी प्रकार सृष्टि में उत्थान और पतन की अपनी-अपनी कार्य शैलियाँ हैं l उत्थान की सीढ़ी चढ़कर मनुष्य आकाश की ऊँचाइयां छूने लगता तो पतन की ढलान से फिसलकर वह इतना नीचे भी गिर जाता है कि एक दिन उसे अपने आप से लज्जा आने लगती है l मनुष्य विवेकशील, धैर्यवान और प्रयत्नशील प्राणी होने के कारण अपना प्रयत्न जारी रखता है l वह गिरता अवश्य है परन्तु कड़ी मेहनत करके वह पुनः पूर्वत स्थान की प्राप्ति भी कर लेता है l कई बार वह उससे भी आगे निकल जाता है l यह उसकी अपनी लग्न और मेहनत पर निर्भर करता है l विकास प्रायः दो प्रकार के होते हैं – अध्यात्मिक तथा भौतिकी l जब वेद पथ प्रेमी साधक आंतरिक विकास करता है तो सत्य ही का विकास होता है – वह विकास जिसका कभी नाश नहीं होता है l शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु आत्मा मरती नहीं है l अभ्यास और वैराग्य को आधार मानकर निरंतर साधना करके, साधक मायावी संसारिक बन्धनों से मुक्त अवश्य हो जाता है l
साधक भली प्रकार जानता है कि देहांत के पश्चात् उसके द्वारा संग्रहित भौतिक सम्पदा का तो धीरे-धीरे परिवर्तन होने वाला है परन्तु अपरिवर्तनशील आत्मा अपनी अमरता के कारण, अपना पूर्वत अस्तित्व बनाये रखती है l नश्वर शरीर क्षणिक मात्र है जबकि आत्मा अनश्वर, अपरिवर्तनशील और चिरस्थाई है l
जीवन यापन करने के लिए भौतिक विकास तो जरुरी है पर मानसिक प्रगति उस जीवन को आनंदमयी बनाने के लिए कहीं उससे भी ज्यादा जरुरी है l घर में सर्व सुख-सुविधाएँ विद्यमान हों पर मन अशांत हो तो वह भौतिक सुख-सुविधाएँ किस काम की ? मानसिक अप्रसन्नता के कारण ही संसार अशांति का घर दिखता है l
भौतिक विकास में साधक जन, धन, जीव-जन्तु, बल, बुद्धि, विद्या, अन्न, पेड़-पौधे, जंगल, मकान, कल-कारखाने और मिल आदि की संरचना, उत्पादन और उनको वृद्धि करते हैं जो पूर्णतया नश्वर हैं l इनकी उत्पति धरती से होती है l धरती से उत्पन्न और धरती पर विद्यमान कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, परिवर्तनशील है l जो स्थिर नहीं है, वह सत्य कहाँ ? अस्थिर या असत्य वस्तु को साधक अपना कैसे कह सकता है ? उसका तो अपना वही है जो सत्य है, स्थिर है, अपरिवर्तनशील है, अमर है और कभी मिटता नहीं है l वह तो मात्र आत्मा है
सृष्टि में भौतिक विकास, मानसिक कामनाओं की देन है l उसमें निर्मित कोई भी वस्तु, चाहे वह रसोई में प्रयोग करने वाली हो या शयन कक्ष की, कार्यालय-कर्मशाला की हो या खेल-मैदान की, धरती-जल की हो या खुले आकाश की – वह मात्र मनुष्य की विभिन्न भावनाओं, विचारों, और व्यवहारिक मानसिक प्रवृत्तियों की उपज है l जन साधारण लोग उनकी ओर आकर्षित होते हैं l वे उन्हें पाकर अति प्रसन्न होते हैं l साधकों को यह शक्ति, विकास की ओर उन्मुख मानसिक प्रवृत्ति से प्राप्त होती है l
भोजन से शरीर, भक्ति-प्रेम से मन, स्वाध्यय से बुद्धि और भजन से आत्मा को बल मिलता है l इससे पराक्रम, वीर्य, विवेक और तेज वर्धन होने के साथ-साथ साधक की आयु लम्बी तो होती है पर साथ ही साथ उसके लिए लोक-परलोक का मार्ग भी प्रशस्त होता है l “जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन” कहावत इस कार्य को पूरा करती है l इस प्रकार विचारानुसार कर्म, कर्मानुसार निकलने वाला अच्छा – बुरा परिणाम या फल साधक की मानसिक प्रवृत्ति पर निर्भर करता है l वह जैसा चाहता और करता है – बन जाता है l
जिस प्राणी ने मनुष्य जीवन पाया है, उसे जीवन लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को पुरुषार्थी अवश्य बनना चाहिए l उसे जीवन का विकास, साधना, मेहनत और प्रयत्न करना चाहिए l बिना पुरुषार्थ के सृष्टि में रहकर उससे कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव है l उसमें सभी पदार्थ हैं पर वे मात्र पुरुषार्थी के लिए, पुरुषार्थ से उत्पन्न किये जाने वाले हैं l जो जिज्ञासु पुरुषार्थ करता है, उन्हें प्राप्त कर लेता है l
ऐसा कोई भी जिज्ञासु तब तक किसी आत्म स्वीकृत कला के प्रति समर्पित एक सफल पुरुषार्थी नहीं बन सकता, जब तक वह प्राकृतिक गुण, संस्कारानुसार दृढ़ निश्चय करके कार्य आरम्भ नहीं कर देता l पुरुषार्थी को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित होना अति आवश्यक है l वह जीवनोपयोगी कलाओं में से किसी को भी अपनी सामर्थ्या एवम् रुचि अनुसार चुन सकता है – भले ही वह धार्मिक हो या राजनैतिक, आर्थिक हो या शैक्षणिक, पारिवारिक हो या सामाजिक – बिना सामर्थ्या एवम् अभिरुचि के, जीवन में सफल हो पाना असम्भव है l देखने में आया है कि प्रायः पुरुषार्थी का मन उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में नहीं लगता है जो उससे करवाए या किये जाते हैं l उसका ध्यान अन्य कार्यों की ओर आकृष्ट रहता है जिनमें उसकी अभिरुचि होती है l इसके पीछे उसकी आर्थिक विषमता, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, प्रोत्साहन का आभाव और उसे समय पर उचित मार्गदर्शन न मिल पाना – विवशता होती है l इस कारण अनचाहे उसका मन अशांत, परेशान और अप्रसन्न रहता है l
आवश्यकता है – किसी भी कलामंच या कार्यक्षेत्र के किसी कलाकार या श्रमिक को कभी मानसिक पीड़ा ना हो l अतः उससे उसकी इच्छानुसार, मनचाह कार्य लिया जाना सर्वश्रेष्ठ है l भले ही उस कला साधना अथवा कार्य से संबंधित प्रशासन द्वारा उसका कार्यक्षेत्र ही क्यों न बदली करना पड़े l ऐसा कलाकार जो अपने श्रम के प्रति समर्पित न हो, उसमे उसकी लग्न न हो, तो क्या कभी दर्शक उसे एक अच्छा कलाकार या श्रमिक कहेंगे ? क्या वह अपनी कला अथवा श्रम में सफल हो पाएगा ? क्या दर्शक उसके प्रशसंक बन पाएंगे ?
ऐसे कलाकारों या श्रमिकों से विकास का क्या अर्थ जो स्वयं ही को संतुष्ट नहीं कर सकते – समाज या राष्ट्र को संतुष्ट कौन करेगा ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह न तो किया जाने वाला कार्य भली प्रकार कर सकते हैं और न ही उस कार्य को जिसे वह करना ही चाहते हैं l वह अपने जीवन में कुछ तो कर दिखाना चाहते हैं पर कर नहीं पाते हैं l इस प्रकार समाज ऐसे होनहार कलाकारों और श्रमिकों के नाम से वंचित और अपरिचित भी रह जाता है जिन्होंने उसे गौरवान्वित करना होता है l साधक के पास उसे जन्म से प्राप्त कोई भी प्राकृतिक अभिरुचि – प्रतिभा जो उसके गुण, संस्कार और स्वभाव से युक्त होती है – जीवन साध्य उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्ण सक्षम, समर्थ होती है l उसे सफलता के अंतिम बिंदु तक पंहुचाने के लिए उपयोगी और उचित संसाधनों का होना अति आवश्यक है l
कला-क्षेत्र में, कला-सम्राटों के सम्राट संगीत-सम्राट तानसेन जैसे साधक कलाकार, कला-साधना की सेवा के लिए अपने तन, मन, धन और प्राणों से समर्पित होते हैं l वह स्वयं अपनी कला-साधना को न तो किसी बाजार की वस्तु बनाते हैं और न ही बनने देते हैं l उनकी कला में स्वतः ही आकर्षण होता है l वे अपनी लग्न और कड़ी मेहनत से कला का विकास करते हैं l वे भली प्रकार जानते हैं कि विश्व में मात्र उनकी अपनी क्षेत्रीय कला विद्या, संस्कृति सभ्यता और साहित्य से राष्ट्र, क्षेत्र, गाँव, समाज, परिवार और उनकी अपनी भी पहचान होती है l तरुण साधक कला साधना में मग्न रहकर, उसकी गरिमा बनाये रखते हैं वह कला का प्रदर्शन करने से पूर्व, उसे समाज की पसंद नहीं बनाते हैं और न ही उसकी मांग की चिंता करते हैं अपितु वह साधना से समस्त समाज को अपनी कला की ओर आकर्षित करते हैं l समाज स्वयं ही उनकी कला का प्रेमी, प्रशंसक, सहयोगी और अनुयायी बनता है l इससे विकास की गाड़ी निश्चित मंजिल की ओर बढ़ती जाती है l
चेतन कौशल “नूरपुरी”
-
श्रेणी:विभिन्न आलेख
धमीड़ी किला और बृजराज स्वामी जी
आलेख – ऐतिहासिक मातृवंदना 2023 मार्च अप्रैल
इब्राहीम गजनवी द्वारा ध्वस्त धमीड़ी किले में स्थित प्राचीन मंदिर के अवशेष
सन 1088 ई० की शृंखला में गजनवी ने भारत पर एक के पश्चात् एक अनेकों आक्रमण किये थे l उसने अपने आक्रमण, आतंक और लूटपाट के अंतिम अभियान में काँगड़ा मंदिर की तो अनंत संपदा को लुटा ही था l इसके साथ ही साथ धमीड़ी का प्राचीन मंदिर भी अछूता नहीं रह सका l उसने धमीड़ी के इस मन्दिर को ना केवल लुटा ही बल्कि उसे छैनियों तथा हथोड़ों से क्षतिग्रस्त भी करवाया था l
धमीड़ी किले के प्रवेश द्वार से पूर्व पहला लक्ष्मी-नारायण जी और दूसरा धर्मेश्वर महादेव जी का मंदिर दर्शनीय है l कहा जाता है कि जब धमीड़ी शहर का प्रादुर्भाव हुआ था, यह दोनों मंदिर उसी काल के विस्थापित हैं l धर्मेश्वर महादेव जी के नाम पर ही वर्तमान नूरपुर का प्राचीन नाम धमीड़ी पड़ा था l नूरपुर के लोग अब भी धर्मेश्वर महादेव जी को शहर का स्वामी मानते हैं l
इस मंदिर के बारे में एक किवदन्ती आज भी प्रचलित है – धर्मेश्वर महादेव जी के मंदिर के चारों ओर दीवारों में छोटे-छोटे झरोखे हैं l जब इस क्षेत्र में वर्षा नहीं होती थी, उस समय श्रद्धालु-भक्तों के द्वारा मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित बड़े तलाब से पानी लाकर, मंदिर के किवाड़ बंद करके, उन छोटे-छोटे झरोखों से तब तक पानी डाला जाता था जब तक मंदिर के भीतर शिवलिंग पानी में डूब नहीं जाता था l शिवलिंग का पानी में डूब जाने के पश्चात् एक दो दिनों तक वर्षा अवश्य हो जाती थी l
किले के अंदर बृजराज स्वामी जी का मंदिर, के पास अन्य महाकाली माता जी का एक मंदिर है l स्थानीय लोगों का मानना है कि यह मंदिर उतना ही प्राचीन है जितना कि किला l माता को यहाँ के राजाओं की कुलदेवी कहा जाता है l रात के समय माता अपने क्षेत्र में दौरा करती हैं l जब वे बाहर निकलती हैं, उस समय उनके चलने और आभूषणों की खनखनाहट के स्वर किन्हीं भाग्यशाली श्रद्धालु-भक्तों को ही सुनाई देते हैं l
नूरपुर शहर में गोलू नाम का एक मिस्त्री रहता था l वह धमीड़ी के राजा जगत सिंह जी, का समकालीन था l एक बार बृजराज स्वामी मंदिर की छत जो क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण नीचे झुक गई थी, उसे ठीक करने की जिम्मेवारी गोलू मिस्त्री की थी l उसने काले चने की आठ-दस बोरियां मंगवाई जिन्हें उसने छत के नीचे बोरी पर, बोरी रखवाकर सभी बोरियों को छत तक ऊँचा करके रखवा दिया, तद्पश्चात् उन सब बोरिओं को पानी से भिगोया गया l इससे चने फूल गए और मंदिर की छत ऊपर उठ गई l बाद में गोलू मिस्त्री ने छत ठीक कर दिया l उसी गोलू मिस्त्री के नाम पर आज नूरपुर शहर में एक गोलू मुहल्ला भी स्थित है जो सबको उसकी याद दिलाता रहता है l
भवन राज दरबार बना बृजराज स्वामी का मंदिर -
मैंने अपनी पूजनीय माता जी, से सुनी रोचक दन्त कथा जो उन्होंने मेरे नाना जी, से सुनी थी, इस प्रकार है -
“एक बार राजा जगत सिंह जी, (1619 – 46) अपने राजकीय कार्य के अंतर्गत राजस्थान के चितौड़ – उदयपुर गए थे l वहां के राजा ने पुरे राजकीय सम्मान के साथ उन्हें विश्राम करने के लिए अपने राज अतिथि गृह में, विश्राम कक्ष की व्यवस्था करवा दी l जिस कमरे में वे रात विश्राम कर रहे थे, अचानक उसके साथ ही वाले कमरे से उनके कानों में घुंघरुओं के स्वर के साथ-साथ किसी महिला के नाचने और भजन गाने की मधुर आवाज सुनाई दी l राजा को जिज्ञासा हुई, क्यों न एक बार उठकर साथ वाले कमरे में देख लिया जाये ? जब उन्होंने उठकर कमरे में देखा तो बस वे देखते ही रह गये l वे देखते हैं कि वह नाचने और गाने वाली कोई और नहीं, मीराबाई जी, श्रीकृष्ण जी के प्रेम में मग्न थी, गा रही थी l राजा जगत सिंह जी, कभी अपने कमरे में जाकर सोने का असफल प्रयत्न करते तो कभी उसे देखने का l इस तरह सुबह कब हो गई ! उन्हें कुछ पता नहीं चला l राजा जगत सिंह जी, ने सुबह देखा कि साथ वाले कमरे में जहाँ से उन्हें स्वर सुनाई दे रहा था, वहां एक मंदिर है और उस मंदिर में श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की दो मूर्तियाँ विराजित हैं l कहा जाता है यह वही श्रीकृष्ण जी की मूर्ति है जिसकी मीराबाई जी पूजा किया करती थी और उसमें सशरीर समा गई थी l
धमीड़ी की वापसी के समय राजा जगत सिंह जी से रहा नहीं गया l उन्होंने अपने पुरोहित के माध्यम से अपने मन की बात साहस सहित, वहां के राजा के समक्ष रख दी जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया l राजा ने उन्हें भेंट स्वरूप वे दो मूर्तियाँ ही नहीं से दीं बल्कि उनके साथ एक मौलसरी का पौधा भी दिया जिसे लेकर राजा जगत सिंह जी धमीड़ी आ गए l
राजा जगत सिंह जी, का राजस्थान से धमीड़ी में आगमन हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि दिल्ली के मुग़ल सम्राट ने धमीड़ी पर आक्रमण करने हेतु सेना की एक टुकड़ी को किसी विशेष सेना नायक के नेतृत्व में भेज दिया l
माता जी ने आगे कहा – “वह भवन जो अब बृजराज स्वामी मंदिर है, पहले राजा जगत सिंह जी, का राज दरवार था और उन्होंने उसकी पहली मंजिल पर जहाँ अब श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियाँ स्थापित हैं, वहां स्वयं बैठने की लिए राज सिंहासन स्थापित किया हुआ था l”
दूर से आई हुई थकी मुग़ल सेना धमीड़ी राज्य से कुछ कोस दूरी पर रात को विश्राम कर रही थी l रात में राजा जगत सिंह जी, को श्रीकृष्ण जी सपने में आये और उन्होंने उनसे कहा –
“मुग़ल सेना धमीड़ी राज्य पर आक्रमण करने वाली है l वह कृष्ण व मीरा की मूर्तियाँ खंडित कर दे कि उससे पूर्व तू उन दोनों को पास में बहने वाली जब्बर खड्ड में बनी अस्थाई झील में डुबो दे ताकि वह वहां सुरक्षित रह सकें l विजयी होने के पश्चात् तू उन्हें वहां से बाहर निकलवा लेना l”
युद्ध शुरू हुआ l मुग़ल सेना की एक टुकड़ी ने नूरपुर शहर पर भी आक्रमण किया तब प्रत्यक्ष दर्शियों ने देखा किले से दो सफेद घोड़ों पर दो घुड़सवार अपने हाथों में तलवारें लिए हुए निकले देखते ही देखते वे असंख्य घुड़सवारों में परिवर्तित हो गये l मुग़ल सेना को इसकी आशा नहीं थी l अपर सेना देख मुग़ल सेना की टुकड़ी के पांव उखड़ गए और वह वापिस भाग गई l युद्ध के मैदान में भी राजा की जीत हुई l राजा ने सुबह राज दरवार लगाना था कि उस रात को फिर एक बार श्रीकृष्ण जी, उन्हें सपने में आये और उन्होंने उनसे कहा –
“तू आज अपनी जीत पर इतना प्रसन्न है कि मुझे भी भूल गया l मीरा और कृष्ण की प्रतिमाओं को कौन लायेगा, जिन्हें तूने पानी में डुबो रखा है ?”
इतना सुनते ही राजा की तत्काल आँख खुल गई और इसके पश्चात् फिर उन्हें पलभर भी नींद नहीं आई l वह बड़ी व्याकुलता से भोर होने की प्रतीक्षा करने लगे l सुबह होते ही उन्होंने राज पुरोहितों को अपने पास बुलावा भेजा और उनके आने पर राजा ने उन्हें श्रीकृष्ण जी की सपने वाली सारी बात कह सुनाई l निर्णय हुआ, दोनों मूर्तियों को वापिस महल में लाया जाये l तब स्नान आदि से निवृत होकर राजा जगत सिंह जी, ने प्रजा जनों के साथ जब्बर खड्ड की ओर चलने और अस्थाई झील में से मीरा और कृष्ण की प्रतिमाओं को राज महल में लाने का आदेश दिया l
प्रतिमाओं को जब्बर खड्ड की झील से निकलवा कर पालकी में रखा गया l कहारों ने पालकी उठाई और वे राज महल की ओर चल दिए l वे अभी बड़ी मुश्किल से दस ही पग चल पाए होंगे कि अचानक उन्होंने पालकी नीचे धरती पर रख दी l तब राजा ने कहारों से पूछा –
“क्या हुआ, पालकी नीचे क्यों रख दी है ? आप आगे क्यों नहीं चल रहे ?
“ पता नहीं, पालकी अचानक भारी कैसे हो गई ? इसे उठाकर हमसे नहीं चला जा रहा l” कहारों ने कहा l
तब राज पुरोहितों सहित सभी उपस्थित जनों ने एक दूसरे का निरीक्षण करने के साथ-साथ आत्म निरीक्षण भी किया और पाया कि सभी लोग नंगे पांव चल रहे हैं, मात्र एक राजा ही ही हैं जो जूते पहने हुए थे l तब राज पुरोहित ने उनसे जूते उतारने का आग्रह किया l उनके द्वारा जूते उतारने के तुरंत पश्चात् पालकी पूर्वत भारहीन हो गई l
बृजराज स्वामी मंदिर में विराजित श्रीकृष्ण जी और मीराबाई जी की मूर्तियाँ l
राज महल में पहुँचने के पश्चात् राजा ने अपने राज सिंहासन को उसके स्थान से हटवा दिया और वहां पर श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियां स्थापित करवा दी l इसके साथ ही राजा ने अपने राज दरवार को ठाकुर द्वारा भी घोषित कर दिया l
बृजराज स्वामी मंदिर के प्रांगन में लहलहाता मौलसरी का पेड़
इतना ही नहीं राजस्थान के चितौड़ – उदयपुर से श्रीकृष्ण जी तथा मीराबाई जी की मूर्तियों संग लाये हुए उस मौलसरी के पौधे को भी राजा ने मंदिर के ठीक सामने प्रांगण में लगवा दिया जो अब भी एक विशाल वृक्ष है l उन्होंने भवन के निम्न भाग की दीवारों पर श्रीकृष्ण जी की लीलाओं से संबंधित अनेकों रंगीन मनमोहक भीती चित्र भी बनवाए थे l यह प्रतिष्ठित भवन अब बृजराज स्वामी मंदिर के नाम से जाना जाता है l
माता जी आगे कहती हैं – सन 1905 ई० की बात है, तब एक बहुत बड़ा भूकंप आया था l उस भूकंप में काँगड़ा शहर में जान-मॉल की बहुत अधिक हानि हुई थी लेकिन नूरपुर शहर में किसी मकान या प्राणी को कोई खरोंच तक नहीं आई थी l हाँ बृजराज स्वामी मंदिर की पिछली दीवार में y आकार की एक मात्र दरार आई थी जिसे बाद में ठीक कर दिया गया था, वह निशान अब भी दिखाई देता है l
माता जी आगे कहती हैं – “गर्मियों का मौसम था l एक रात मंदिर का पुजारी दर्शन और एक गद्दी मंदिर की धरातल पर बातें करते-करते कब सो गए, उन्हें कुछ पता ना चला l इस बार सुबह पुजारी को उठने में कुछ देरी हो गई लेकिन गद्दी जाग चुका था l इतने में गद्दी को ऊपर वाली पहली मंजिल पर किसी व्यक्ति के खडाऊं पहने चलने का स्वर सुनाई दिया जो उनकी ओर ही बढ़ा चले आ रहा था l वह अनजाना आ ही नहीं रहा था बल्कि “हरि ओम तत्सत” मन्त्र का भी निरंतर उच्चारण कर रहा था l अब वह छत की सीढ़ियाँ उतर रहा था और उसकू खडाऊं की आवाज आ रही थी l गद्दी देखता है – स्वयं श्रीकृष्ण जी एक हाथ में लोटा, दुसरे हाथ में दातुन और कंधे पर गमछा डाले हुए नीचे चले आ रहे हैं l इसके साथ ही साथ गद्दी के तन पर एक अनजाना सा भार बढ़ने लगा l वह निरंतर बढ़ता जा रहा था और गद्दी चाहकर भी उठना तो दूर, तनिक हिल भी नहीं पा रहा था l श्रीकृष्ण जी उसके पास आकर मंदिर से दूर सामने बने कमरे की ओर जा रहे थे l जैसे जैसे वे उससे दूर होते गए, उसके साथ ही साथ उस पर वह अनजान भार भी हल्का होता चला गया l श्रीकृष्ण जी ने कमरे की कुण्डी खोली और उसके भीतर चले गये l तब तक गद्दी पूरी तरह से भारहीन हो चूका था और उसके मुंह से निकला –
“दर्शन ! उठ, आज श्रीकृष्ण जी स्वयं स्नान करने निकलें हैं, तू सोया रह l”
पुजारी हड़बड़ाता हुआ उठा –
“हरि ओम, हरि ओम, क्या कह रहे हो ?” उसके मुंह से निकला l
“हाँ-हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ, जो तूने सुना l तेरे ठाकुर जी स्वयं स्नान करने हेतु अभी-अभी सामने वाले कमरे में गए हैं l” गद्दी ने कहा और तब उन दोनों ने सय्या त्याग दी l
चेतन कौशल “नूरपुरी”
-
श्रेणी:विभिन्न आलेख
जलधारा कराती है शिव लिंगों को स्नान
आलेख – धर्म अध्यात्म संस्कृति दैनिक जागरण 17.5.2006
देव भूमि हिमाचल प्रदेश में – सुल्याली गाँव तहसील नूरपुर से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है l इसी गाँव में एक कंगर नाला के ठीक उस पर, स्वयम प्रकट हुए आप अनादिनाथ शिव शंकर-भोले नाथ शम्भू जी का प्राचीन मंदिर है जो स्वयं निर्मित एक ठोस पहाड़ी गुफा में है, दर्शनीय स्थल है l
मान्यता है कि डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर में पीड़ितों की पीड़ा दूर होती है, जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शांत होती है, अर्थार्थियों को उनका मनचाहा भोग-सुख मिलता है और तत्वज्ञान की लालसा रखने वालों को तत्वज्ञान भी प्राप्त होता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा रूप में दृश्यमान होने के कारण उसमें कहीं दूध समान सफेद रंग की जलधाराएँ गिरती दिखाई देती हैं तो कहीं बूंद-बूंद करके टपकता हुआ पानी l इसके नीचे बने असंख्य छोटे-बड़े शिव लिंगों को उनसे हर समय स्नान प्राप्त होता रहता है l
डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा के ऊपर से कल-कल और छल-छल करके बहने वाली जलधारा की ऊंचाई लगभग 20-25 फुट है l जिस स्थान पर छड़-छड़ की ध्वनि के साथ यह जलधारा गिरती है, स्थानीय लोग अपनी भाषा में उसे छडियाल या गौरीकुंड कहते हैं l यह डिह्बकू भी कहलाता है l डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर गुफा की वाएं ओर एक और गुफा है जो स्थानीय जनश्रुति अनुसार कोई भूमिगत मार्ग है l मंदिर गुफा के दाएं ओर उससे कुछ ऊंचाई पर स्थित उसी के समान गहराई की एक अन्य गुफा हा l यहाँ पर गंगा की धारा, शिव जटा से प्रत्यक्ष सी प्रकट होती हुई दिखाई देती है l सुल्याली गाँव और उसके आसपास के कई क्षेत्रों को पिने का शुद्ध पानी यहीं से प्राप्त होता है l
परम्परा के अनुसार डिह्बकेश्वर महादेव मंदिर परिसर में जो भी महात्मा आते हैं, उनकी सेवा में राशन का प्रबंध सुल्याली गाँव के परिवार करते हैं l “बिच्छू काटे पर जहर न चढ़े” यह किसी सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद है या डिह्बकेश्वर महादेव की असीम कृपा ही l
सुल्याली गाँव में बिच्छू के काटने पर किसी व्यक्ति को जहर नहीं चढ़ता है l जनश्रुति और उनके विश्वास के अनुसार शिवरात्रि को शिव भोले नाथ सपरिवार डिह्बकू में विराजित रहते हैं तथा यहाँ पधारे हुए भक्तजनों को अपना आशीर्वाद देते हैं l
चेतन कौशल “नूरपुरी”
-
श्रेणी:विभिन्न आलेख
ख़ुशी का पर्व – दीपावली
आलेख – धर्म अध्यात्म संस्कृति मातृवन्दना अक्तूबर 2019
वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, और शिशिर विभिन्न ऋतुओं का देश है l वर्षा ऋतु के अंत में जैसे ही शरद ऋतु का आरम्भ होता है उसके साथ ही नवरात्रि – दुर्गा पूजन और रामलीला मंचन भी एक साथ आरम्भ हो जाते हैं l दुर्गा पूजन एवं राम लीला मंचन का नववें दिन समाप्त हो जाने के पश्चात् दसवें दिन विजय दसवीं को दशहरा मनाया जाता है l भारतीय परम्परा के अनुसार विजय दसवीं का पर्व लंकापति रावण (बुराई) पर भगवान श्रीराम (अच्छाई) के द्वारा विजय का प्रतीक माना जाता है l यह पर्व श्रीराम का रावण पर विजय पाने के पश्चात् अयोध्या आगमन की ख़ुशी में उनका हर घर में दीपमाला जलाकर स्वागत किया जाता है l
धर्म परायण, ईश्वर भक्त और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव जागरूक रहने वाला मनुष्य अपने जीवन में दीपावली को सार्थक कर सकता है l
सार्थक दीपावली
नगर देखो ! सबने दीप जलाये हैं
द्वार-द्वार पर, घर आने की तेरी ख़ुशी में मेरे राम !
अँधेरा मिटाने, मेरे राम !
आशा और तृष्णा ने घेरा है मुझको]
स्वार्थ और घृणा ने दबोचा है मुझको,
सीता को मुक्ति दिलाने वाले राम !
विकारों की पाश काटने वाले राम !
दीप बनकर मैं जलना चाहुँ,
दीप तो तुम प्रकाशित करोगे, मेरे राम !
अँधेरा खुद व खुद दूर हो जायेगा,
हृदय दीप जला दो मेरे राम !
सार्थक दीपावली हो मेरे मन की,
घर-घर ऐसे दीप जलें, मेरे राम !
रहे न कोई अँधेरे में संगी – साथी,
दुनियां में सबके हो तुम उजागर, मेरे राम !
चेतन कौशल "नूरपुरी"